जम्मू कश्मीर को लेकर हमेशा विवाद क्यों रहा ?

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने एक एतिहासिक फैसला करते हुए जम्मू कश्मीर को स्वायत्ता देने वाली धारा 370 हटा दी है. संघ लंबे वक्त से धारा 370 हटाने की मांग कर रहा था. बीजेपी ने भी इसको हटाने का वाला अपने संकल्प पत्र में किया था. सरकार के इस कदम के बाद जम्मू कश्मीर का भविष्य क्या होगा ? क्या जन्नत आतंकवाद से मुक्त हो पाएगी ? क्या कश्मीरियों के दिलों में भारत के लिए प्यार पैदा करने की कोशिशें कामयाब होंगी ? इस तरह के कई सवाल खड़े हो गए हैं.

धारा 370 जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देती थी लेकिन अब केंद्र सरकार ने राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने का निर्णय किया है. हालांकि इस कदम का विपक्ष ने व्यापक विरोध किया लेकिन इसके पक्ष में ज्यादा लोग खड़े दिखाई दिए. इस वक्त जम्मू कश्मीर एक ऐसे मोड़ पर है जहां क्या होगा ये कहना मुश्किल है. जम्मू कश्मीर का भविष्य क्या होगा इसके लिए थोड़ा इसके इतिहास में भी जाने की जरूरत है.

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इतिहास

दरअसल जब देश आजाद हुआ था उस वक्त भारत ने कश्मीर के साथ जिस ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ पर दस्तखत किए थे वह अक्षरश: वैसा ही था जैसा मैसूर, टिहरी गढ़वाल या दूसरी रियासतों के लिए बनाया गया था. 26 अक्टूबर 1947 को जम्मू कश्मीर के महाराज हरि सिंह ने ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन’ पर दस्तखत किए थे. इसके बाद कश्मीर भारत का हिस्सा बन गया. ‘इंस्टूमेंट ऑफ एक्सेशन’ पर दस्तखत करने के बाद भी महाराज हरि सिंह बहुत परेशान थे. क्या बात थी जो उन्हें परेशान कर रही थी और क्यों उन्होंन जब ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन’ को स्वीकार कर लिया था और कश्मीर आज भी एक विवाद बना हुआ है?

अगर आप जम्मू कश्मीर की भौगोलिक स्थिति देंखे तो ये पांच हिस्सों में बंटा हुआ है. पहला जम्मू, दूसरा कश्मीर, तीसरा लद्दाख, चौथा गिलगिट और पांचवा बाल्टिस्तान. लेकिन इन पांचों हिस्सों को एक साथ रखा डोगरा राजपूतों ने, जम्मू के डोगरा राजपूतों ने 1830 के दशक में लद्दाख पर फतह हासिल की, 40 के दशक में उन्होंने अंग्रेजों से कश्मीर घाटी हासिल कर ली और सदी के अंत तक वे गिलगिट तक कब्ज़ा कर चुके थे. इस तरह कश्मीर एक ऐसा विशाल राज्य बन गया था जिसकी सीमाएं अफगानिस्तान, चीन और तिब्बत को छूती थीं.

हरी सिंह और शेख अब्दुल्ला की दुश्मनी

अब आते हैं 1947 में, जब भारत आजाद हुआ उस वक्त हरी सिंह कश्मीर के राजा थे. महाराज हरि सिंह ने 1925 में राजगद्दी संभाली थी. 1925 में राजतंत्र के खिलाफ लोगों की आवाजें बुलंद हो रही थीं. और इन आवाजों का नेतृत्व कर रहे थे शेख अब्दुल्ला. शेख अब्दुल्ला 1905 में पैदा हुए और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई की. लेकिन उन्हें कश्मीर में नौकरी नहीं मिली इसके बाद उन्होंने मुस्लिमों के साथ हो रहे इस भेदभाव के खिलाफ आवाज़ उठानी शुरु कर दी. इसके बाद हुआ ये कि शेख अब्दुल्ला और महाराजा हरी सिंह के बीच दुश्मनी चरम पर पहुंच गई.

इस दुश्मनी का नतीजा ये हुआ कि शेख अब्दुल्ला ने 1932 में उन्होंने ‘ऑल जम्मू-कश्मीर मुस्लिम कॉफ्रेंस’ जो बाद में नेशनल कॉन्फैंस हो गया. और इस बैनर के जरिए उन्होंने मांग की कि राज्य में जनता के प्रतिनिधित्व वाली सरकार का गठन हो जिसका चुनाव मताधिकार के जरिये किया जाए. 1940 आते-आते शेख घाटी के सबसे लोकप्रिय नेता बन चुके थे. वे जवाहरलाल नेहरु के भी काफी करीब आ गये थे. अब यहां समझने वाली बात ये है कि शेख अब्दुल्ला कांग्रेस के करीब आ रहे थे और हरी सिंह चुंकि कांग्रेस से नफरत करते थे तो वो भारत के साथ जाने के लिए कतई तैयार नहीं थे. 1940 में जब अंग्रेज हिन्दुस्तान से अपना बोरिया बिस्तर समेट रहे थे तब महाराजा हरी सिंह के प्रधानमंत्री रामचंद्र काक ने उन्हें कश्मीर की आज़ादी के बारे में विचार करने को कहा था.

महाराजा हरि सिंह नहीं चाहते थे कि कश्मीर का भारत में विलय हो क्योंकि वो कांग्रेस से खुश नहीं थे. इसके उनकी कोशिश थी कि कश्मीर आजाद मुल्क बना रहे. आजादी वाले दिन यानी 15 अगस्त से पहले लार्ड माउंटबेटन और महात्मा गांधी खुश कश्मीर गए थे इन दोनों ने महाराजा हरी सिंह को भारत में विलय करने के लिए मनाया लेकिन हरी सिंह राजी नहीं हुए. 15 अगस्त को देश आजाद हो गया और आजादी तक कश्मीर न तो भारत के साथ था और न ही पाकिस्तान के साथ. कश्मीर ने दोनों देशों से एक ‘स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट’ करने की पेशकश की थी. उस वक्त पाकिस्तान ने ये समझौता कर लिया था लेकिन भारत ने नहीं किया.

…जब तय हुआ कश्मीर भारत में मिले

बात तब बदली जब 13 सितंबर को पाकिस्तान ने जूनागढ़ के खुद में विलय को स्वीकार कर लिया. जूनागढ़ का जिक्र इसलिए क्योंकि जूनागढ़ हिन्दू बाहुल्य रियासत थी और अगर पाकिस्तान जूनागढ़ का विलय कर सकता है तो भारत मुस्लिम बाहुल्य कश्मीर का क्यों नहीं कर सकता. इसी सोच के साथ 27 सितंबर को नेहरु ने सरदार पटेल को एक चिट्ठी लिखी जिसमें ये चिंता जाहिर की गई थी कि पकिस्तान कश्मीर में घुसपैठियों को भेजकर हमला करवा सकता है और महाराजा का प्रशासन इस हमले को झेल पाने में सक्षम नहीं था.

पंडित नेहरू ने कहा कि महाराजा को तुरंत ही शेख अब्दुल्ला को जेल से रिहा कर देना चाहिए और नेशनल कॉफ्रेंस से दोस्ती कर लेनी चाहिए ताकि पाकिस्तान के खिलाफ जनसमर्थन बनाया जा सके और कश्मीर के भारत में विलय का रास्ता साफ हो सके. इसके बाद 29 सिंतबर को शेख अब्दुल्ला को जेल से रिहा हुए. इसके कुछ रोज बाद यानी 12 अक्टूबर को हरि सिंह के उप-प्रधानमंत्री ने दिल्ली में साफ कर दिया कि महाराजा हरि सिंह कश्मीर को पूर्व का स्विट्ज़रलैंड बनाने की चाह रखते हैं और वो चाहते हैं कि ये मुल्क बिलकुल निरपेक्ष हो.

हरी सिंह ने क्यों किया भारत में विलय का फैसला?

इसके बाद 22 अक्टूबर को हजारों हथियारबंद लोगों ने कश्मीर में दाखिल होकर श्रीनगर को कब्जाने की कोशिशें शुरु कर दीं. इन लोगों को पाकिस्तान का समर्थन हासिल था. कश्मीर के पुंछ इलाके में राजा के शासन के प्रति पहले से ही काफी असंतोष था. लिहाजा इस इलाके के कई लोग भी इस हथियार बंद लोगों के साथ मिल गए. जब हालात ज्यादा बेकाबू हो गए तो 24 अक्टूबर को महाराजा हरी सिंह ने भारत सरकार से सैन्य मदद मांगी. अगली ही सुबह वीपी मेनन को हालात का जायजा लेने दिल्ली से कश्मीर रवाना किया गया.

उस वक्त मेनन सरदार पटेल के नेतृत्व वाले राज्यों के मंत्रालय के सचिव थे. वे जब महाराजा से श्रीनगर में मिले तब तक हमलावर बारामूला पहुंच चुके थे. ऐसे में उन्होंने महाराजा को तुरंत जम्मू रवाना हो जाने को कहा और वे खुद कश्मीर के प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन को साथ लेकर दिल्ली लौट आए. ये वो वक्त था जब हमलावर कभी भी कश्मीर की राजधानी कब्जा सकते थे. विषम हालातों में महाराजा को भारत का सहारा था और ऐसे में लार्ड माउंटबेटन ने सलाह दी कि कश्मीर में भारतीय फौज को भेजने से पहले हरी सिंह से ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन’ पर हस्ताक्षर करवाना बेहतर है.

इसके बाद 26 अक्टूबर को महाराजा हरी सिंह से ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन’ पर हस्ताक्षर करवाए और उसे लेकर वे तुरंत ही दिल्ली वापस लौट आए. अगली सुबह सूरज की पहली किरण के साथ ही भारतीय फ़ौज कश्मीर के लिए रवाना हो गई. इसी दिन 28 विमान भी कश्मीर के लिए रवाना हुए. अगले कुछ दिनों में सैकड़ों बार विमानों को दिल्ली से कश्मीर भेजा गया और कुछ ही दिनों में पाकिस्तान समर्थित कबायली हमलावरों और विद्रोहियों को खदेड़ दिया गया. और इसके साथ ही कश्मीर पर भारत को आधिकारिक कब्जा हो गया था.

आजतक क्यों नहीं सुलझा कश्मीर का मसला?

यहां समझने वाली बात ये है कि महाराजा हरि सिंह ने भले ही ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन’ पर दस्तखत कर दिए थे लेकिन कुछ चीजें उलझी हुई थीं. दरअसल भारत ने कश्मीर के राजा हरी सिंह के साथ जो ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन’ साइन किया था, वह अक्षरशः वैसा ही था जैसा मैसूर, टिहरी गढ़वाल या किसी भी अन्य रियासत के साथ साइन किया गया था. लेकिन जहां बाकी रियासतों के साथ बाद में ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ मर्जर’ साइन किये गए, वहीँ कश्मीर के साथ भारत के संबंध उलझते चले गए. इन संबंधों के उलझने की एक बड़ी वजह थी कश्मीर में जनमत संग्रह का वह वादा जिसकी पेशकश लार्ड माउंटबेटन ने की थी और जिसे देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने बाकायदा आल इंडिया रेडियो से घोषित किया था.

उस वक्त नेहरू ये चाहते थे कि कश्मीर मुद्दे को जल्ल ही सुलझाया जाए और इसके लिए उन्होंने कुछ विल्कप सुझाए थे. उन्होंने कहा कि पूरे राज्य में जनमत संग्रह किया जाए, या कश्मीर एक आजाद राज्य के रूप में काम करे जिसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भारत और पाकिस्तान मिलकर लें. या राज्य का विभाजन इस तरह से कर दिया जाए कि जम्मू भारत को मिले और बाकी राज्य पाकिस्तान को. या राज्य का विभाजन इस तरह से हो कि जम्मू के साथ कश्मीर घाटी भी भारत में रहे जबकि पुंछ और उसके बाद का इलाका पाकिस्तान को दे दिया जाए. लेकिन चौथे विकल्प के साथ थे. चुंकि उस दौरान पुंछ की ज्यादातर आबादी भारतीय संघ के खिलाफ थी जबकि बाकी की घाटी नेशनल कॉफ्रेंस का गढ़ थी जहां लोग भारत के पक्ष में झुकाव रखते थे.

उस वक्त पंडित जवाहलाल नेहरू ने महाराजा हरी सिंह को एक चिट्ठी लिखी थी जिसमें लिखा था कि

भारत के दृष्टिकोण से यह सबसे महत्वपूर्ण है कि कश्मीर भारत में ही रहे. लेकिन हम अपनी तरफ से कितना भी ऐसा क्यों न चाहें, ऐसा तब तक नहीं हो सकता जब तक कि कश्मीर के आम लोग यह नहीं चाहते. अगर यह मान भी लिया जाए कि कश्मीर को सैन्यबल के सहारे कुछ समय तक अधिकार में रख भी लिया जाए, लेकिन बाद में इसका नतीजा यह होगा कि इसके खिलाफ मजबूत प्रतिरोध जन्म लेगा. इसलिए, जरूरी रूप से यह कश्मीर के आम लोगों तक पहुंचने और उन्हें यह एहसास दिलाने की एक मनोवैज्ञानिक समस्या है कि भारत में रहकर वे फायदे में रहेंगे. अगर एक औसत मुसलमान सोचता है कि वह भारतीय संघ में सुरक्षित नहीं रहेगा, तो स्वाभाविक तौर पर वह कहीं और देखेगा. हमारी आधारभूत नीति इस बात से निर्देशित होनी चाहिए, नहीं तो हम यहां नाकामयाब हो जाएंगे.’

अब जब मोदी सरकार ने धारा 370 हटा दी है तो नेहरू की चिट्ठी में लिखी बातें सच मालूम पड़ती हैं. कश्मीर का मसला संयुक्त राष्ट्र में एक जनवरी 1948 को लार्ड माउंटबेटन की सलाह पर पहुंचा था. क्योंकि वो मानते थे कि चूंकि कश्मीर का भारत में विलय हो चुका है लिहाजा संयुक्त राष्ट्र कश्मीर के उत्तरी इलाके को मुक्त कराने में मदद करे जो कि पाकिस्तान समर्थक गुट के कब्ज़े में चला गया था. उस वक्त संयुक्त राष्ट्र में पकिस्तान की तरफ से जफरुल्ला खान ने इस मुद्दे में पैरवी की. वहां भारत की तुलना में खान ने कहीं बेहतर तरीके से अपना पक्ष रखा और वे संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधियों को यह भरोसा दिलाने में सफल हो गए कि कश्मीर पर हमला बंटवारे के दौरान उत्तर भारत में हुए सांप्रदायिक दंगों का नतीजा था. उस वक्त पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर को ‘बंटवारे की अधूरी प्रक्रिया’ के तौर पर पेश किया. इसका असर ये हुआ था कि सुरक्षा परिषद् ने इस मामले का शीर्षक ‘जम्मू-कश्मीर प्रश्न’ से बदलकर ‘भारत-पाकिस्तान प्रश्न’ कर दिया.

अब 70 साल बाद कश्मीर में जब एक एतिहासिक बात हुई है. तो वहां हालात अच्छे नहीं हैं. एक बार फिर से वही तनाव है और धारा 370 खत्म होने के बाद कश्मीरियों के मन में डर बैठा हुआ है. इस वक्त कश्मीर में बेचैन करने वाली शांति है. बार से सब खामोश है लेकिन अंदर कुछ उबल रहा है. स्थानीय लोगों को कहना है कि कश्मीरियों का गुस्सा हिंसात्मक रूप ले सकता है. लोग कह रहे हैं कि भारत सरकार का ये फैसला कश्मीर की पीढ़ियां तक नहीं भूलेंगी. चप्पे-चप्पे पर सुरक्षाकर्मी तैनात हैं. बैरिकेड हर बड़ी सड़क और अहम इमारतों के बाहर लगाए गए हैं. श्रीनगर किसी वॉर जोन में तब्दील हो गया है. दुकानें और बाज़ार बंद हैं. स्कूल और कॉलेज भी बंद हैं. लोगों ने कुछ दिनों के लिए अपने घरों में राशन और ज़रूरत के दूसरे सामानों का इंतज़ाम कर लिया है, लेकिन अगर कुछ दिनों तक दुकानें नहीं खुलीं, तो नागरिकों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है. टेलिफ़ोन लाइन, मोबाइल कनेक्शन और ब्रॉड बैंड सेवाएँ बंद कर दी गई हैं. अभी तो हालात अच्छे नहीं हैं पता नहीं कश्मीर का भविष्य कैसा होगा.

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