कविता: हमारी देह पर तुम्हारा पौरुष जागता है
|| हमारी देह पर तुम्हारा पौरुष जागता है ||
तुम डरते हो
हमारी सत्ता तुम्हें डराती है
हमारी देह पर तुम्हारा पौरुष जागता है
तुम अपनी थकान हमारे वक्ष के बीचों-बीच उतारते हो
घर के नींव की पहली ईंट हम रखते हैं
रसोई की सोंधी गंध में जब घर नहाता है
तब सबसे पहले हमने तुम्हीं को तृप्त किया है
हमारे हँसने से तुम्हारे घर की दरारें भी हँसती हैं
बच्चों की किलकारियाँ हमारी ही आँचल में बँधी है
फिर तुम इस हद तक हिंसक क्यों हो पुरुष ?
हमारे मन को कभी थाह नहीं पाए
तुमने हमें क्रमबद्ध तरीके से एड़ियों के नीचे रखा
हमारी मुक्ति की आवाज़ को कंठ में ही मारा
हमारे हृदय दर्द पर लगाना था तुम्हें लेप
तुमने हमें प्रेम में दरिद्र किया
हम आधी रात तक जाग-जाग कर रोती रहीं
पैर के अंगूठे से मिट्टी पर लिखती रहीं दाह कविताएँ
समय के गाल पर हम काले निशान की तरह उगे
हम उर्वर होकर भी बंजर ही रहे
वो कैलेण्डर जिसका पन्ना कभी पलटा नहीं गया
कभी तारीख़ नहीं बदली
ना दिन
ना ही रातें
हे पुरुष !
तुम न्याय करो
छल रहित न्याय
खोलो आँखें
देखो हमारी ओर
हम मूक औरतें तुम्हारे घर की खूंटी से टंगी
अक्षरों पर नुक़्ते की तरह क्या मात्र एक बिंदु हैं।।
ज्योति रीता