अफगानिस्तान में अमेरिका की हार पूंजीवादी साम्राज्यवाद की हार है

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अफगानिस्तान में अमेरिका की यह हार किसी समाजवादी सत्ता से नहीं बल्कि उसके अपने भीतर के अन्तर्विरोधों के कारण हुई है.

जिन तालिबानियों को उसने पैदा किया था उन्हीं से हारा है, हालांकि अपनी हार को जीत में बदलने के लिए अमेरिका ने अपनी वफादार अशरफ गनी सरकार को अचानक धोखा देकर तालिबानियों से हाथ मिला लिया. इससे पूरी दुनिया में एकबार फिर अमेरिका की विश्वसनीयता तार-तार हुई है.

यह भारत की मौजूदा फासीवादी सरकार के लिये एक कड़वा सबक है जो अमेरिकी सेना के बल पर भारत की जनता के खिलाफ जघन्य मंहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रही है, यह सरकार अमेरिकी सेना के बल पर इतनी अकड़ रही है कि नौ महीने से दिल्ली की सड़कों पर बैठे किसानों की कोई सुनवाई नहीं कर रही है.

इन दरिंदों की सरकार को नहीं मालुम कि जनता जब उमड़ पड़ेगी तो अमेरिकी सेना उसी तरह भाग खड़ी होगी जैसे अफगानिस्तान में भाग खड़ी हुई है.

पूरे घटनाक्रम को समझने के लिए यह देखना होगा कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर समाजवाद और पूंजीवाद के बीच जीवन मरण का युद्ध चल रहा है.

जहां समाजवादी ताकतें अमेरिका के नेतृत्व में हार पर हाथ खाती जा रही हैं वहीं समाजवादी शक्तियां चीन के नेतृत्व में लगातार जीत पर जीत दर्ज करती जा रही हैं!

जहां अमेरिका 136 देशों में फैले अपने 800फौजी अड्डों के बल पर चीन की घेरेबंदी कर रहा है वहीं चीन अपने वन बेल्ट वन रोड नाम की दुनिया की सबसे बड़ी एवं महत्वाकांक्षी परियोजना के जरिए 65 देशों को जोड़ते हुए अमेरिकी सैन्य घेरेबंदी को तोड़ रहा है.

चीन की घेरेबंदी करने के मुख्य मकसद से ही अफगानिस्तान पर अमेरिका ने 2001 में हमला किया था और लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर अपनी कठपुतली सरकार बनाकर अफगानिस्तान की खनिज सम्पदा को जमकर लूटता रहा.

जाहिर है अफगानिस्तान खनिज पदार्थो में धनी है, कोयला,नमक, ताँबा, चाँदी,लोहा, गंधक, अभ्रक, एस्बेस्टास, क्रोमियम, सोना तथा बहुमूल्य पत्थर मिलते हैं। हाल में उत्तरी अफगानिस्तान के हेरात प्रांत में खनिज तेल प्राप्त हुआ है.

अफगान युद्ध पर आने वाले खर्च की भरपाई इन्हीं स्रोतों से लूटपाट करके हुई है. इस लूट के खिलाफ अफगानिस्तान की पीड़ित जनता उठ खड़ी हुई, हालांकि एक क्रान्तिकारी नेतृत्व के अभाव में जनता तालिबानियों के पीछे चलने को बाध्य हो गयी.

तालिबानियों से लड़ते-लड़ते अमेरिका तबाह होता जा रहा था, दो ट्रिलियन डालर खर्च करने के बावजूद भी अमेरिका हारता जा रहा था.

जनधन की हानि देखते हुए अमेरिकी जनता ने अफ़गान युद्ध रोकने के लिए अमेरिकी सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया. इधर सन् 2018 तक अमेरिकी सेना तीन तरफ से तालिबानियों से घिर गयी थी, भागने का कोई रास्ता नहीं मिल रहा था. तब अमेरिका ने तालबानियों से कई दौर की वार्ता करके सुरक्षित निकल भागने का रास्ता मांगा.

चूंकि अमेरिका को यह मालूम था कि ईरान, पाकिस्तान और चीन अपनी जमीन या आसमान से अमेरिकी सेना को जाने नहीं देंगे तब कश्मीर में 370 हटाकर कर्फ्यू लगाकर भारत सरकार ने अमेरिकी सेना के लिए सुरक्षित निकालने का रास्ता तैयार किया।
अब सवाल उठता है कि अमेरिकी सह पर मजदूरों, किसानों, बुनकरों पर अत्याचार करने वाली भारत की मौजूदा फासीवादी सरकार उपरोक्त घटनाक्रमों से क्या सबक लेती है?

(लेखक: रजनीश भारती, राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा उ. प्र.)

(यह लेखक के निजी विचार हैं राजनीति ऑनलाइन से इसका संबंध नहीं है)

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