पंचायत राज में ओबीसी का हिस्सा कैसे गायब हुआ?

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How did the share of OBCs disappear in Panchayat Raj?


पंचायत राज में ओबीसी का हिस्सा कैसे गायब हुआ? ये सवाल क्यों उठ रहा है…बाबा साहेब डा. अम्बेडकर के दबाव के कारण 1953 में तत्कालीन नेहरू सरकार को ओबीसी के लिए कालेलकर आयोग की नियुक्ति करनी पड़ी। परंतु उस समय तमिलनाडु को छोड़कर अन्य राज्यों के ओबीसी नेता राजनीति में प्रभावी न होने के कारण कालेलकर आयोग की रिपोर्ट कचरा पेटी में फेंक दी गई।

डा. राम मनोहर लोहिया द्वारा बिहार के प्रभावशाली ओबीसी नेता आर एल चंदापुरी के साथ गठबंधन करने के कारण ओबीसी आंदोलन को समाजवादी विचारधारा का आधार मिला जिसके कारण उसकी राजनैतिक जड़े मजबूत हुईं।
“संसोपा ने बांधी गांठ”
“पिछड़ा पावै सौ में साठ”
जैसे नारे लगाते हुए ओबीसी में बढ़ते असंतोष को संगठित करने का कार्य इस ओबीसी आंदोलन ने किया।
उसमें से कर्पूरी ठाकुर,राम नरेश यादव, बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा, ललई सिंह यादव, डा राम स्वरूप वर्मा, जनार्दन पाटिल जैसे असंख्य ओबीसी नेता राजनीति में प्रभावशाली हुए।

ओबीसी आंदोलन को समाजवाद जैसी क्रांतिकारी विचारधारा का आधार मिलने के कारण उ प्र और बिहार में ओबीसी का राजनीतिक वर्चस्व बढ़ा जिसके फलस्वरूप इन दोनों राज्यों को ओबीसी मुख्यमंत्री मिले, उत्तर भारत में जहां क्रांतिकारी समाजवादी विचारधारा स्वीकार करके ओबीसी आंदोलन राजनीतिक उथल-पुथल कर रहा था वहीं दक्षिण भारत में भी क्रांतिकारी फुलेवादी ब्राह्मणी-अब्राह्मणी विचारधारा से परिवर्तन घटित हुआ। 1967 में तमिलनाडु राज्य में पहली ओबीसी सरकार द्रुमक पार्टी ने स्थापित किया।

ओबीसी का यह बढ़ता असंतोष राज्य स्तर पर भले ही सीमित रहा हो फिर भी वह दिल्ली की गद्दी की तरफ आगे बढ़ता रहा।
उसमें से लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह, शरद यादव, देवगौड़ा, करुणानिधि, जैसे राष्ट्रीय नेता ओबीसी आंदोलन से तैयार होने लगे।ये ओबीसी नेता भले ही अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों से थे किन्तु उन्हें मिली राष्ट्रीय नेता की पहचान प्रस्थापितों की धड़कन बढ़ाने वाली थी।

अंततः इन ओबीसी नेताओं ने 1990 में वीपी सिंह के नेतृत्व में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करना शुरू किया इस तरह पूरे देश की राजनीति ही ओबीसी केन्द्रित हो गई। उस समय ओबीसी की स्वतंत्र पार्टियां स्थापित होने लगी व ओबीसी के कारण बहुजन समाज पार्टी जैसी छोटी पार्टियां भी सत्ता में आने लगीं।

ओबीसी के बढ़ते राजनीतिक वर्चस्व के कारण कांग्रेस व भाजपा जैसी प्रतिगामी पार्टियों को भी ओबीसी नेता निर्माण करने की जरूरत महसूस होने लगी।छगन भुजबल, गोपीनाथ मुंडे,उमा भारती, कल्याण सिंह जैसे अनेक हिंदू नेता रातों-रात ओबीसी नेता के रूप में चमकने लगे।
भारत के राज्य व केन्द्रीय राजनीति का केन्द्र बिंदु ओबीसी की तरफ सरकना

कांग्रेस भाजपा जैसी उच्च जाति की पार्टियों की आंख में खटकने लगा, इस पार्श्वभूमि में अपनी गांव स्तर की राजनीति का आधार सुरक्षित रखने के लिए कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार ने पंचायत राज विधेयक लाकर 73वां व 74वां संविधान संशोधन किया , इस संशोधन के अनुसार क्रमशः ग्राम पंचायत, ब्लाक पंचायत व जिला पंचायत और उसी प्रकार नगरपालिका व महानगरपालिका में ओबीसी एससी एसटी व महिलाओं को आरक्षण मिलना शुरू हो गया। स्थानीय निकायों में अकेले ओबीसी को आरक्षण नहीं दे सकते थे इसलिए ओबीसी के साथ एससी एसटी व महिला वर्ग को भी आरक्षण देना पड़ा।

इसका परिणाम यह हुआ कि चारों ही पिछड़े वर्गों से गांव स्तर पर नेतृत्व का निर्माण होने लगा। इस संविधान संशोधन से स्थानीय स्वराज संस्थाओं को सीधे केंद्र से बड़े पैमाने पर निधि प्राप्त होने लगी, इसलिए कांग्रेस व भाजपा जैसी उच्च जाति की पार्टियों का उध्वस्त हो रहा जनाआधार कुछ हद तक संवरने लगा।
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परंतु पिछड़े वर्ग के लिए किया गया कोई भी विधान स्थायी नहीं होता, यह विधान
पिछड़े वर्ग के आंदोलन के बढ़ते प्रभाव के कारण खतरे में आये उच्च जातियों के वर्चस्व को टिकाए रखने के लिए किया गया रहता है।
डैमेज कंट्रोल होने के बाद वह विधान वापस ले लिया जाता है।

संविधान संशोधन होते ही उसके विरोध में उसी वर्ष सन 1994 में डा. के. कृष्ण मूर्ति ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल किया था उस याचिका में उन्होंने सीधे 73वें और 74वें संविधान संशोधन को ही चुनौती दी थी किन्तु यह संविधान संशोधन सत्ताधारी जातियों ने अपने हित के लिए किया था इसलिए सुप्रिम कोर्ट ने उस पर निर्णय 2010 तक प्रलंबित रखा ।

आज राष्ट्रीय स्तर पर उच्च जातियों की पार्टी का एकतरफा वर्चस्व स्थापित हो चुका है एवं कांग्रेस का विकल्प दे सके पिछड़े वर्ग की ऐसी एक भी पार्टी न बची होने के कारण उच्च जातियों की राजनीति सुरक्षित हो चुकी है अब उन्हें ओबीसी वर्ग में नये नेता निर्माण करने की जरूरत नहीं रह गई है इसलिए 2010 का कृष्ण मूर्ति की याचिका पर दिए निर्णय का आधार लेकर 2021 में विकास गवली की याचिका पर दिए जजमेंट में ओबीसी का यह राजनीतिक आरक्षण रद्द करने की साजिश रची गई प्रस्थापित पार्टियों में जो ओबीसी नेता बनाए गए थे वे अत्यंत मजबूत हो गए थे उन्हें खत्म करने के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ी।

ईडी , सीबीआई, जेल व दुर्घटना जैसे सभी साधनों का प्रयोग करते हुए प्रस्थापित उच्च जाति के सत्ताधारियों ने अपनी अपनी पार्टियों के पुराने ओबीसी नेताओं को खत्म कर दिया है।अब देश की राजनीति में ओबीसी नेताओं का वर्चस्व खत्म होने को है कुछ ओबीसी नेता सक्रिय हैं परन्तु वे भी जान हथेली पर लेकर किसी तरह जी रहे हैं, उनका उपयोग सिर्फ ओबीसी वोट उच्च जाति की पार्टियों को दिलाने के लिए होता है अब प्रस्थापित पार्टियों को ओबीसी वोट तो चाहिए किन्तु ओबीसी नेता नहीं।

पंचायत राज में खत्म हो रहा ओबीसी आरक्षण पुनः प्राप्त करने के लिए सुप्रिम कोर्ट ने कुछ विकल्प खुले रखे हैं, जो वार्ड ओबीसी के लिए आरक्षित रखना है उसका इंपेरिकल डेटा जमा करना आवश्यक है, यह डेटा या तो राज्य सरकार स्वतंत्र आयोग नियुक्त करके अथवा स्वतंत्र यंत्रणा द्वारा जमा करना चाहिए। प्रत्येक पांच वर्ष में आने वाले चुनाव के लिए वह बारंबार करते रहना होगा।

कृष्ण मूर्ति की याचिका पर दिए निर्णय में स्पष्ट आदेश है कि किसी भी परिस्थिति में एससी एसटी और ओबीसी वर्ग का कुल आरक्षण 50% से ऊपर नहीं जाना चाहिए।

इसलिए आदिवासी बहुल जिलों के ओबीसी का आरक्षण इंपेरिकल डेटा देने के बाद भी कम होगा ही उसमें उच्च जातीय प्रशासकीय अधिकारियों व सत्ताधारियों की तरफ से पक्षपात होना स्वाभाविक है।

बड़ी संख्या में आदिवासी चुनकर आयेंगे तो भी चलेगा, क्योंकि इससे उच्च जातियों की सत्ता को कोई खतरा नहीं होता किन्तु बड़ी संख्या में ओबीसी चुनकर आयेंगे तो वे मजबूत होकर सीधे शासक जातियों की सत्ता में स्पर्धी हो जाते हैं, इसलिए झूठा इंपेरिकल डेटा देकर ओबीसी का आरक्षण ज्यादा से ज्यादा कम करने का प्रयास शासन के मनुवादियों का रहेगा। ओबीसी के इस राजनीतिक आरक्षण का सबसे ज्यादा झटका लगा है तो मराठा जाट पटेल जैसी जमींदार सत्ताधारी जातियों को! इस तरह सुप्रिम कोर्ट का यह विकल्प स्वीकार करके भी ओबीसी का राजनीतिक आरक्षण सुरक्षित रहेगा यह अपेक्षा करना बेमानी होगा।

सुप्रिम कोर्ट ने इंपेरिकल डेटा का आग्रह किया है, ओबीसी जनगणना का क्यों नहीं? इंपेरिकल डेटा का आधार लेने पर कुल आरक्षण 50% तक सीमित रखने में कोई अड़चन नहीं आती। किन्तु यदि राष्ट्रीय स्तर पर ओबीसी की जनगणना हुई तो 50% आरक्षण की सीमा तोड़नी ही पड़ेगी इसी भय से सुप्रिम कोर्ट ने सरकार को ओबीसी जनगणना करने का आदेश न देकर इंपेरिकल डेटा इकट्ठा करने का आदेश दिया है।
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आज सभी राजनीतिक पार्टियों में ओबीसी के प्रति प्रेम का सागर उमड़ रहा है, सभी एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करके सभी ओबीसी के सबसे बड़े तारणहार होने का दिखावा कर रही हैं, इस राजनीतिक नौटंकी में सत्य कभी बाहर नहीं आता जिसके कारण जनता दिग्भ्रमित होती है एवं बार-बार प्रस्थापित पार्टियों के भ्रष्ट सामाजिक राजनीति में अटकी रहती है।सत्य बाहर लाने के लिए कुछ प्रखर सामाजिक प्रश्न पूछने पड़ते हैं। ऐसे सवाल खड़े होने के बाद ही इन प्रस्थापित पार्टियों के षड्यंत्र सामने आ सकते हैं।

अब पूछते हैं कुछ प्रखर प्रश्न!
पहला प्रश्न यह पूछना चाहिए कि एससी व एसटी को पंचायत राज में सत्ता पदों का आरक्षण किसके कारण मिला?
इस प्रश्न का उत्तर है-मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने की पार्श्वभूमि में नब्बे के दशक में ओबीसी की बढ़ती राजनीतिक जागृति के कारण यह आरक्षण सभी वंचित वर्गों को देना पड़ा अर्थात ओबीसी के कारण दलित आदिवासियों को यह आरक्षण मिला।
दूसरा प्रश्न यह पूछना चाहिए कि यदि एससी एसटी वर्ग को ओबीसी के कारण यह आरक्षण मिला है तो सिर्फ ओबीसी का ही आरक्षण क्यों खत्म किया जा रहा है?

इसका मोटा-मोटी तकनीकी उत्तर यह है कि, प्रत्येक दस वर्ष में होने वाली राष्ट्रीय जनगणना में एससी एसटी वर्ग की जाति आधारित जनगणना होती है जिसके कारण उनकी लोकसंख्या व अन्य जानकारी अधिकृत रूप से शासकीय रिकार्ड पर आती है इस तकनीकी कारण से दलित आदिवासी का पंचायत राज का आरक्षण तकनीकी दृष्टि से निकाला नहीं जा सकता। सिर्फ प्रत्येक दस वर्ष में होने वाली जनगणना में ओबीसी वर्ग की जाति आधारित जनगणना न होने के कारण उनकी संख्या व अन्य कोई भी जानकारी अधिकृत रूप से नहीं मिलती।इसी एक तकनीकी कारण से ओबीसी वर्ग का आरक्षण पूर्णतः खत्म किया जा सकता है या कम किया जा सकता है।
अब यह हुआ तकनीकी कारण!

वास्तविक कारण सामाजिक है, एससी व एसटी के आरक्षण की वजह से प्रस्थापितों की सत्ता को कोई खतरा नहीं होता, उच्च जातियों का वर्चस्व कायम रहता है। सिर्फ ओबीसी के किसी भी प्रकार के आरक्षण के कारण उच्च जातियों के वर्चस्व को ताबड़तोड़ धक्का लगता है यह मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद बदली परिस्थितियों से सिद्ध हो चुका है।इसी कारण से ओबीसी वर्ग के सामाजिक व राजनीतिक आरक्षण को खत्म करने के षड्यंत्र रचे जाते हैं।

यदि केवल जनगणना होती है इसलिए एससी एसटी वर्ग के आरक्षण को कोई धक्का नहीं लगता व केवल जनगणना नहीं होती इसलिए ओबीसी आरक्षण खत्म किया जा सकता है तो तीसरा प्रश्न यह पूछना चाहिए कि जो प्रस्थापित पार्टियां ओबीसी आरक्षण बचाने के लिए आक्रोश मोर्चे व एल्गार आंदोलन कर रही हैं वे सभी पार्टियां ओबीसी की जाति आधारित जनगणना कराने का प्रयत्न क्यों नहीं करतीं?

आंदोलन करना यह कार्यकर्ताओं का काम होता है प्रयत्न करना यह पार्टियों व सत्ता के नेताओं का काम है किन्तु ये नेता अपना काम न करके सिर्फ आंदोलन करके चमकने का प्रयास करते हैं
व ओबीसी वर्ग पर झूठे प्रेम को सच्चा प्रेम दिखाते हैं।

ओबीसी के लिए सच्चा प्रेम रखने वाली सभी राजनीतिक पार्टियों को यह प्रस्ताव अपनी-अपनी पार्टियों की केन्द्रीय व राज्य कार्यकारिणी में मंजूर करना चाहिए और उसी प्रकार इन पार्टियों के विधायकों व सांसदों विधानसभा एवं लोकसभा में
निम्नलिखित प्रस्ताव पेश करके मंजूर भी करना चाहिए।
प्रस्ताव-1. 2021की राष्ट्रीय जनगणना में ओबीसी की जाति आधारित जनगणना केन्द्र सरकार को करना चाहिए।
प्रस्ताव-2. यदि केन्द्र सरकार ओबीसी की जनगणना नहीं करती तो राज्य सरकार अपने स्तर पर कानून बनाकर प्रत्येक दस वर्ष में ओबीसी सहित सभी जातियों उपजातियों की जनगणना कराएं।
प्रस्ताव-3. जब तक केंद्र सरकार ओबीसी की जाति आधारित जनगणना नहीं करती तब तक महाराष्ट्र या अन्य राज्य सरकारों का राष्ट्रीय जनगणना पर बहिष्कार रहेगा, राज्य सरकार के बहिष्कार का अर्थ यह होता है कि, राज्य सरकार का एक भी अधिकारी या कर्मचारी राष्ट्रीय जनगणना के काम में सहभागी नहीं होगा। विधानसभा में ऐसा प्रस्ताव मंजूर करना चाहिए।
प्रस्ताव-4. जब तक राज्य सरकार या केंद्र सरकार ओबीसी की जनगणना नहीं कराती, तब तक स्थानीय स्वराज संस्थाओं के सभी चुनाव स्थगित किए जाते हैं।

जो राजनीतिक पार्टियां ये चार प्रस्ताव अपनी-अपनी पार्टियों की केन्द्रीय व राज्य कार्यकारिणी में मंजूर करेंगी और उसी प्रकार विधायक व सांसद संबंधित सभागृहों में प्रस्ताव पेश करके मंजूर करवायेंगी वही पार्टियां ओबीसी की सच्ची हितचिंतक मानी जायेंगी।

लेखक: प्रो.श्रावण देवरे

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