The meaning of BJP's hat-trick of defeat?
  • भाजपा की हार की हैट्रिक के मायने?
  • “नालायक” अगर गाली है, तो “मुफ्तखोरी” क्या है?
  • तो क्या कर्नाटक या हिमाचल के वोटर “मुफ्तखोर” हैं?
  • हर दाग अच्छे नहीं होते चौकीदार जी

भाजपा की हार होगी या जीत इसपर बात करने से पहले मैं बताना चाहता हूं कि किसी भी लोकतंत्र के लिए इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है? कर्नाटक जैसे महत्वपूर्ण राज्य में चुनाव के दौरान बहस का मुद्दा बीते पांच साल के काम काज नहीं, “नालायक” सरीखे बेमतलब की बात पर हो रही है। साथ ही मुख्य विपक्षी पार्टी जब अपने अगले पांच साल की कार्ययोजना पर बात कर रही है, सत्तारुढ़ दल उसे “मुफ्तखोरी” करार दे रहा है।
नालायक अगर गाली है, तो मुफ्तखोरी शब्द का क्या मतलब है?
लायक अर्थात योग्य का विलोम शब्द है नालायक, अर्थात अयोग्य या अपात्र। मगर मुफ्तखोरी का सीधा आशय है मुफ्त खाने वाला। ऐसा कहने का एक मतलब तो गाली भी है। और क्यों इसे गाली नहीं माना जाना चाहिए? तो क्या कर्नाटक या हिमाचल के वोटर मुफ्तखोर हैं?

इस देश की संपत्ति पर इस देश के आखिरी पायदान पर खड़े व्यक्ति तक का उतना ही अधिकार है जितना सरकार के धनकुबेर मित्रों का। 2014 में सत्ता परिवर्तन क्या लॉलीपॉप दिखाकर नहीं किया गया था? हम तब के लोकलुभावन वादों पर बात कर वक्त जाया नहीं करना चाहते। क्योंकि आपमें से ज्यादातर को अच्छी तरह से वह सब याद होगा। आज विरोधी पार्टियों की गारंटी और वारंटी पर सवाल उठाने वाले अपने झूठे वादों पर बोलने से क्यों बचते फिर रहे हैं?
सच्चाई तो यह है कि इस देश में श्रमजीवियों या वर्कर क्लास को उचित सम्मान और मेहनताना नहीं मिलता। कोई भी सरकार सब्सिडी या अन्य मद में उन्हें कुछ देती है तो यह उनका हक है, मुफ्तखोरी या अहसान नहीं। इस देश के पिछड़े वंचित लोगों से उनका हक छीनने से हमारे राजनेताओं को बाज आना चाहिए। अगर कांग्रेस या कोई भी पार्टी अपने वंचित पिछड़े मतदाताओं की जिंदगी आसान करने के उद्देश्य से कुछ रियायत का भरोसा दिलाती है तो मुफ्तखोरी कैसे हो गई? असली मुफ्तखोर तो वे उद्योगपति और धनकुबेर हैं, जिनके करोड़ों के कर्जे आप माफ कर दिए।

2014 में सत्ता में आने के बाद से मोदी सरकार ने विनिवेश और पब्लिक सेक्टर यूनिट में हिस्सेदारी बेचकर 4.04 लाख करोड़ से ज्यादा रुपये की कमाई की है। जाहिर है हिस्सेदारी इस देश की आम जनता की थी। इनमें कई ठीकठाक मुनाफा कमा रही कंपनियां भी थी। विपक्ष आरोप भी लगाता रहा है कि इन कंपनियों को आपने मित्रों को कौड़ियों के भाव बेचा गया। एक कहावत है “आप करें तो रास लीला, दूसरा करे तो कैरेक्टर ढीला।“
बहरहाल इस देश के तथाकथित “मुफ्तखोर वोटर” ट्रेलर दिखाना शुरू कर चुके हैं। फिल्म तो साल 2024 में रिलीज होगी। जाहिर है सरकार की गारंटी और वारंटी की भी अग्नि परीक्षा होनी तय है।
हाल के सर्वे भाजपा के अच्छे दिन पूरे होने के संकेत दे रहे हैं। हालांकि सियासी रणनीतिकार फिलहाल यूपी को भाजपा का अभेद्य किला ही मान रहे हैं। मगर ज्यादातर बड़े शहरों में यूपी निकाय चुनाव के पहले चरण में मतदाताओं का जोश नदारद दिखा। राजधानी लखनऊ नगर निगम में मात्र 36.97 प्रतिशत मतदान की खबर है। पॉलिटिकल पंडित इसे सत्तारुढ़ दल के लिए खतरनाक संकेत मान रहे हैं। हालांकि 58.9 प्रतिशत वोटिंग के बावजूद कांग्रेस ने शिमला नगर निगम के चुनाव में भाजपा को धूल चटा दिया। कांग्रेस ने शिमला नगर निगम चुनाव में 34 में से 24 सीटों पर कब्जा जमाया है। जबकि सत्तारूढ़ बीजेपी के खाते में मात्र 9 सीटें ही आई हैं। पार्षद से विधानसभा तक का सफर तय करने वाले मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू का तजुर्बा रंग लाया। उधर, नगर निगम पालमपुर के एक वार्ड के लिए हुए चुनाव में भी भाजपा को मुंह की खानी पड़ी है। भाजपा डबल इंजन और ट्रिपल का इंजन का ढिंढोरा हर चुनाव में पीटती है। इस बार सुखविंदर सिंह सुक्खू ने नगर निगम चुनाव प्रचार के दौरान ही साफ कर दिया था कि प्रदेश सरकार के बिना शिमला में विकास नहीं हो सकता। मतदाताओं ने उनकी मुराद पूरी कर दी।

हिमाचल प्रदेश की भांति, शिमला नगर निगम में भी भाजपा को करारी हार का अंदाजा पहले ही हो गया था। चुनाव से पहले ही जीत-हार ठीकरा एक-दूसरे पर फोड़ने में जुटे थे भाजपाई दिग्गज। अब नतीजा सबके सामने है। आखिर भाजपा आलाकमान इस हार के बाद आत्ममंथन कब करेगा? जाहिर है वह दिन दूर नहीं, जब लोकसभा चुनाव में भाजपा कांगड़ा, शिमला व मंडी सीट पर भी कड़ा संघर्ष करती दिखाई देगी। आश्चर्य नहीं होगा कि कर्नाटक हाथ से निकल जाए।

यही नहीं, हमीरपुर संसदीय सीट से केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के खिलाफ अगर कांग्रेस ने किसी मजबूत उम्मीदवार को चुनावी मैदान में उतार दिया तो राहें उनके लिए भी कठिन नजर आ रही हैं। उसका सबसे बड़ा कारण मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू व डिप्टी सीएम मुकेश अग्निहोत्री का ताल्लुक हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से होना है। ये दोनों अभी से अनुराग ठाकुर के खिलाफ फील्डिंग सजाने में जुट गए हैं। इसलिए भाजपा आलाकमान के साथ-साथ राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा को लगातार मिल रही हारों पर चिंतन करने की जरूरत है।

व्यावहारिक निर्णय लेने के साथ-साथ पार्टी की अंदरूनी गुटबाजी पर लगाम लगाना उनके लिए अभी तक चुनौती साबित हुआ है। क्योंकि हिमाचल नड्डा का गृह प्रदेश है, इसलिए 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए उनकी भी साख दांव पर लगी हुई है। समय रहते यदि डैमेज कंट्रोल नहीं किया तो भाजपा के लिए परिणाम सुखद नहीं कहे जा सकते।

गौर कीजिए तो यह हिमाचल प्रदेश में भाजपा की हार की यह हैट्रिक है। नगर निगम शिमला के इन चुनाव को गंवाने के बाद अब लोकसभा सीटें बचाना भाजपा के लिए नई चुनौती होगी। फिलहाल चार में से तीन सीटों शिमला, कांगड़ा और हमीरपुर पर भाजपा काबिज है। पिछले आम चुनाव में मंडी सीट पर भी भाजपा के रामस्वरूप शर्मा सांसद निर्वाचित हुए थे। मगर उनके निधन के बाद हुए उपचुनाव में कांग्रेस की प्रतिभा सिंह निर्वाचित हुईं। प्रतिभा सिंह पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की पत्नी हैं। मंडी पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का गृह संसदीय क्षेत्र है। चार महीने पहले ही भाजपा के हाथ से प्रदेश की सत्ता कांग्रेस ने छीन ली है। विधानसभा चुनाव में शिमला नगर निगम क्षेत्र में आने वाले तीन विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस के विधायक चुने गए थे। और अब नगर निगम में कांग्रेस को दो तिहाई बहुमत। भाजपा दहाई का आंकडा भी नहीं पार कर सकी।
ऐन मौके पर सेनापतियों को बदलने का गुजरात फार्मूला, यहां मुंह के बल धड़ाम हो गया। चुनाव के बीच भाजपा प्रदेशाध्यक्ष और संगठन महामंत्री को बदलने की भाजपा की रणनीति भी काम नहीं आ पाई।

साल 1986 से शुरू हुए थे शिमला नगर निगम के चुनाव। साल 2007 तक लगातार इस पर कांग्रेस का ही कब्जा रहा। साल 2012 में माकपा ने यहां बाजी मारी। वहीं, साल 2017 में हुए पिछले चुनाव में भाजपा ने अपने ट्रिपल इंजन का सपना पूरा कर लिया। अर्थात नगर निगम की सत्ता पर पहली बार कब्जा कर लिया। 1985 के बाद ऐसा पहली बार हुआ है, जब किसी पार्टी को शिमला नगर निगम में इतनी सीटें मिली हैं। जाहिर है कांग्रेस ने इतिहास रच आगाज कर दिया है।

हिमाचल में भाजपा की एक के बाद एक करारी हार के निहितार्थ भी बुरे सपने सरीखे हैं। अगर अपने गृहराज्य कर्नाटक में मल्लिकार्जुन खड़गे की प्रतिष्ठा दाव पर है तो जाहिर है भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा पर भी उंगलियां उठेंगी ही। ऐसे में 2024 में भाजपा के लिए संकट गहरा गया है। अब भाजपा के सामने न केवल मंडी लोकसभा सीट को अपने पाले करने की चुनौती है, बल्कि लोकसभा की अन्य तीन सीटों शिमला, कांगड़ा और हमीरपुरपर में वर्चस्व कायम रखना होगा। 2014 के बाद पहली बार एंटी इन्कंबेसी कमोबेश पूरे देश में फिलहाल भाजपा के लिए सरदर्द बना हुआ है।

ऊपर से राजधानी के जंतर मंतर पर अंतर्राष्ट्रीय मेडल विजेता पहलवानों की फरियाद को अनसुनी करना उसे भारी पड़ सकता है। लाख कोशिश के बावजूद पीड़ित पहलवानों के प्रति हमदर्दी देश के कोने कोने में है। कारण, एफआईआर तक सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अगर दर्ज होता है, तो जाहिर है दाल में कुछ काला है। आधी रात गए आंदोलनकारी पहलवानों संग दिल्ली पुलिस की बदसलूकी ने जख्म पर और नमक छिड़क दिया है। बृजभूषण शरण सिंह के प्रभाव वाले पांच छह लोकसभा सीटों के चक्कर में भाजपा का बहुत कुछ दाव पर है। न्याय होने से ज्यादा जरूरी है, न्याय होते दिखना।

मगर कार्रवाई नहीं करना सीधे सत्तारुढ़ पार्टी को कटघरे में खड़ा कर देता है। अंडानी की कंपनी में 20,000 करोड़ का निवेश किसका है? जैसे सवालों के चक्रव्यूह में बुरी तरह फंसी भाजपा के सामने अब यह सवाल भी मुंह बाए खड़ा है कि देश की गौरव पहलवान बेटियों की फरियाद क्यों नहीं सुनी जा रही? दोनों ही मामलों में भाजपा की छीछालेदर हो रही है। अब तक कहा जाता था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर कोई आरोप नहीं चिपकता। मगर कर्नाटक के 40% कमीशन सरकार की गूंज पूरा देश सुन रहा है।

हर दाग अच्छे नहीं होते चौकीदार जी। तथाकथित मुफ्तखोर वोटर सीलबंद लिफाफे पर फैसला नहीं सुनाते। कहीं जनता की सुप्रीम अदालत 2024 में रगड़ रगड़ कर धोने पर आमादा न हो जाए।

लेखक : विजय शंकर पांडेय, वरिष्ठ पत्रकार

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