‘लॉकडाउन में जब हम घरों कैद थे तब सरकार ने किया पर्यावरण को पलीता लगाने का काम’

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सरकार पर्यावरण को लेकर कितनी संवेदनशील है इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि लॉकडाउन में जब आप कोरोना वायरस से बचने के लिए घरों में कैद थे तब सरकार ने पर्यावरणीय मंजूरी के बगैर ही व्यवसायियों और कम्पनियों को फायदा पहुंचाने की प्लानिंग बना ली है.

चुटका परमाणु संयत्र: वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 12 मार्च 2020 को पर्यावरण प्रभाव निर्धारण प्रकिया 2006 में संशोधन के लिए ई.आई.ए 2020 प्रस्तावित किया था. इससे पर्यावरणीय मंजूरी के पहले ही परियोजना निर्माण कार्य करने की छूट, कई परियोजनाओं को पर्यावरण जन सुनवाई से मुक्ति, खदान परियोजनाओं की मंजूरी की वैलिडीटी अवधी में बढोतरी, मंजूरी के बाद नियंत्रण और निगरानी के नियमों में भारी ढील आदि जैसे बदलाव प्रस्तावित थे. मंत्रालय ने साफ साफ यह कह दिया है कि व्यवसायी और कम्पनियों के लिए व्यापार सुगम करना इस प्रस्ताव का उद्देश्य है. अब सवाल ये है कि ये किस कीमत पर किया गया है. चलिए हम आपको बताते हैं, ये किया है कि शुद्ध वायु, जल और ऊपजाऊ मिट्टी की कीमत पर.

बेहद गैरजिम्मेदार है सरकार का कदम

हैरानी है इस बात की कि पर्यावरणीय और जलवायु संकट के चलते आपदाएं बढ रही हैं और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर समुदाय अपनी आजीविका और जीने के स्रोत खोते जा रहे हैं लेकिन सरकार तथाकथित विकास के नाम पर पर्यावरण को उजाड़ रही है. सरकार देश के किसान, मछुआरे, वन आधारित आदिवासी समुदाय, पशुपालक, दलित और कई अन्य समुदाय को सीधे-सीधे चोट पहुंचा रही है. ये समुदाय सरकार के गैर जिम्मेदाराना कदम की वजह से विस्थापन और प्रदूषण की मार झेल रहे हैं. वन एवं पर्यावरण मंत्रालय जनता की भागीदारी को शून्य करके पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए संसाधनों को कौड़ियों के दाम पर बेचने की योजना बनाने में मसरूफ है.

पीढ़ियां चुकाएंगी की इसकी कीमत

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल ने 1984 में युनियन कार्बाइड की त्रासदी झेल चुका है और अभी हाल में वाइजैक आंध्र प्रदेश की घटना से सबक लेने की जरुरत है. नहीं तो पीढ़ियां इसकी कीमत चुकाएंगी. पर्यावरण आंकलन अधिसूचना को पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम 1986 के अन्तर्गत सबसे पहले 1994 में जारी किया गया था. इसके पहले यह कार्य महज प्रशासनिक जरूरत होता था. लेकिन 27 जनवरी 1994 में पर्यावरण प्रभाव नोटीफिकेशन के जरिये एक विस्तृत प्रकिया शुरू हुई. इस नोटीफिकेशन के अन्तर्गत 29 औधोगिक एवं विकासात्मक परियोजनाओं (बाद में संशोधन कर इस संख्या को 32 किया गया) को शुरू करने के लिए केन्द्र सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय से मंजूरी लेना अनिवार्य कर दिया गया.

इसके तहत बङे बांध, माइंस, एयरपोर्ट, हाइवे,समुद्र तट पर तेल एवं गैस उत्पादन, पेट्रोलियम रिफाइनरी, कीटनाशक उधोग, रसायनिक खाद, धातु उधोग,  थर्मल पावर प्लांट, परमाणु उर्जा परियोजनाओं को शामिल किया गया. इसमें बताया गया कि परियोजनाओं को एक विस्तृत प्रकिया से गुजरना जरूरी है. जिसके तहत पर्यावरण प्रभाव निर्धारण रिपोर्ट (ई.आई.ए) तैयार कर सार्वजनिक करना एवं जन सुनवाई महत्वपूर्ण माना गया. ई.आई.ए रिपोर्ट अंग्रेजी और प्रादेशिक और स्थानीय भाषा में जिला मजिस्ट्रेट, पंचायत व जिला परिषद, जिला उधोग कार्यालय और पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के संबंधितक्षेत्रीय कार्यालय में उपलब्धता सुनिश्चित किया गया. इसका मुख्य उद्देश्य था कि सभी विकास परियोजनाओं के पर्यावरणीय प्रभावों का केवल सही सही आंकलन ही न हो बल्कि इस आंकलन प्रकिया में प्रभावित समुदायों का मत भी लिया जाए और उसी के आधार पर परियोजनाओं को पर्यावरण मंजूरी देना या नहीं देने का फैसला लिया जाए. इस अधिसूचना के अन्तर्गत ही प्रभावित क्षेत्रों में पर्यावरणीय जन सुनवाई जैसा महत्वपूर्ण प्रावधान रखा गया. किसी भी परियोजना को मंजूरी देने से पहले उसके प्रभावों को पैनी नजर से आंकने और जांचने के रास्ते भी खुले और निर्णय प्रकिया में जनता की भूमिका भी बढी. इस प्रकिया में परियोजना चार चरणों से गुजरती हैं.

  1. जब परियोजना निर्माता आवेदन करता है, उसे टर्म्स ऑफ रेफरेंस प्रतीक्षारत अवस्था कहते हैं.
  2. इसके बाद एक विशेषज्ञ आकलन समिति द्वारा परियोजना की छानबीन की जाती है
  3. छानबीन के अन्तर्गत पर्यावरण प्रभाव आंकलन हेतु बिंदु (टर्म्स ऑफ रेफरेंस) तैयार किए जाते हैं.
  4. इसी के साथ परियोजना टर्म्स ऑफ रेफरेंस स्वीकृत अवस्था में आ जाती है.
  5. पर्यावरण प्रभाव आंकलन का मसौदा तैयार होने के बाद जन सुनवाई आयोजित की जाती है.
  6. उसके बाद पर्यावरण प्रभाव आकलन प्रतिवेदन तथा पर्यावरण प्रबंधन योजना को अंतिम रूप दिया जाता है.

ये चरण पूरा होने के बाद रिपोर्ट पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को प्रस्तुत की जाती है. यह अवस्था पर्यावरण मंजूरी प्रतीक्षारत अवस्था है. इसके बाद विशेषज्ञ आंकलन समिति द्वारा सबंधित दस्तावेजों की छानबीन की जाती है और परियोजना को स्वीकृत या ख़ारिज की करने की सिफारिश करती है. एक बार पर्यावरण मंजूरी मिल जाने के बाद परियोजना पर्यावरण मंजूरी अवस्था में आ जाती है. पू

सरकारों ने पर्यावरण के साथ किया समझौता

1994 से 2006 तक 12 सालों में 13 बार संशोधन के बाद पर्यावरणीय मंजूरी महज मजाक बनकर रह गई. 14 सितम्बर 2006 को पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा 1994 के नोटीफिकेशन को बदल कर पर्यावरण प्रभाव निर्धारण प्रकिया 2006 बनाया गया. ये नोटीफिकेशन भी गोविंद राजन के नेतृत्व वाली समिति की सिफारिशें और मंत्रालय द्वारा विश्व बैंक की मदद से चलाए गए ” पर्यावरण प्रबंधन दक्षता विकास कार्यक्रम “ के आधार पर लाया गया था. जिसमें कम्पनियों द्वारा परियोजना को स्वीकृति देने की प्रकिया को शीघ्र व सरल और सरकारी नियंत्रण को सरल करने जैसे सुझाव को शामिल कर लिया गया।जबकि स्वीकृति प्रकिया में शर्तो की मानिटरिंग तथा शर्तो की कार्य योजना महत्वपूर्ण है. लेकिन 2006 का नोटीफिकेशन अधिक जोर नहीं देता है. इसमें सिर्फ इतना कहा गया है कि 6 महीने का देना ही जरूरी है. प्रकिया कमजोर करने के बावजूद लोग आज भी उस जन सुनवाई में विरोध करने जाते हैं.

ई.आई.ए. 2020 पर्यावरण और लोगों के साथ धोखा

ई.आई.ए. 2020 पर्यावरण और इस देश के लोगों के साथ धोखा है. और इस अधिसूचना को खारिज होना चाहिए. लेकिन लॉकडाउन में भारत सरकार के पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने पर्यावरण से जुड़े नियमों को कमज़ोर कर कंपनियों को इनसे निजाद देने की तैयारी कर ली है. मंत्रालय ने 12 मार्च 2020 को पर्यावरण आंकलन अधिसूचना, 2006 का एक संशोधित खाका अपनी वेबसाईट पर डाला था और इस पर जनता के सुझाव 60 दिनों के अन्दर आमंत्रित किये थे. ये बात लॉकडाउन से पहले की है. इस अधिसूचना के बाद पूरे देश में लॉकडाउन हो गया और मंत्रालय ने इसके बाद भी इस खाके को वापिस नहीं लिया और इस पर जनता और संगठनों के सुझाव देने की आखरी तारीख, 15 मई तय की गई. कुल मिलाकर ये कह सकते हैं कि जनता के सुझाव नहीं आ पाए.

मुख्य प्रस्तावित बदलाव

  • मंंज़ूरी के पहले ही परियोजना निर्माण कार्य करने की छूट.
  • कई परियोजनाओं को पर्यावरण जन सुनवाई से मुक्ति
  • खदान परियोजनाओं की मंज़ूरी की वैलीडीटी अवधि में बढ़ोतरी
  • मंजूरी के बाद नियंत्रण और निगरानी के नियमों में भारी ढील

इसे देखकर ये लगता है कि न केवल मंत्रालय ने अधिसूचना के संशोधन की प्रक्रिया में जल्दबाजी दिखाई है बल्कि यदि इस प्रस्ताव को गौर से पढ़ा जाए तो यह मालूम होता है कि यह प्रकृति और इस पर आधारित लोगों, दोनों के लिए ही एक खतरे की घण्टी है. पर्यावरण आंकलन अधिसूचना को जिसको ई.आई.ए नोटिफिकेशन भी कहते हैं. पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम, 1986 के अंतर्गत सबसे पहले 1994 में जारी किया गया था. ई.आई.ए, 2020 की अधिसूचना में मंत्रालय ने कई ऐसे ज़बरदस्त बदलाव प्रस्तावित करते हुए इस अधिसूचना के उद्देश्य पर सीधा ही वार किया है.

आपको बता दें कि चुटका परमाणु संयत्र पहले भी विवादों पर रहा है. यहां पर रहने वालों लोगों के लिए पलायन का खतरा खड़ा हो गया है. मध्यप्रदेश सरकार हो या केंद्र सरकार इस ओर ध्यान देने को ये तैयार नहीं हैं. यहां के लोगों को कहना है सरकारें सिर्फ कंपनियों को फायदा पहुंचाने का काम कर रहीं हैं.

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अंकित तिवारी, स्वतंत्र पत्रकार

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