तेलंगाना विधानसभा चुनाव: इलेक्शन में दो तरफा मुकाबला

तेलंगाना विधानसभा चुनाव: मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मिजोरम में विधान सभा चुनाव के बाद अब तेलंगाना में चुनाव की बारी है। यहां 30 दिसंबर को 119 एसेंबली सीट पर वोट डाले जाएंगे। आगामी स्टेट इलेक्शन में दो तरफा मुकाबला देखने को मिल रहा है। कांग्रेस और भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) में।


बीजेपी भी जीत का दावा करती नजर आ रही है। चुनाव में ऑल इंडिया मजलिस इत्ताहेदुल मुस्लमीन (एआईएमआईएम) को नजर अंदान नहीं किया जा सकता है। असदुद्दीन औवेसी की पार्टी गेम चेंजर साबित हो सकती है।
चुनाव में कांग्रेस ने सीमित सीटों पर सीपीआई और तेलंगाना जन समिति के साथ गठबंधन किया है। बीजेपी ने कुछ सीटों पर फिल्म स्टार पवन कल्याण के लीडरशिप वाली जन सेना पार्टी के साथ गठबंधन किया है। तेलुगु देशम पार्टी ने चुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया है। वहीं, सीताराम येचुरी की पार्टी सीपीआईएम अपने दम पर 19 सीटों पर चुनाव लड़ रही है।
तेलंगाना विधान सभा चुनाव में बीजेपी ने मुस्लिम आरक्षण को मुद्दा बनाया है, जबकि कांग्रेस और बीआरएस अल्पसंख्यक वोटरों को अपने पाले में करने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रही है। तेलंगाना में 12.7 फीसदी मुस्लिम वोटर्स हैं, जो 2014 के पहले कांग्रेस को अपना वोट करते थे, लेकिन तेलंगाना के गठन के बाद के चंद्रशेखर राव (केसीआर) के साथ जुड़ गए। हालांकि इस बार मुस्लिम वोटर्स कांग्रेस और बीआरएस में बंटे हुए नजर आ रहे हैं। तेलंगाना में मुस्लिम वोटरों की ताकत का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि 40 सीटों में से 29 पर सीधे और 11 सीटों पर परोक्ष रूप से जीत-हार तय करते हैं।

2023 विधान सभा चुनाव बीरआरएस प्रमुख के चंद्रशेखर राव के इर्द-गिर्द केंद्रित है। जिसमें सियासी ताकतें और चुनावी कारक उनके आस-पास केंद्रित हो रहे हैं। उन्हें तेलंगाना के लिए आंदोलन करने वाले नेता के रूप में श्रेय दिया जाता है। उनकी पार्टी अपनी संगठनात्मक विशेषज्ञता पर भरोसा कर रही है और पिछले 10 सालों में तेलंगाना के लिए किए गए विकास कार्यों की बदौलत इस बार भी जनता के बीच है। राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि इस चुनाव में बीआरएस की राह आसान नहीं है। उसे उन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है जो तेलंगाना की सत्ता में लंबे समय तक रहने के साथ बढ़ी है।

लंबे समय तक अविभाजित आंध्र प्रदेश में सत्ता की फसल काट रही कांग्रेस 2014 में हुए एपी और तेलंगाना के विभाजन के बाद उसकी सियायत बंजर जमीन में तब्दील हो गई। एक दशक से अधिक समय से सत्ता में लौटने की कोशिश में जुटी हुई है। पीसीसी प्रमुख रेवंत रेड्डी के नेतृत्व में तेलंगाना कांग्रेस ने अपनी पहली चुनावी सफलता तब देखी जब उसने 2019 में तीन लोकसभा सीटें जीतीं। राज्य में खुद को मजबूत करने के लिए कांग्रेस बीआरएस और बीजेपी के नेताओं को पार्टी में शामिल किया। जबकि राज्य में कांग्रेस बीआरएस शासन के मौजूदा मुद्दों को चुनावी रूप देकर जनता के बीच में है। कांग्रेस इन मुद्दों को भुनाने में किस हद तक कामयाब हो पाई। इसका अंदाजा 3 दिसंबर को लग जाएगा।
तेलंगाना में अपनी जमीन तलाश रही बीजेपी ने जब 2019 के लोकसभा चुनावों में चार सीटें जीतीं, तो इसे भगवा पार्टी के रूप में देखा गया। ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम (जीएचएमसी) और अन्य स्थानीय चुनावों में पार्टी के प्रदर्शन से यह धारणा और मजबूत हो गई कि बीजेपी बीआरएस के लिए मुख्य चुनौती बनकर उभर रही है। 2023 विधान सभा चुनाव में बीजेपी को तीसरी मुख्य पार्टी के तौर पर देखा जा रहा है। बीजेपी तेलंगाना में हिंदुत्व के मुद्दे पर चुनाव लड़ रही है। पीएम मोदी से लेकर सीएम योगी तक बीजेपी के फायर ब्रांड नेता तेलंगाना की अलग-अलग विधान सभाओं में चुनावी रैलिया और रोड शो करते हुए नजर आए। बीजेपी ने तेलंगाना की जनता के बीच हिंदुत्व का जो बीज बोया है। इस चुनाव में इसका फायदा भले न मिले, लेकिन अलगे 10 सालों में बीजेपी की पैठ तेलंगाना की सियासत में जरूर मजबूत होगी।
एआईएमआईएम का हैदराबाद से लेकर आदिलाबाद तक दबदबा है। इन जिलों में ओवैसी की पार्टी के इर्दगिर्द कोई नहीं टिकता है। एआईएमआईएम पर बीआरएस की सेकंड पार्टी होने का इल्जाम भी लगते रहे हैं। एआईएमआईएम 9 सीटों पर कैंडिडेट्स उतारे हैं। बाकी 110 सीटों पर बीआरएस को सर्मथन दिया है। साल 2018 में इलेक्शन में 9 सीटों में 7 पर जीत हासिल की थी। पार्टी की शुरुआत करीब 85 साल पहले हैदराबाद में सामाजिक-धार्मिक संस्था के रूप में हुई थी। नवाब महमूद नवाज खान ने 1928 में मजलिस की स्थापना की थी।

चुनावी मुद्दे पर एक नजर डालें तो सभी पार्टियां कल्याणकारी योजनाओं पर फोकस करते हुए जनता का समर्थन पाने में जुटी हैं। इसमें विशेष रूप से कृषि लोन चुकाने में राहत, बेहतर पेंशन योजनाएं, वंचित समूहों के लिए वित्तीय सहायता, बेरोजगारी लाभ, बीमा योजनाएं और सरकारी नौकरी के अवसर शामिल हैं। चुनौतियों की बात करें तो जो भी पार्टी जीतकर सत्ता में आएगी उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी वित्त की। मौजूदा वक्त में तेलंगाना राज्य कई आर्थिक चुनौतियों से जूझ रहा है। जिसमें राज्य ऋण का बढ़ता बोझ और कई योजनाओं में वित्तीय प्रतिबद्धताएं शामिल हैं। खास तौर पर कृषि राहत ऋण, रायथु बंधु योजना और दलित बंधु योजना के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधनों की जरूरत होगी। इसके अलावा चुनावी वादों को पूरा करने के लिए वित्त की आवश्यकता पड़ेगी।
2018 विधान सभा चुनावों में, भारत राष्ट्र समिति (पूर्व में तेलंगाना राष्ट्र समिति) ने पूर्ण बहुमत हासिल किया। 119 में से 88 सीटें हासिल कीं और कुल वोट शेयर का 47.4 प्रतिशत हासिल किया। कांग्रेस काफी पीछे रह गई और केवल 19 सीटें हासिल कर पाई। एआईएमआईएम ने 7 सीटें जीतीं, जबकि बीजेपी के हाथ खाली रहे। इस चुनाव यह टेस्ट होगा कि क्या वाकई बीआरएस ने जनता से किए गए वादों को पूरा किया या फिर सिर्फ चुनावी वादा ही बन कर रहा गया। चुनाव में पिछड़ा समुदाय, मुस्लिम, किसान, महिलाएं और युवाओं के मतदान पैटर्न पर सभी की नजर रहेगी। यही तय करेगा कि कौन अपने सिर जीत का सहरा सजाएगा और कौन विधान सभा में विपक्ष की भूमिका निभाएगा।

एस हनुमंत राव, स्वतंत्र पत्रकार

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