राजदंड वाला ‘लोकतंत्र’, यही तो फासीवाद है!
राजदंड वाला ‘लोकतंत्र’, सामंती शासन में जुल्म छिपा नहीं था, पूरी दुनिया में राजदंड या Sceptre उसका प्रतीक था.
“हाडतोड मेहनत से जो भी पैदा किया है, उसमें से बस किसी तरह जिंदा रहने लायक रखकर सारा सामंत के हवाले कर दो, नहीं तो दंड”, यही सीधा सिद्धांत था.
पूंजीवाद ने सबको बराबर कर दिया – कानून में, वास्तविकता में नहीं.
राजदंड अजायबघर में रखवा दिया गया, ताकि सब मान लें कि अब दंड का भय नहीं, जनतंत्र है.
पर अभी भी श्रमजीवियों की मेहनत के उत्पाद में से जिंदा रहने के लिए न्यूनतम छोडकर सारा उत्पादन के साधनों के, संपत्ति के, पूंजी के मालिक के पास ही जाता है.
कानूनी बराबरी के बाद भी 10% संख्या लगभग समस्त सामाजिक संपदा पर काबिज हो गई है.
पर अब इन श्रमजीवियों में से बहुत से पूछने लगे हैं कि संविधान कानून में तो सब बराबर होने का ऐलान हुआ था, फिर वो बराबरी कहां गई?
चुनांचे पूंजीपतियों ने उस राजदंड को अजायबघर से निकलवा मंगाया है, फिर से उसे स्थापित कर दिया है.
वो बता रहे हैं कि सवाल पूछोगे, न्याय मांगोगे, मिल्कियत में अपना हिस्सा अधिकार मांगोगे, तो लो…ये रहा राज का दंड!
राज्य अभी भी दंड देने के लिए ही है, बराबरी की बात तो बस भरमाने के लिए, असल नीयत छिपाने वास्ते ही थी.
असल में तो गैरबराबरी है, शोषण है, इसीलिए न राज्य है, उसका काम ही दंड देना है.
राजदंड वाला ‘लोकतंत्र’, यही तो फासीवाद है!!