नेपाल अगर दूर गया तो भारत को कितना नुकसान होगा ?

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कहते हैं की अगर आप मजबूत होना चाहते हैं तो पड़ोसी से बनाकर रखने चाहिए. लेकिन भारत इन दिनों अपने पड़ोसियों के साथ तल्ख रिश्तों की वजह से परेशान है. पाकिस्तान, चीन तो थे ही अब नेपाल में भी भारत विरोधी भावना तेजी से फैल रही है.

भारत और नेपाल के बीच रिश्ते हमेशा से शानदार रहे हैं. लेकिन पिछले कुछ सालों से नेपाल में लोगों के बीच एक बात पहुंचाने की कोशिश की गई है कि भारत विस्तारवादी शक्ति है और वह नेपाल को अपने अधीन लेना चाहता है. लेकिन अगर भारत और नेपाल के रिश्तों के इतिहास पर गौर करें. तो ये काफी समृद्ध है.

7 गोरखा रेजिमेंट के 40 बटालियन में क़रीब 32 हज़ार गोरखा हैं. 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भी गोरखाओं का योगदान महत्वपूर्ण रहा.

आजादी से पहले भी बेहतर थे भारत-नेपाल के रिश्ते

भारतीय सेना में गोरखाओं की एंट्री 1816 में एंग्लो-नेपाली वॉर के बाद हुई सुगौली संधि से जुड़ी है. तब भारत अंग्रेज़ों का ग़ुलाम था और गोरखाओं ने ब्रिटिश हुक़ूमत को कड़ी चुनौती दी थी. नेपाली गोरखा ब्रिटिश इंडिया से ही भारतीय सेना में हैं. गोरखाओं ने गोरखा-सिख, एंग्लो-सिख और अफ़ग़ान युद्ध में अहम भूमिका निभाई थी. जब भारत आज़ाद हुआ, तो नेपाल, भारत और ब्रिटेन के त्रिपक्षीय क़रार में छह गोरखा रेजिमेंट्स भारतीय सेना के हवाले किए गए. सातवाँ रेजिमेंट आज़ादी के बाद शामिल हुआ. लेकिन हाल के सालों में भारत और नेपाल के बीच दूरी बढ़ी है. जानकार इस दूरी के लिए कम्युनिस्ट विचारधारा को दोषी ठहराते हैं.

नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी का जो प्रचंड गुट है वो मानता है कि भारत को यह स्वीकार करना होगा कि नेपाल एक संप्रभु देश है. 26 मई 2006 को बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा था, ”नेपाल की मौलिक पहचान एक हिंदू राष्ट्र की है और इस पहचान को मिटने नहीं देना चाहिए. बीजेपी इस बात से ख़ुश नहीं होगी कि नेपाल अपनी मौलिक पहचान माओवादियों के दबाव में खो दे.” अब नेपाल के लोग कहते हैं कि नेपाल को हिंदू राष्ट्र है ना है या सेक्यूलर स्टेट बनना है यह बात नेपाली ही तय करेंगे ना कि भारत. हालांकि भारत नेपाल के साथ रिश्तो को मजबूत करने के लिए लगातार प्रयास कर रहा है.

क्या भारत दे रहा है नेपाल के अंदरूनी मामलों में दखल?

पिछले साल अक्तूबर महीने में भारत की ख़ुफ़िया एजेंसी रॉ (रिसर्च एनलिसिस विंग) के प्रमुख सामंत कुमार गोयल पीएम ओली से मिले. फिर भारत के सेना प्रमुख जनरल नरवणे मिले. इसके बाद विदेश सचिव आए. इसके बाद बीजेपी के विदेशी मामलों के प्रभारी विजय चौथाईवाले ने ओली से मुलाक़ात की. ये सारी मुलाक़ातें गोपनीय हुईं. नेपाल के लोग यह मानते हैं की इन सभी भारतीय अधिकारियों के दौरों का औली के संसद भंग करने से कुछ कनेक्शन है. 20 दिसबंर को पीएम ओली ने संसद को भंग कर दिया. अभी उनके पास बहुमत नहीं है, लेकिन संविधान का उल्लंघन करते हुए प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे हुए हैं.

तमाम घटनाक्रम के बीच नेपाल में पनप रही भारत विरोधी भावना के पीछे मोदी सरकार का रवैया भी एक कारण है. 2015 में भारत के विदेश सचिव एस जयशंकर नेपाली नेतृत्व के सामने जिस तरह से संविधान को रोके जाने की बात की उसने आग में घी डालने का काम किया. एस जयशंकर के रुख़ के कारण ही नेपाल की सारी राजनीतिक पार्टियाँ एकजुट हो गई थीं और संविधान को लेकर आम सहमति बन गई. इसकी प्रतिक्रिया में भारत ने नाकेबंदी लगा दी. भारत को पता था कि नाकेबंदी के कारण नेपाल में ज़रूरी सामानों की किल्लत हो जाती है और मानवीय संकट खड़ा हो जाता है. इसके बावजूद भारत ने ऐसा किया. ऐसे में नेपाल में अगर भारत विरोधी भावना मज़बूत होती है, तो भारत की सरकार को सोचना चाहिए कि ग़लती किसकी है.

चीन के करीब क्यों जा रहा है नेपाल?

नेहरू से लेकर अब तक नेपाल में चीन को लेकर भारत की आशंका बनी रही है. लेकिन नेपाल को लगता है कि भारत उसकी निर्भरता का फ़ायदा उठाता है, इसलिए चीन के साथ ट्रांजिट रूट को और मज़बूत करने की ज़रूरत है. नेपाल और चीन के बीच एक अगस्त 1955 को राजनयिक रिश्ते की बुनियाद रखी गई. दोनों देशों के बीच 1,414 किलोमीटर लंबी सीमा है. नेपाल और चीन के बीच की यह सीमा ऊँचे और बर्फ़ीले पहाड़ों से घिरी हुई है. हिमालय की इस लाइन में नेपाल के 16.39 फ़ीसदी इलाक़े आते हैं.

यह सीमा नेपाल के उत्तरी हिस्से के हिमालयन रेंज में है. हालाँकि यह सीमा नेपाल और तिब्बत के बीच थी, लेकिन चीन ने तिब्बत को भी अपना हिस्सा बना लिया था. नेपाल हमेशा से चीन को लेकर संवेदनशील रहा. वन चाइना पॉलिसी का नेपाल ने हर हाल में पालन किया है और चीन के हिसाब से क़दम भी उठाया है. 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय नेपाल ने ख़ुद को तटस्थ रखा. नेपाल ने किसी का पक्ष लेने से इनकार कर दिया. नेपाली डिप्लोमैट हिरण्य लाल श्रेष्ठ कहते हैं कि भारत का पूरा दबाव था कि इस जंग में भारत के साथ नेपाल खुलकर आए.

चीन नेपाल का दूसरा सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है. हालाँकि इसके बावजूद कारोबार का आकार बहुत छोटा है. नेपाल के विदेश मंत्रालय के अनुसार 2017-18 में नेपाल ने चीन से कुल 2.3 करोड़ डॉलर का निर्यात किया. इसी अवधि में नेपाल ने चीन से डेढ़ अरब डॉलर का आयात किया. नेपाल का चीन से कारोबार घाटा लगातार बढ़ रहा है.

मार्च 2017 में काठमांडू में आयोजित नेपाल इन्वेस्टमेंट समिट में चीनी निवेशकों ने 8.3 अरब डॉलर के निवेश का वादा किया था. नेपाल में विदेशी पयर्टकों का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत चीन है. 2018 में 164,694 चीनी पर्यटक नेपाल आए. एक जनवरी, 2016 से नेपाल की सरकार ने चीनी पर्यटकों के लिए वीज़ा शुल्क ख़त्म कर दिया था. लेकिन वहीं अगर भारत की बात करें तो नेपाल के साथ भारत के पाँच राज्यों- सिक्किम, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की 1850 किलोमीटर लंबी सीमा लगती है. दोनों देशों के बीत बिना वीज़ा के आवाजाही है. तराई के इलाक़े के लोगों का रोज़ी-रोटी का संबंध काठमांडू की तुलना में भारत से कहीं ज़्यादा है.

1950 में भारत और नेपाल के बीच हुई शांति और मैत्री संधि को भी दोनों देशों के रिश्तों में अहम माना जाता है. हालाँकि नेपाल दशकों से इस संधि की समीक्षा चाहता है लेकिन भारत तैयार नहीं है. नेपाल का कहना है कि भारत ने ये संधि तब की थी, जब नेपाल में राणाशाही थी. नेपाल का तर्क है कि अब नेपाल एक लोकतांत्रिक गणतंत्र है और सारी संधियाँ गणतंत्र के हिसाब से ही होंगी.

भारत और नेपाल का कारोबारी रिश्ता

नेपाल का भारत सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार है. भारत के विदेश मंत्रालय के अनुसार 2018-19 में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 8.27 अरब डॉलर का रहा. हालाँकि भारत के साथ भी नेपाल का द्विपक्षीय कारोबार घाटे का है. इस अवधि में नेपाल ने भारत में महज़ 50.9 लाख डॉलर का निर्यात किया, जबकि भारत से उसका आयात 7.76 अरब डॉलर का रहा. भारत से नेपाल पेट्रोलियम उत्पाद, मोटर-गाड़ी, स्पेयर पार्ट्स, चावल, दवा, मशीनरी, बिजली उपकरण, सीमेंट, कृषि उपकरण, कोयला और कई तरह के उत्पादों का आयात करता है. नेपाल के साथ चीन की तुलना में भारत का कारोबार आठ गुना ज़्यादा है. फिर भी भारत से चीन नेपाल के ज्यादा पास क्यों आ गया है ये भारत को सोचना होगा.

https://youtu.be/yfyf8AMwKKs

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