पश्चिम बंगाल की खूनी सियासत का सच
पश्चिम बंगाल इन बीजेपी की रणनीति का अहम हिस्सा है. बीजेपी यहां रथयात्राओं के माध्यम से अपनी पकड़ मजबूत करना चाह रही है. लेकिन ममता बनर्जी भी यहां पर लगातार सक्रिय हैं और वो बीजेपी के मंसूबो को भांपकर हर कदम फूंक फूंक के रख रही हैं.
पिछले एक साल में पश्चिम बंगाल में राजनीतिक खूनी लड़ाई की खबरें खूब सामने आती रहीं. सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी के बीच राजनीतिक का नया चक्र शुरू हुआ है जिसमें मारा मारी आम होती जा रही है. पश्चिम बंगाल की सियासत हमेशा खून से सनी रही है. ये कोई पहला मौका नहीं है जब राजनीति फायदे के लिए या राजनीतिक संघर्ष ने इस तरह का रूप लिया हो. अगर बीते पांच दशकों के इतिहास को देखें तो आप समझ पाएंगे कि यहां कि राजनीति हमेशा से मरने मारने वाली रही है.
राजनीतिक बर्चस्व की खूनी लड़ाई
- 6 दशकों में राज्य में लगभग साढ़े आठ हजार लोग राजनीतिक हिंसा की बलि चढ़ चुके हैं.
- विभाजन के बाद बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थियों के मुद्दे पर बंगाल ने काफी हिंसा हुई.
- 1979 में सुंदरबन इलाके में बांग्लादेशी हिंदू शरणार्थियों के नरसंहार को काला इतिहास है.
- 60 के दशक में उत्तर बंगाल के नक्सलबाड़ी से शुरू हुए नक्सल आंदोलन भी रक्तरंजित था.
- 1971 में सिद्धार्थ शंकर रे की कांग्रेस सरकार के दौर में भी राजनीतिक हत्याएं खूब हुईं थीं.
- 1971 से 1977 के बीच कांग्रेस शासनकाल के दौरान राज्य में विपक्ष के कई नेता मारे गए.
- 1977 के विधानसभा चुनावों में कांगेस इसी वजह से हाशिए पर चली गई और कभ नहीं पनपी.
- 1977 में भारी बहुमत के साथ सत्ता में आए लेफ्ट फ्रंट ने भी कांग्रेस की राह ही अपनाई.
- 1977 से 2011 के 34 सालों में वामपंथी शासन के दौरान राजनीतिक नरसंहार खूब हुआ.
- 1982 में सीपीएम काडरों ने महानगर में 17 आनंदमार्गियों को जिंदा जला दिया था.
- 2000 में बीरभूम जिले के नानूर में पुलिस ने कांग्रेस समर्थक 11 अल्पसंख्यकों का मारा.
- 14 मार्च, 2007 को नंदीग्राम में अधिग्रहण का विरोध कर रहे 14 बेकसूर गांव वाले भी मारे गए.
- 2009 में राज्य में 50 राजनीतिक हत्याएं हुई थीं और उसके बाद अगले दो सालों में 76 लोग मारे गए.
- 2007, 2010, 2011 और 2013 में राजनीतिक हत्याओं के मामले में बंगाल पूरे देश में अव्वल रहा.
- 2011 में ममता बनर्जी की अगुवाई में तृणमूल कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद भी हत्याएं हुईं
- लेफ्ट फ्रंट के शासनकाल में होने वाले पंचायत चुनावों में पार्टी के 400 से ज्यादा कार्यकर्ता मारे गए.