क्या अभिजीत बनर्जी की आलोचना मौजूदा सत्ता की बेबसी दिखाती है ?
नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी को लेकर नरेंद्र मोदी सरकार सहज क्यों नहीं है? जिस अर्थशास्त्री की मदद खुद पीएम मोदी मोदी ने उस वक्त ली जब वो गुजरात के सीएम थे उसको अब उन्हीं के मंत्री वामपंथी क्यों कह रहे हैं? क्या ये मौजूदा सत्ता की बेचैनी है जो डूबती अर्थव्यवस्था से पैदा हुई है?
बीजेपी और नरेंद्र मोदी सरकार के मंत्री नोबेल जीतने वाले अर्थशास्त्री को कोस रहे हैं. केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने तो यहां तक कह दिया उनके काम ‘जनता से खारिज’ किए हुए हैं. दुनिया के किसी देश में शायद ही ऐसा देखने को मिले कि उस देश से जुड़े किसी शख्स को नोबेल मिले और उस देश की सत्ता सिर्फ औपचारिक बधाई भर दे. लेकिन यहां दिलचस्प ये है कि जिन अभिजीत बनर्जी को लेकर मोदी सरकार के मंत्री ये सब कह रहे हैं वो गुजरात में उस वक्त भी काम कर चुके हैं जब नरेंद्र मोदी वहां पर मुख्यमंत्री थे और वो हरियाणा में बीजेपी सरकार के लिए भी काम कर चुके हैं. लेकिन अब ऐसा क्या हो गया है कि बीजेपी सरकार अभिजीत बनर्जी को मिले नोबेल को हजम नहीं कर पा रही है?
नोबेल जीतने के बाद अभिजीत बनर्जी भारत आए तो उन्होंने पीयूष गोयल को जवाब भी दिया और ये भी बताया कि वो किसी पार्टी के लिए काम नहीं करते. कई टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में उन्होंने इस बात का जिक्र किया कि वो प्योर प्रोफेशनल है. अभिजीत बनर्जी ने कहा :
मैं अपनी आर्थिक सोच में किसी एक विचारधारा या पार्टी का नहीं हूँ। हमने कई सरकारों के साथ काम किया है, जिनमें कई तो बीजेपी की सरकारें रही हैं। हमने गुजरात प्रदूषण (नियंत्रण) बोर्ड के साथ काम तब किया था, जब वह नरेंद्र मोदी के अधीन था और हमारा अनुभव मोटे तौर पर बहुत ही अच्छा रहा। मैं तो यह कहूँगा कि उन्होंने हमारे साक्ष्यों पर काम किया और उन नीतियों को लागू किया।
अभिजीत बनर्जी, नोबेल पुरस्कार विजेता
दरअसल अभिजीत बनर्जी ने मोदी सरकार के आर्थिक फैसलों की तीखी आलोचना की है. वो नोटबंदी और जीएसटी को लेकर भी अपनी राय सार्वजनिक तौर पर दे चुके हैं. लेकिन जेएनयू से एमए करने वाले बनर्जी नोबेल पुरस्कारों की घोषणा होने के बाद यकायक सुर्खियों में आए और उनसे सबसे ज्यादा सवाल भारत की अर्थव्यवस्था को लेकर किए गए. बनर्जी ने जब इन सवालों के जवाब दिए तो बीजेपी के लोगों ने उन पर ज़बरदस्त हमला बोल दिया. उनकी नीतियों की तीखी आलोचना की गई और उनकी निजी जिंदगी पर भी हमला किया गया. कई बार अशालीन भाषा का भी प्रयोग किया गया. ये इसलिए भी है क्योंकि राहुल गाँधी ने लोकसभा चुनाव के दौरान ‘न्याय’ स्कीम का एलान किया था, जिसके तहत ग़रीबी रेखा से नीचे रहने वाले हर परिवार को महीने में 6 हज़ार यानी सालाना 72 हज़ार रुपये देने की बात कही गई थी. वो अभिजीत बनर्जी का ही आइडिया था. अभिजीत के इस आइडिया को रेल मंत्री पीयूष गोयल ने ये कहते हुए खारिज कर दिया कि जनता ने बनर्जी की नीतियों को नकार दिया है. उन्होंने इसके बाद यह भी जोड़ा था कि ‘ऐसे में हम बनर्जी की नीतियों को क्यों मानें?’
क्या बनर्जी पर टिप्पणी बीजेपी सरकार की बेचैनी है?
अर्थशास्त्र क क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार देने का एलान नोबेल कमिटी ने 1969 में किया था. उस पहला नोबेल पुरस्कार एक अमेरिकम को दिया गया था. 1969 से लेकर 2019 तक करीब 87 लोगों को अर्थशास्त्र में नोबेल दिया गया है जिसमें 55 अमेरिकी नागरिक हैं. इनमें 10 नोबेलिस्ट ऐसे भी हैं जो पैदा किसी और देश में हुए और बाद में अमेरिका की नागरिकता ले ली. इनमें से दो भारतीय हैं जिसमें अमर्त्य सेन और अभिजीत बनर्जी शामिल हैं. भारत की बात करें तो अभी तक 6 भारतीयों को नोबेल मिल चुका है. लेकिन इस बार अभिजीत को लेकर सत्ता की ओर से जो प्रतिक्रिया आई है वो बहूत रूखी है.
बीजेपी सत्ता अभिजीत बनर्जी को लेकर इसलिए भी बेचैन है क्योंकि उन्होंने वो सवाल खड़ा किया जो अर्थव्यवस्था को डुबोने का सबसे बड़ा कारक है. भारत के भीतर सबसे बड़ा संकत ये है कि यहां डिमांड नहीं है. खासकर ग्रामीण इलाकों में डिमांड तेजी से गिर रही है. 2018 में 20 फीसदी डिमांड थी जो 2019 में 5 फीसदी रह गई है. अभिजीत बनर्जी ने यही बताया था कि डिमांड कैसे बढ़े और गरीबी कैसे घटे? और यही बात बीजेपी को नागवार गुजर रही है. क्योंकि अभिजीत ने ही कांग्रेस को ‘न्याय’ का आइडिया दिया था जिसके लिए पैसा पंप करके डिमांड को बढ़ाया जाना था.
इस वक्त कैपिटिलिस्ट कंज्यूमर चाहता है और भारत में इस वक्त सबसे ज्यादा दिक्कत इसी की है. अभिजीत बनर्जी लगातार यही कहते आए हैं कि वो अमीर गरीब के बीच की खाई पाटने की बात नहीं कर रहे बल्कि गरीब खत्म करके लोगों को कंज्यूमर बनाने की बात कर रहे हैं. अभिजीत की ये बात मोदी सरकार भी समझ रही है और इसलिए ‘किसान सम्मान निधि’ के जरिए किसानों को सालाना 6 हजार देने का एलान किया गया था. लेकिन जब जब जमीन पूरी तरह से सूखी हो तो बूंदों से काम नहीं चलता.
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अभिजीत बनर्जी सिर्फ ये कह रहे हैं कि अगर आपको गरीबी के खिलाफ लड़ना है तो आपको डेटा कलेक्शन कर होगा. जमीन पर लोगों की परिस्थितियों को समझना होगा. ये समझना होगा कि लोग इस स्थिति में जी रहे हैं. उन आंकड़ों के आधार पर ही आप वेलफेयर स्कीम को सही दिशा में संचालित कर पाएंगे. लेकिन मोदी सरकार को डेटा से शायद दिक्कत है. क्योंकि मोदी कार्यकाल में किसी भी योजना का विश्वसनीय डेटा मुहैया नहीं हो पाया है. अभिजीत बनर्जी का कहना है कि गरीबी खत्म करने के लिए लैब टेस्ट की जरूरत है लेकिन बीजेपी सरकार इससे इत्तेफाक नहीं रखती. यहां होता ये है कि कोई आइडिया पीएम के पास आता है उन्हें अच्छा लगता है तो वो उसको अमल में लाते हैं और उसका हश्र वही होता है जो नोटबंदी और जीएसटी का हुआ. इसलिए अभिजीत बनर्जी मोदी सरकार की दुखती रग पर चोट कर रहे हैं और यही बात बीजेपी और मोदी सरकार को शायद बेचैन कर रही है?