Saadat Hasan Manto! कहानी उस मुकदमे की जो अभी भी दर्ज है

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Saadat Hasan Manto


मंटो! आज तुम्हारा जन्मदिन है और तुम पर अब भी मुकदमा दर्ज है….

एक अ़फसानानिगार के तौर पर Saadat Hasan Manto ताउम्र इंसानी फितरत को उधेड़ता रहा. वो फिक्शन रायटर नहीं था. वो अपने और हमारे दौर के समाज की कड़वी और नंगी हकीकत बयान करता था.

वह अगर फिक्शन राइटर होता तो उसके ऊपर हकीक़त बयान करने के लिए अश्लीलता का आरोप लगाकर 6 मुकदमें नहीं दर्ज होते. हां, उसने बताया कि इंसानी जिंदगी टेढ़ी लकीर की मानिंद है.

11 मई, 1912 को ज़िला लुधियाना के गाँव पपड़ौदी (समराला नज़दीक) में मंटो का जन्म हुआ. मंटो के पिता गुलाम हसन मंटो कश्मीरी थे. मंटो के जन्म के जल्द बाद वह अमृतसर चले गए. इसी अमृतसर के कूचा वकीलां में मंटो की प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा हुई.

जब अमृतसर में अंग्रजों ने जालियांवाला बाग में गोलियां चलाई और इंसानों की कौम को शर्मिंदगी का अहसास कराया तब मंटो 7 साल का था. जालियांवाला बाग का मंटो की कैफियत पर ताउम्र असर रहा. जलियांवाला बाग के बाहर बैठकर वह घंटों सोचता और अंग्रेजी निजाम के खिलाफ बगावत के खिला़फ प्लान बनाता.

यहीं मंटो और उसके दोस्त अंग्रेजो के खिलाफ पर्चा निकालने और बांटने लगे.

21 साल की उम्र में मंटो की मुलाकात अब्दुल बारी अलिग से हुई जिसने मंटो को फ्रेंच और रसियन इंकलाबी साहित्य से रूबरू कराया. मंटो ने विक्टर हुगो के उपन्यास “एक कैदी का जीवन” का “सरगुजश्त ए असीर” नाम से उर्दू अनुवाद किया. कम्बख़त शराब इसी दौर में उसके मुंह जा लगी.

बंबई जाकर फिल्मों के लिए कहानी और स्क्रिप्ट लिखते हुए उसने फिल्मों के लीपे पुते चेहरों के पीछे बीमार इंसानी फितरत को क़रीब से देखा और दुखी भी हुआ.

मंटो ने जो रेखाचित्र और संस्मरण लिखे हैं उनमें मोहब्बत और नफरत से लबरेज़ इनकी कई तस्वीरें है. अशोक कुमार से मंटो की दोस्ती थी.

बंटवारे के दौरान जब बंबई में भी सांप्रदायिक आग पहुंची तो एक हादसे में अशोक कुमार, मंटो को बचाकर अपने घर ले गए थे.
बंबई में ही बंटवारे के वक्त अचानक उसको डर लगा कि उसके सारे मुस्लिम दोस्त पाकिस्तान जा चुके थे. एक दिन अपने एक दोस्त के जुबान ए खंजर से घायल होकर वह भी करांची जाने वाले आखरी जहाज में बैठ गया.

लाहौर – ये वो शहर है जहां सहादत हसन मंटो का वनवास कटा था, लक्ष्मी मेंशन (शायद ही बची हो कोई निशानी इस इमारत की) में उसकी आत्मा, अगर वो किसी कब्र में कब्ज़ा जमाकर ना बैठी हो तो, ज़रूर शाम को भटकने जाती होगी. रब्त है कि मंटो अंधों के शहर में आइना बेचता फिरता रहा.

वो कहता कि सरमाए के हाथों में सियासत की तलवार है जो जनता को नोकों पर उछालती फिरती है, अब कत्ल तो होना ही है, फ़िर क्या था एफआईआर दर्ज़ हो गई उसके ख़िलाफ़!

अपनी बयालीस साल, आठ महीने और सात दिन की ज़िंदगी में मंटो को लिखने के लिए सिर्फ़ 19 साल मिले और इन 19 सालों में उसने 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 ख़ाके (शब्द चित्र) और 70 लेख लिखे.

इतनी जल्दबाजी में यह सब कुछ लिख डाला उसने. मरने और लिखने दोनों की जल्दी थी इसलिए शराब पीता रहा.

बंटवारे के वक्त जो हिंसा हुई उसने कई लोगों को सोचने समझने ने लायक नहीं छोड़ा, मगर उसी वक़्त मंटो ने विभाजन के इस दर्दनाक हादसे की दास्तां- ठंडा गोस्त, खोल दो, बू, टोबा टेक सिंह, सियाह हाशिए, काली सलवार, नंगी आवाजें जैसी अपनी रचनाओं में दर्ज की.

आदमी और औरत के बीच मौजूद हर रिश्ते की आजमाइश हुई है इन कहानियों में.

मंटो की कहानियों में जो साइक्लोजिकल ट्रीटमेंट मिलता है उससे जाहिर होता है कि पूरी दुनिया पागल खाना है.

मंटो की कहानी के किरदार उसके आसपास के किसी होटल में मक्खन चुरा कर खाने वाला नौकर, मंगू कोचवान, ट्रक ड्राइवर जैसे मामूली लोग है, इसलिए जब मंटो इनके जरिए कहानी बताता है तो वह कोई आदर्श नहीं गढ़ता बल्कि तंज करते हुए रूखी हकीकत बयान करता है.

मंटो का लिखा एक “डार्क कॉमेडी शो” है जिसके किरदारों के बीच कभी-कभी मंटो खुद भी उभर आता है.

बंटवारे से पहले मंटो की तीन कहानियों काली सलवार, धुआं और बू पर मुकदमे दर्ज हुए. उसके बाद ठंडा गोश्त और ‘ऊपर, नीचे और दरमियान’ पर मुक़दमा दर्ज हुआ.

मुकदमे के खिला़फ हर बार अपील हुई, गवाईयां हुई, अश्लीलता की परिभाषा और कहानी के तीखेपन पर तकरार हुई और फ़िर मंटो के खिलाफ मुकदमा खारिज किया गया.

मंटो अपने दौर के निजाम से, समाज के ठेकेदारों से खुल कर दो हाथ करना चाहता था मगर दुबले पतले शरीर का मालिक था और कैफियत में बगावत शामिल थी.

सरमायदारी (पूंजीवाद) के खिलाफ मंटो ने ऐलान किया कि
” मैं बग़ावत चाहता हूँ. हर उस फ़र्द (आदमी) के ख़िलाफ़ बग़ावत चाहता हूँ जो हमसे मेहनत कराता है मगर उस के दाम अदा नहीं करता.”

“हिंदुस्तान को लीडरों से बचाओ” नाम से एक मज़ामीन (लेख) में मंटो कहता है कि…
“हम एक अर्से से ये शोर सुन रहे हैं. हिन्दुस्तान को इस चीज़ से बचाओ; उस चीज़ से बचाओ, मगर वाक़िया ये है कि हिन्दुस्तान को उन लोगों से बचाना चाहिए जो इस क़िस्म का शोर पैदा कर रहे हैं. ये लोग शोर पैदा करने के फ़न में माहिर हैं. इसमें कोई शक नहीं, मगर उनके दिल इख़लास से बिलकुल ख़ाली हैं. रात को किसी जलसे में गर्मा-गर्म तक़रीर करने के बाद जब ये लोग अपने पुर-तकल्लुफ़ बिस्तरों में सोते हैं तो उनके दिमाग़ बिल्कुल ख़ाली होते हैं. उनकी रातों का ख़फ़ीफ़-तरीन हिस्सा भी इस ख़्याल में नहीं गुज़रा कि हिन्दुस्तान किस मर्ज़ में मुब्तला है. दरअसल वो अपने मर्ज़ के इलाज मुआलिजे में इस क़दर मसरूफ़ रहते हैं कि उन्हें अपने वतन के मर्ज़ के बारे में ग़ौर करने का मौक़ा ही नहीं मिलता.”

यह मंटो के दौर का भी सच था और हमारे दौर का भी सच है.

इसी लेख में मंटो अपने दौर के युवाओं का आवाहन करते हुए कहता है-
“ज़रूरत है कि फटी हुई क़मीसों वाले नौजवान उठें और अज़्म-ओ-ख़श्म को अपनी चौड़ी छातियों में लिए इन नाम निहाद लीडरों को इस बुलंद मुक़ाम पर से उठा कर नीचे फेंक दें, जहां ये हमारी इजाज़त लिए बग़ैर चढ़ बैठे हैं. उनको हमारे साथ, हम-ग़रीबों के साथ हमदर्दी का कोई हक़ हासिल नहीं… “

1912 में पैदा हुआ मंटो 1955 में पाकिस्तान के पश्चिमी पंजाब के लाहौर में दफन हुआ.

मंटो के जीते जी मंटो को उतना नहीं पढ़ा गया जितना उसके मरने के बाद..उसने कहा भी था कि “मैं चाहता हूं कि सआदत हसन मर जाए और मंटो जिंदा रहे.”

मंटो के कई उन्वान छपे और हिंदुस्तान और पाकिस्तान में फिल्में भी बनी. लाहौर के बाशिंदे सरमद खूसट ने 2015 में “मैं मंटो” के नाम से 20 एपिसोड की टेलीसीरीज बनाई और बाद में मंटो नाम से एक फिल्म भी बनाई.

भारत में 2018 में नंदिता दास ने भी मंटो नाम से एक फिल्म बनाई जिसमें नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने मंटो का किरदार निभाया. मौजूदा दौर में मंटो भारत और पाकिस्तान के तरक्की पसंद लोगों का चहेता अ़फसानानिगार है. उसका लिखा हुआ उनके दिमागी कसरत के लिए रॉ मैटेरियल का काम करता है.

मौजूदा दौर में मंटो शायद भारत या पाकिस्तान के किसी जेल में देशद्रोह और साजिश के आरोप में कैद होकर अपनी जमानत की अर्जीयां लिख रहा होता.

मंटो ने कहा था कि “मेरे अफ़साने नहीं, ज़माना नाक़ाबिले बर्दाश्त है.”

लेखक: आलोक अग्निहोत्री “अनवर”

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