नंदीग्राम सीट के संग्राम से लद जाएंगे ‘दीदी’ के दिन

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पश्चिम बंगाल चुनाव में नंदीग्राम सीट का परिणाम राज्य का राजनीतिक भविष्य तय करेगा. यहां मुकाबला टीएमसी छोड़ कर बीजेपी में शामिल हुए शुभेंदु अधिकारी और ममता बनर्जी के बीच है.

पुरानी कहावत है कि राजनीति में न तो दोस्ती स्थायी होती है और न ही दुश्मनी. शुभेंदु ने इस कहावत को चरितार्थ कर दिया है. कभी टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी के सबसे क़रीबी रहे शुभेंदु के अब उनके सबसे कट्टर विरोधी बनने तक का 360 डिग्री का सफ़र, राजनीति में कोई हैरत की बात नहीं है. फिलहाल पूर्व मेदिनीपुर ज़िले की नंदीग्राम सीट पर वे ममता के प्रतिद्वंद्वी हैं.

नंदीग्राम सीट क्यों बनी हाई प्रोफाइल?

तेज़ी से बदलते घटनाक्रम में बीते दिसंबर में बीजेपी में शामिल होने और अब उसके बाद मौजूदा विधानसभा चुनावों में अपने गढ़ नंदीग्राम में मुख्यमंत्री और टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी को चुनौती देने वाले शुभेंदु का नाम अब देश ही नहीं बल्कि विदेशों तक फैल चुका है. पश्चिम बंगाल की राजनीति में शुभेंदु के उदय की कहानी और मौजूदा चुनाव में उनकी अहमियत को समझने के लिए लगभग 15 साल पीछे लौटना होगा. शुभेंदु ने साल 2006 के विधानसभा में पहली बार कांथी दक्षिण सीट से तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीता था. 2009 में उन्होंने तमलुक सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. 2014 के चुनावों में भी उन्होंने अपनी सीट पर कब्ज़ा बनाए रखा. उसके बाद 2016 के विधानसभा चुनावों में उन्होंने नंदीग्राम सीट से चुनाव जीता और ममता मंत्रिमंडल में परिवहन मंत्री बनाए गए. धीरे-धीरे उनको सरकार में नंबर दो माना जाने लगा था.

नंदीग्राम सीट बनी प्रतिष्ठा का प्रश्न

पूर्व मेदिनीपुर ज़िले के कोलाघाट में रूपनारायण नदी के पार का इलाका शुभेंदु अधिकारी की ताकत दिखाता है. पूरा इलाका शुभेंदु के पोस्टरों से पटा नज़र आता है. गली के नुक्कड़ों, चौराहों और चाय की दुकानों पर इस परिवार का ज़िक्र सुनने को मिल सकता है. बीते दो दशकों में इस परिवार ने इलाक़े में ऐसी राजनीतिक पकड़ बनाई है जिसकी राज्य में दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती. शुभेंदु के पिता और अधिकारी परिवार के मुखिया शिशिर अधिकारी साल 1982 में कांथी दक्षिण विधानसभा सीट से कांग्रेस विधायक बने थे. वो बाद में तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए थे.

फिलहाल वे तीसरी बार टीएमसी के टिकट पर कांथी लोकसभा सीट से सांसद है. वो पहले तीन बार विधानसभा चुनाव भी जीत चुके हैं. मनमोहन सिंह की सरकार में शिशिर मंत्री भी रहे हैं. तृणमूल कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने में जिस नंदीग्राम आंदोलन में अहम भूमिका निभाई थी उसके मुख्य वास्तुकार शुभेंदु ही थे. साल 2007 में कांथी दक्षिण सीट से विधायक होने के नाते तत्कालीन वाममोर्चा सरकार के ख़िलाफ़ भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमिटी के बैनर तले स्थानीय लोगों को एकजुट करने में उनकी भूमिका सबसे अहम रही थी. जंगलमहल के नाम से कुख्यात रहे पश्चिम मेदिनीपुर, पुरुलिया और बांकुड़ा ज़िलों में तृणमूल कांग्रेस का मज़बूत आधार बनाने में भी शुभेंदु का ही हाथ था.

नंबर दो की लड़ाई…

टीएमसी में नंबर दो रहते मुकुल राय ने पूर्व और पश्चिम मेदिनीपुर ज़िले में पार्टी संगठन में अपने समर्थकों को शामिल कर शुभेंदु के पर कतरने का प्रयास किया था. लेकिन 2017 में मुकुल के बीजेपी में शामिल होने के बाद पार्टी में नंबर दो नेता के तौर पर उभरे अभिषेक बनर्जी से शुभेंदु का अहम और उनकी महात्वाकांक्षाएँ टकराने लगीं. दरअसल, पार्टी के इस मुकाम तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाने वाले शुभेंदु चाहते थे कि उनको टीएमसी में ममता बनर्जी के बाद नंबर दो नेता माना जाए. लेकिन बीते लोकसभा चुनावों के बाद अभिषेक बनर्जी जब प्रशांत किशोर की सहायता से पार्टी को चलाने लगे तो शुभेंदु को महसूस होने लगा कि अब इसमें रहकर उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पूरी नहीं होंगी. शुभेंदु ने मंत्रिमंडल और पार्टी से इस्तीफ़ा देने के चार महीने पहले से ही ख़ुद को पार्टी से अलग-थलग कर लिया था. अब वो नंदीग्राम सीट से दीदी को हराने का दम भर रहे हैं.

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