गैर यादव OBC वोटबैंक के हाथ में है सत्ता की चाबी, किसकी किस्मत का खुलेगा ताला?

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गैर यादव OBC वोट बैंक उत्तर प्रदेश में बेहद महत्वपूर्ण हो गया है. स्वामी प्रसाद मौर्य और दारा सिंह चौहान के सपा में शामिल होने के बाद अब भारतीय जनता पार्टी के लिए इस वोट बैंक को साधना मुश्किल हो सकता है. लेकिन यह वोट बैंक कितना महत्वपूर्ण है क्यों?

स्वामी प्रसाद मौर्य उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री और राज्य में बीजेपी का बड़ा चेहरा माने जाते थे. ओबीसी में उनकी अच्छी पैठ मानी जाती है. मौर्य गुट का दावा है कि अभी और इस्तीफे होंगे. उनके साथ जाने वाले मंत्री और विधायकों की लिस्ट लंबी है. और अगर ऐसा होता है तो इससे बीजेपी का गणित निश्चित तौर पर बिगड़ जाएगा. हमें यहां जाति के आधार पर उत्तर प्रदेश चुनाव के वोटिंग पैटर्न को भी बारीकी से समझने की ज़रूरत होगी. 

अगर स्वामी प्रसाद मौर्य को ही लें तो राजनीतिक जानकार कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के करीब 50 से 60 सीटों पर उनका प्रभाव है. 2016 में जब बसपा छोड़कर वह बीजेपी में जुड़े थे तो करीब 15 विधानसभा सीटें हैं उन्हें मिली थी जिसमें से 12 प्रत्याशियों को जिताने में कामयाब रहे थे तीन प्रत्याशी हार गए थे और इन हारने वाले प्रत्याशियों में उनका बेटा भी शामिल था. इलाके की बात करें तो प्रयागराज, रायबरेली, कौशांबी, संतकबीरनगर, सिद्धार्थनगर, बदायूं, कुशीनगर में इनका प्रभाव अच्छा है.

कितना महत्वपूर्ण है गैर यादव OBC फैक्टर?

2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव और 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी की जीत के पीछे सवर्णों के साथ साथ नॉन-डॉमिनेंट (लोअर) ओबीसी बहुत बड़ा कारण रहे हैं. मंडल पॉलिटिक्स के बाद दो दौर आए. एक दौर में ओबीसी की बात राजनीति में ख़ूब हुई. उस दौर में ओबीसी पार्टियाँ उभर कर आईं, चुनावी राजनीति में उन्हें एक वोट बैंक के तौर पर देखा जाने लगा.

दूसरा दौर पिछले 10-15 सालों में आया है, जब ओबीसी में भी दो तरह के ओबीसी की बात होने लगी है. डॉमिनेंट ओबीसी और नॉन-डॉमिनेंट ओबीसी. उत्तर प्रदेश में यादव डॉमिनेंट ओबीसी में आते हैं और मौर्य, लोध, शाक्य नॉन-डॉमिनेंट ओबीसी में. बीजेपी को मालूम था कि डॉमिनेंट ओबीसी का वोट क्षेत्रीय पार्टी को जाता है. उत्तर प्रदेश की बात करें तो वो समाजवादी पार्टी का वोट बैंक है. इस वजह से बीजेपी ने नॉन-डॉमिनेंट ओबीसी को साधने की कोशिश शुरू की.

जरा इस नंबर गेम को भी समझ लीजिए

आंकड़ों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में ओबीसी वोट 35 फ़ीसदी हैं जिसमें डॉमिनेंट यादव ओबीसी 10 फ़ीसदी के आस-पास हैं. बीजेपी के निशाने पर बाक़ी के 25 फ़ीसदी नॉन-डॉमिनेंट ओबीसी हैं. साल 2009 से पहले तक बीजेपी के पास 20-22 फ़ीसदी ओबीसी वोटर थे. साल 2014 में ओबीसी वोट 33-34 फ़ीसदी हो गए. साल 2019 में ये और बढ़कर 44 फ़ीसदी हो गए. इसमें नॉन- डॉमिनेंट ओबीसी का योगदान ज़्यादा था.

2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 39 प्रतिशत वोट शेयर मिला था. कुर्मी और कोइरी के साथ साथ नॉन-डॉमिनेंट ओबीसी ने भी भारी संख्या में बीजेपी का साथ दिया.

2017 में उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत से जीत के बाद केशव प्रसाद मौर्य को उप-मुख्यमंत्री पद दिया गया. उन्हीं की अध्यक्षता में बीजेपी ने चुनाव भी लड़ा था. स्वामी प्रसाद मौर्य को भी मंत्री पद दिया गया था. केंद्र में पिछले साल मंत्रिमंडल विस्तार की बात आई तो सात मंत्री उत्तर प्रदेश से बनाए गए जिसमें से केवल एक ब्राह्मण और बाक़ी 6 ओबीसी और दलित समाज से थे और वो भी गै़र यादव और ग़ैर जाटव. 

  1. पंकज चौधरी और अनुप्रिया पटेल ओबीसी कुर्मी समाज से हैं.
  2. कौशल किशोर पासी समाज से हैं. जाटव के बाद उत्तर प्रदेश में पासी समाज का बड़ा वोट बैंक है.
  3. बीएल वर्मा लोध (पिछड़ी जाति ) समाज से आते हैं और माना जाता है कि लोध समुदाय पर उनका अच्छा असर है.
  4. पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह भी लोध समाज से थे.
  5. भानु प्रताप वर्मा दलित हैं.

यूपी में क्यों नाराज हो सकता है गैर यादव ओबीसी?

पिछले कुछ सालों में बीजेपी भले ही ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे के साथ सभी को जोड़ कर चलती प्रतीत होती है, लेकिन पिछड़ी जाति के नेता ख़ुद को जुड़ा हुआ महसूस नहीं करते. केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पिछड़ी जातियों को बहुत कुछ मिला है. लेकिन उत्तर प्रदेश में ऐसा नहीं है. यहाँ मुख्यमंत्री ठाकुर है. केशव प्रसाद मौर्य मुख्यमंत्री होते तो शायद बात और होती. इसलिए जो लोग उत्तर प्रदेश के सियासी नब्ज को जानते हैं उनका मानना है के चुनाव से ठीक पहले स्वामी प्रसाद मौर्य का बीजेपी छोड़कर सपा में जाना योगी आदित्यनाथ के लिए एक मुश्किल का सबब बन गया है. और इस परेशानी की काट उन्हें ढूंढने होगी.

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