Who is public intellectual?
Who is public intellectual?


हिन्दी में अधूरी तस्वीर देखने का रिवाज है. अधूरी इमेजों में भ्रमित रहने वालों को यह भ्रम होता है कि वे ही हिन्दी के public intellectual या जन-बुद्धिजीवी हैं.

हिन्दी में किसे पब्लिक इंटलेक्चुअल कहें और किसे न कहें-इस सवाल पर सबसे ज्यादा दुविधा है. जो टीवी पत्रकार हैं वे अपने को प्रतिदिन व्यक्त करते रहते हैं और यह मानकर चलते हैं कि वे पब्लिक इंटलेक्चुअल हैं.

जो पत्रकार-प्रोफेसर आए दिन टीवी और अन्य मीडिया में दिखते हैं वे भी अपने को पब्लिक इंटलेक्चुअल मानते हैं.

इसके अलावा हिन्दी में बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका है जो अहर्निश देश के बारे में सोचता है, लेकिन कभी मीडिया में नजर नहीं आता या मीडिया उन्हें अवसर नहीं देता.

इसके अलावा एक वर्ग ऐसे बुद्धिजीवियों का भी है जो जानबूझकर मीडिया की उपेक्षा करता है. मासमीडिया से अपने पार्टीजन नजरिए के कारण दूरी रखता है. इस वर्ग में बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी आते हैं.

एक वर्ग ऐसे लोगों का है जो देश के बारे में सोचता है, उसके सामाजिक सरोकार भी हैं लेकिन हम उन्हे बुद्धिजीवी की कोटि में नहीं रखते. इन्हें मजदूर, किसान, औरत आदि के नाम से जानते हैं.

आम लोगों को यही आभास है कि हिन्दी में गिनती के साहित्यकार-बुद्धिजीवी हैं जो मीडिया में दिखाई देते हैं. मीडिया में आम जनता की समस्याओं पर बोलने और लिखने वाले हिन्दी के कम लोग इसलिए दिखते हैं क्योंकि मीडिया की दिलचस्पी हिन्दी के ज्यादा से ज्यादा बुद्धिजीवियों को शामिल करने में नहीं है. मीडिया वाले खासकर टीवी वाले घुमा-फिराकर नामवर सिंह, सुधीश पचौरी, राजेन्द्र यादव, अशोक बाजपेयी, पुरूषोत्तम अग्रवाल आदि…यानी हिन्दी की मीडिया की नजर में यही बौद्धिक संपदा है!

इस प्रसंग में हम यही कहना चाहेंगे कि मीडिया प्रस्तुतियों के आधार पर यदि बुद्धिजीवियों की सामाजिक उपस्थिति का फैसला किया जाएगा तो मामला गड़बड़ा सकता है.

मीडिया की प्रस्तुतियां हमें सीमित ज्ञान देती हैं. मीडिया से हमें हिन्दी बुद्धिजीवी की असल इमेज का अंदाजा नहीं लग सकता. इस प्रसंग में दो उदाहरण बताना चाहूँगा–

पहला वाकया प्रसिद्ध मीडिया विशेषज्ञ और प्रोफेसर हर्बर्ट शिलर का है. शिलर ने लिखा है कुछ साल पहले लॉस एंजिल्स टाइम्स ने अमेरिका के लोकगायक “पीट शीजर” का साक्षात्कार छापा था. वे 60 साल से भी ज्यादा समय से गीत गाते रहे हैं. शिलर ने 39 छात्रों की कक्षा से पूछा–“क्या वे शीजर का नाम जानते हैं?” इनमें से अधिकांश छात्र 1997 में स्नातक कर चुके थे. सभी विद्यार्थियों ने कहा वे पीट शीजर के बारे में कुछ भी नहीं जानते. छात्रों ने कहा कि उन्होंने कभी इस लोककवि का नाम भी नहीं सुना. यह छात्रों का वह ग्रुप था जिसे रिसर्च करने, उच्च शिक्षा में आने का मौका मिला था, ये अभिजात्यवर्ग के छात्र थे.

शिलर ने सवाल किया है कि इस स्थिति को कैसे व्याख्यायित करेंगे ?

यहां कम्युनिकेशन ही मुख्य है. ये छात्र नव्वे के दशक के टीवी को देखकर बड़े हुए हैं और इस बीच में इस लोकगायक को कभी टीवी पर गीत गाते नहीं देखा. टीवी के युग में जो टीवी पर नहीं दिखता उसका राष्ट्रीय ऑडिएंस के लिए कोई अस्तित्व नहीं है. यही दशा पीट शीजर की भी हुई.

इसका अर्थ यह है कि टीवी पर अगर आप दिख रहे हैं तो हीआपका अस्तित्व है.

शिलर ने लिखा है–
ज्यादातर व्यक्ति, घटनाएं, सामाजिक आंदोलन और रचनात्मक प्रयासों का वजूद, इसलिए नहीं माना जाता, क्योंकि वे टीवी पर दिखाई नहीं देते.

दूसरा वाकया नॉम चोम्स्की से जुड़ा है. तीसरी दुनिया में चोम्स्की महान बुद्धिजीवी के रूप में स्वीकार किए जाते हैं. हम सब जानते हैं कि वे दुनिया में नम्बर 1 के बुद्धिजीवी हैं. इसके बावजूद अमेरिकी मीडिया में चोम्स्की कभी बुलाए नहीं जाते. अमेरिका के तमाम उनके सहकर्मी लिखते हैं कि उन्हें मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट में ज्यादातर लोग जानते तक नहीं हैं. उन्हें कभी अमेरिकी कारपोरेट मीडिया में बुलाया नहीं गया. उनकी अधिकांश किताबों के रिव्यू तक अमेरिकी कारपोरेट मीडिया ने नहीं छापे. ज्यादातर अमेरिकियों ने चोम्स्की का नाम तक नहीं सुना. इसका क्या अर्थ लगाएं ?

हिन्दी के बुद्धिजीवियों के साथ भी तकरीबन ऐसा ही घट रहा है. हमारे बहुत से दोस्त अच्छी तरह जानते हैं कि मीडिया में चंद लोग ही बार-बार क्यों दोहराए जाते हैं ? हिन्दी में व्यापक संख्या में ऐसा बुद्धिजीवी-साहित्यकार है जो आम जनता से जुड़े सवालों पर राय रखता है, वैज्ञानिक राय रखता है लेकिन मीडिया कभी उन तक जाने की कोशिश ही नहीं करता. चंद नमूने के हिन्दी बुद्धिजीवियों तक मीडिया का सिमट जाना मीडिया की समस्या है. मीडिया चंद लोगों तक इसलिए बंधा है क्योंकि उसके पास समय, संसाधन और विवेक का अभाव है.

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि इन दिनों मीडिया में अ-राजनीतिकरण की हवा चल रही है. हमारे जो लोग बुद्धिजीवी-साहित्यकार की पब्लिक इंटलेक्चुअल के रूप में उपस्थिति देखना चाहते हैं, उनसे सवाल है कि वे बुद्धिजीवी किसे मानते हैं ? इस प्रसंग में मैं फिर नॉम चोम्स्की को उद्धृत करना चाहूँगा.

चोम्स्की ने सवाल उठाया है कि “बुद्धिजीवी का असल में इस दुनिया में किस चीज से सरोकार होता है ? यदि हम मजदूर यूनियन में काम कर रहे होते तो पाएंगे कि मजदूरों के इस दुनिया से सरोकार हैं, अल सल्वाडोर के किसानों के भी सरोकार हैं; किंतु उन्हें हम ‘बुद्धिजीवी’ नहीं मानते. असल में यह हास्यास्पद शब्द है. मेरा आशय इस बात से है कि आखिरकार इसका कैसे इस्तेमाल किया जाता है. ‘बुद्धिजीवी’ का हमारे दिमाग से कोई लेना-देना नहीं है. ये दोनों भिन्न चीजें हैं. मेरा संदेह इस बात पर है कि अनेक लोगों के पास कौशल होता है. स्वचालित मशीनों पर काम करने का गुण भी होता है. वे विश्वविद्यालय में काम करने वाले लोगों से ज्यादा काम करते हैं, शिक्षा में जिसे हम ‘स्कालरली’ कार्य कहते हैं; वह मूलत: क्लरिकल वर्क ही है.”

चोम्स्की ने लिखा “मैं नहीं समझता कि दिमाग के लिए ऑटोमोबाइल का इंजन लगाने से क्लरिकल वर्क ज्यादा चुनौतीपूर्ण है. सच इसके विपरीत है. मैं क्लर्क का काम कर सकता हूँ, किंतु यह पता नहीं लगा सकता कि इंजन कैसे लगेगा! इसलिए ‘बुद्धिजीवी’ से तुम्हारा तात्पर्य ऐसे लोगों से है, जो विशिष्ट वर्ग में आते हैं, जो विचारों को थोपते हैं, जो लोग सत्ता में हैं उनके लिए विचार बनाते हैं, सबसे कहते हैं कि उन विचारों पर विश्वास करो,आदि आदि…तब तो भिन्न बात है…

जो लोग अपने को ‘बुद्धिजीवी’ कहते हैं उन्हें मैं धर्मनिरपेक्ष पुजारी कहना चाहूँगा. उनका काम है समाज के बारे में सत्य सिद्धान्तों को बचाए रखना. साथ ही जनता को ये लोग ‘बुद्धिजीवी विरोधी’ के रूप में रेखांकित करते हैं. सच यह है कि अमेरिका के साथ फ्रांस या अधिकांश यूरोप की तुलना करो तो पाओगे कि अमेरिका में सबसे स्वस्थ चीज यही है. यहां बुद्धिजीवियों को बहुत कम सम्मान दिया जाता है. सम्मान होना भी नहीं चाहिए. उनका किस चीज के लिए सम्मान किया जाए ?

फ्रांस में बुद्धिजीवी अभिजन का हिस्सा है. उनकी प्रथम पेज पर खबर आती है. अनेक कारणों में से एक कारण यह भी है कि बुद्धिजीवी की छवि हॉलीवुड की तरह पाखण्डपूर्ण है. तुम सब समय टीवी कैमरे के सामने होते हो, तुम सब समय नया बनाते रहते हो और मीडिया केन्द्र में रखकर प्रचार करता रहता है; किंतु तुम्हारी टेबिल के पास जो आदमी बैठा है, उस पर मीडिया फोकस कभी नहीं करेगा. लोगों को इस बात का भी पता नहीं होता कि क्या अच्छा है! इसलिए वे हमेशा ऊलजुलूल सामग्री के साथ आते हैं. इस सबके बीच बुद्धिजीवी प्रशंसा पाते हैं, आत्म महत्ता पाते हैं.”

चोम्स्की ने कहा कि “वियतनाम युद्ध के समय मुझे कईबार संयुक्त हस्ताक्षरों से युक्त पत्र जारी करने के लिए कहा गया. मसलन ज्यां पाल सार्त्र के साथ पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया यह फ्रांस के अखबारों में यह प्रथम पेज पर प्रकाशित हुआ, किंतु अमेरिका में इसका किसी ने उल्लेख करना तक जरूरी नहीं समझा.

फ्रांसीसी समझते थे कि यह सनसनीखेज है, मैं सोचता था भयानक है. क्यों कोई हमारी चिट्ठी का जिक्र करे? हम दोनों के ऊपर इससे क्या प्रभाव पड़ने वाला था? मैं सोचता हूँ कि अमेरिकी लोगों का सोच ज्यादा स्वस्थ था.”

चोम्स्की ने लिखा “यदि आप किसी व्यक्ति को किसी विषय के बारे में कुछ ज्यादा बता देते हैं, अथवा ज्यादा जानते हैं, तो यह बुद्धिजीवी जीवन की अभिव्यक्ति नहीं है; बल्कि यह किसी विशेषाधिकार अवस्था की अभिव्यक्ति है.”

मसलन यदि आप विश्वविद्यालय में हैं तो किसी एक चीज में विशेषाधिकार अवस्था में हैं; जबकि लोग कहते हैं कि आपको ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती! आप अपने काम पर नियंत्रण रखने की स्थिति में होते हैं.

चोम्स्की का मानना है “अभिव्यक्ति की आजादी हमें सिर्फ लिखने-पढ़ने वालों के संघर्षों के कारण नहीं मिली, अपितु मजदूर आन्दोलन, मानवाधिकारों के लिए संघर्ष, महिला आंदोलन आदि के कारण अभिव्यक्ति की आजादी प्राप्त हुई है.”

लेखक: प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी

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