सियासी मैच में गेंदबाज की उंगलियां देखकर बॉल की लैंथ भांपने वाला नेता

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राजनीति में पूर्वानुमान का बड़ा महत्व होता है. जैसे मौसम का अनुमान मौसम वैज्ञानिक लगाता है वैसे है राजनीति में जो सटीक अनुमान लगाने की कला अगर किसी को आती है तो वो हैं एलजेपी प्रमुख और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान. ऐसा कोई गठबंधन नहीं है जिसमें पासवान का पासा सही न पड़ा हो.

72 साल के राम विलास पासवान की राजनीतिक समझ तो है ही उनका ठोक वोटबैंक भी उनकी ताकत है. बिहार में उनकी जाति पासवान की संख्या करीब छह प्रतिशत है. हाजीपुर, समस्तीपुर, उजियारपुर, बेगूसराय, दरभंगा, सीतामढ़ी, मधेपूरा और मधुबनी में पासवान समुदाय बड़ी संख्या है. अगर पूरे बिहार की बात करें तो बिहार की 40 सीटों में से कम से कम 15 सीटें ऐसी है जहां पासवान बिरादरी के लोगों की संख्या 50 हजार से लेकर 2 लाख तक है. पासवान ऐसे वोटबैंक है जो ठोस हैं यानी जहां एलजेपी प्रमुख कहेंगे उनकी बिरादरी वहां जाएगी. यही ताकत है पासवान की. रामविलास पासवान की इसकी ताकत ने बीजेपी को झुकने पर मजबूर कर दिया. बीजेपी को चिराग पासवान के 18 दिसंबर के ट्वीट ने जाहिर कर दिया था कि पासवान कोई फैसला ले सकते हैं. क्योंकि चिराग ने कहा था कि अगर 31 दिसंबर तक बीजेपी सहयोगी दलों के साथ सीट शेयरिंग के मसले को नहीं सुलझाती है तो नुकसान संभव है.

मौका देखकर चौका मार दिया

अब जो समझौता हुआ है उसके मुताबिक पासवान को 6 लोकसभा सीटों के अलावा एक राज्यसभा सीट भी मिली है. पासवान इस सीट को लेने पर अड़े हुए थे. बीजेपी प्रमुख अमित शाह, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और एलजेपी प्रमुख रामविलास पासवान ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर सीटों के बंटवारे की घोषणा कर दी. बीजेपी और जेडीयू को 17-17 सीटें मिली हैं और रामविलास पासवान को 6 सीटें मिली हैं. तीनों पार्टियों का मानना है कि 2019 में गठबंधन 2014 से ज्यादा सीटें जीतेगा. पासवान ने जिस तरह की तल्खी दिखाई थी उससे बीजेपी को आनन-फानन में फैसला करना पड़ा.

2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 30 सीटों पर लड़ी थी जिसमें से 22 जीतीं थीं. एलजेपी ने 6 और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी ने तीन सीटें जीती थीं. 2014 में नीतीश कुमार एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़े थे और दो सीटें जीतीं थीं. इस वो बीजेपी के साथ हैं. उपेंद्र कुशवाह ने पाला बदल लिया है. रामविलास पासवान अभी भी एनडीए में हैं हालांकि उन्होंने अपनी नाराजगी जरूर जाहिर की. अब जरा रामविलास पासवान का राजनीतिक इतिहास को देख लें

जहां फायदा वहां पासवान

  • 1996 से 2015 तक यूनाइटेड फ्रंट, एनडीए और यूपीए में शामिल रहे.
  • 1977 में पहली बार बिहार में हाजीपुर सीट से सांसद बने थे.
  • 9वीं लोकसभा में वीपी सिंह की सरकार में श्रमिक एवं कल्याण मंत्री बने.
  • 1996 में 11वीं लोकसभा के लिए चुनाव हुए और बीजेपी की सरकार बनी.
  • समर्थन न मिलने के कारण बीजेपी सरकार 13 दिन ही चल सकी.
  • जनता दल फिर से सत्ता में आई और एचडी देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बनें.
  • पासवान को रेल मंत्री के तौर पर एक बड़े मंत्रालय की ज़िम्मेदारी मिली.
  • 1999 में NDA में शामिल और सरकार बनने के बाद संचार और कोयला मंत्री बने.
  • 2000 में पासवान ने लोक जनशक्ति पार्टी की नींव रखी.
  • लोजपा ने 2005 के बिहार विधानसभा चुनावों में क़दम रखा और 10 सीटें जीतीं.
  • 1999 से 2004 तक वो बीजेपी में रहे उसके बाद कांग्रेस का दामन थाम लिया.
  • 2004 में शाइनिंग इंडिया के हश्र को भांपकर उन्होंने रास्ता बदल लिया.
  • चुनाव से पहले गुजरात दंगे के नाम पर एनडीए का साथ छोड़ दिया
  • 2004 से 2009 तक यूपीए सरकार में रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय संभाला.
  • 2009 के आम चुनावों में वो यूपीए छोड़कर लालू यादव के साथ चले गए.
  • लालू यादव की आरजेडी, समाजवादी पार्टी और एलजेपी ने चौथा फ्रंट बनाया.
  • चौथा फ्रंट से लड़ते हुए वो अपनी हाजीपुर की सीट भी नहीं बचा पाए.
  • 2010 के बिहार विधानसभा चुनावों में भी एलजेपी 10 से 3 सीटों पर आ गई.
  • नीतीश कुमार के बढ़ते प्रभाव से रामविलास पासवान को नुकसान हुआ.
  • 2014 के आम चुनाव में उन्होंने हवा का रूख भांपकर एनडीए का साथ दिया.

एक बार फिर भांप लिया हवा का रुख

2019 में भी ऐसा ही हुआ. पासवान ने हवा का रुख भांपकर बीजेपी से सौदेबाजी की और अपनी बात मनवाने में कामयाब हुए. पासवान समझ गए कि हिंदी हार्टलैंट में बीजेपी की हार ने उन्हें इस स्थिति में ला दिया है कि वो कभी भी बीजेपी से खुलकर बात कर सकते हैं. और उन्होंने ऐसा ही किया.

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