समान नागरिक संहिता कैसे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की अगली कड़ी है?

0
Uniform Civil Code a sequel to communal polarisation?

भाजपा की सरकार समान UCC यानी नागरिक संहिता की मुहिम को एक बार फिर से जोर से उठाने में लग गई है। देश के कई राज्यों में यह मुहिम जारी है भारत के प्रधानमंत्री ने कल इस मुहिम को उठाने की जोरदार तरीके से वकालत की है।

1955-56 में बनाई जा रही समान नागरिक संहिता का तत्कालीन हिंदुत्ववादी ताकतों ने जमकर विरोध किया था और इस मुद्दे पर तत्कालीन कानून मंत्री बाबासाहेब आंबेडकर का खुलेआम अपना अपमान किया गया था। तब इन सांप्रदायिक ताकतों ने कहा था कि “यह काम किसी शूद्र का नही, बल्कि शास्त्रों में दर्ज़ उच्च कुलीन ब्राह्मणों का है।” इस भारी विरोध के कारण समान नागरिक संहिता को न बनता देखकर, बाबासाहेब अंबेडकर ने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था।

फिर यह मुद्दा लगभग साठ साल तक ठंडे बस्ते में डाल दिया, किसी को भी समान नागरिक संहिता की याद नहीं आई। फिर 2016 में इस मामले को एक सांप्रदायिक मुहिम के तहत उठाया गया। 2016 में विधि आयोग ने इस मुद्दे पर पूरे देश से राय और सुझाव मांगे थे। इस पर 75,378 संस्थाओं और व्यक्तियों ने अपने सुझाव भेजे थे।

इन सब सुझावों पर पूरी तसल्ली और विस्तार से विचार विमर्श करने के बाद भारत के विधि आयोग ने 2018 में अपनी रिपोर्ट सरकार को दी, जिसमें उसने कहा था कि “इस वक्त सभी समुदायों के अलग-अलग परिवारिक कानूनों के स्थान पर एक समान नागरिक संहिता बनाना न तो जरूरी है और ना ही वांछित।” इस प्रकार भारत के कानून आयोग ने इस मुद्दे को आगे न बढ़ाकर, इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया था।

समान नागरिक संहिता के हमदर्द फिर ठंडे पड़ गए और कुंभकरण की नींद सो गए। अब 2024 के चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आते जा रहे हैं, वैसे वैसे समान नागरिक संहिता के ये तमाम हमदर्द और पक्षकार, अपनी कुंभकरण की नींद से जाग रहे हैं और उनकी हमदर्दी एक बार फिर से जोर मार रही है।

यहां सवाल उठता है कि समान नागरिक संहिता के समर्थक, भीमराव अंबेडकर द्वारा लाए गए प्रयासों का तब क्यों विरोध कर रहे थे? फिर 60 साल तक ये तमाम ताकतें क्या करती रही? समान नागरिक संहिता को सर्वमान्य बनाने के लिए उन्होंने क्या किया? कितने लोगों से राय मांगी? उसके बाद फिर 2018 के बाद इन्होंने क्या किया? अब कौन सी नई परिस्थितियां पैदा हो गई हैं?

क्या कारण पैदा हो गए हैं कि एक बार फिर से भारत के प्रधानमंत्री समेत सारी सरकार और हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता से जोर शोर से समान नागरिक संहिता की बात करने लगी हैं ?

अब प्रकाश में आया है कि यह तमाम ताकतें महिला अधिकारों और महिला सशक्तिकरण को लेकर काफी मुखर हो रही हैं। यहां पर सवाल उठता है कि अपने व्यवहार में अपनाई जा रही महिला विरोधी मानसिकता का ये तमाम ताकतें क्या करेगी? गीता प्रेस के माध्यम से जिस औरत विरोधी मानसिकता और सोच का प्रचार प्रसार और उसी सोच पर अमल किया जा रहा है, उस पर ये क्या करेंगी ? गीता प्रेस को कुछ दिन पहले गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, जबकि गीता प्रेस का गांधीवादी मूल्यों को आगे बढ़ाने में कोई सरोकार या सहयोग नहीं है।

गीता प्रेस के साहित्य में औरतों को नौकरी ना करने की बात कही गई है, बेटियों को बाप की संपत्ति में हिस्सा न मांगने की नसीहत दी गई है, लड़के लड़की की सहशिक्षा यानी को-एजुकेशन की मनाही जा रही है, दहेज प्रथा की वकालत की जा रही है, औरतों के साथ मारपीट होने पर औरत को विरोध न करने के लिए कहा जा रहा है, औरतों को अपनी परेशानियों को किसी से साझा करने से मना किया जा रहा है, औरतों को पुनर्विवाह की मनाही की जा रही है, औरतों को गर्भपात की मनाही की जा रही है, गर्भपात करने पर स्त्री को त्याग देने की बात की जा रही है, बलात्कार की शिकायत न करने की शिक्षा दी जा रही है।

इस पूरे साहित्य में सती प्रथा का समर्थन किया जा रहा है। गीता प्रेस के साहित्य में सती प्रथा का समर्थन और गुणगान किया गया है कि “हिंदू शास्त्रों के अनुसार सतीत्व परम पुण्य है, स्त्री जाति का यह गौरव, भारत का गौरव है।” औरतों की दशा को सुधारने के लिए भारत के संविधान में और कानून के अनुसार बहुत सारे कानून बनाए गए हैं जैसे हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, हिंदू विवाह अधिनियम, सती प्रथा रोक अधिनियम, दहेज उन्मूलन पर रोक की बात की जा रही है, वेतन भुगतान अधिनियम में समान काम का समान वेतन और स्त्री पुरुष को समान वेतन देने की बात कही गई है, मगर सरकार ने आज तक भी इन कानूनों को पूरी तरह से लागू नहीं किया है और इस प्रकार इन कानूनों के बावजूद भी गीता प्रेस में औरत विरोधी मानसिकता को बरकरार रखने के लिए और मर्दवादी सोच की सर्वोच्चता को बनाए रखने की लगातार बातें की जा रही हैं।

इस औरत विरोधी साहित्य के खिलाफ और इन लेखकों के खिलाफ सरकार के द्वारा कभी कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की गई है। हकीकत यह है कि यह तमाम औरत विरोधी मानसिकता और सोच की साम्प्रदायिक ताकतें, औरत को सिर्फ और सिर्फ गुलाम बनाए रखकर उन्हें मनोरंजन का सामान बनाए रखना चाहती हैं। इनका महिला समस्याओं को निपटाने का कोई इरादा नहीं है। अब समान नागरिक संहिता की बात करके, इस मामले को हिंदू मुसलमान का रूप देकर केवल और केवल हिंदू मुस्लिम की नफरत की सांप्रदायिक मुहिम चलाकर समाज में हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण की मुहिम को जिंदा रखना चाहती हैं ताकि जनता का असली मुद्दों से उनका ध्यान हटाकर वोट हासिल की जा सके और फिर से सत्ता में आरुढ हुआ जा सके। इसके अलावा समान नागरिक संहिता का और कोई मतलब नहीं है।

इस मुहिम के पीछे महिला सशक्तिकरण की बात बेमानी है। इस मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए भारत में दिए गए नीति निर्देशक सिद्धांतों की बात की जा रही है, मगर इस सरकार ने नीति निर्देशक सिद्धांतों को लागू करने के लिए कोई काम नहीं किया है। आज महिलाओं पर सबसे ज्यादा अत्याचार और जुल्मों सितम हो रहे हैं, देश में 5 करोड मुकदमों का अंबार लगा हुआ है, जनता को सस्ता और सुलभ न्याय नहीं दिया गया है, अमीरी और गरीबी की खाई लगातार बढ़ती जा रही है, इस खाई को भरने या पाटने का, इस सरकार द्वारा कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है।

यहां महिला सशक्तिकरण और समान नागरिक संहिता का विरोध करने की कोई बात नहीं है। हम चाहते हैं की विभिन्न धर्मों द्वारा औरतों पर जो पाबंदियां और बंदिशें लगाई गई हैं और उन्हें जिन बहुत सारे मानवाधिकारों से वंचित किया गया है, सारी औरतों को इन सब से आजाद किया जाना चाहिए और उन्हें एक स्वतंत्र व्यक्तित्व मुहैया कराया जाना चाहिए। हमारा जोर देकर कहना है कि यदि सरकार हमारे देश में समान नागरिक संहिता लागू करना चाहती है तो वह इसका एक प्रारूप बनाकर जनता के सामने पेश करे। वह क्या करना चाहती है उसका एक खाका बनाकर राजनीतिक पार्टियों, महिला संगठनों, प्रभावित लोगों और वकीलों को दे और इसे और बेहतर बनाने के लिए, उनके सुझाव मांगे, उनकी राय मांगे। मगर क्योंकि उसे हकीकत में ऐसा कुछ करना नहीं है, अतः वह यह सब करने को तैयार नहीं है। वह केवल दिखावा मात्र के लिए समान नागरिक संहिता की बात कर रही है, हकीकत में वह ऐसा चाहती ही नहीं है।

ये भी पढ़ें:

मगर क्योंकि सरकार ने पिछले नौ सालों में महिला सशक्तिकरण के लिए और समान नागरिक संहिता के लिए कोई काम नहीं किया है और अब सिर्फ जनता का ध्यान हटाने के लिए, मुख्य मुख्य समस्याओं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, बढ़ती अमीरी गरीबी, भ्रष्टाचार, महंगाई, जुमलेबाजी और विभिन्न क्षेत्रों में सरकार की नाकामी, से जनता का ध्यान भटकाने के लिए इस प्रकार की जुमलेबाजी और सिर्फ दिखावा करने की कोशिश की जा रही है ताकि जनता के बीच हिंदू मुस्लिम सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की नफरत की मुहिम को बढ़ाकर, उसे आपस में बांटा जा सके और हिंदू मुसलमान के नाम पर वोट हासिल किए जा सके।

एक बार फिर से शुरू की जा रही और जनता का ध्यान भटकाने वाली साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की नफ़रत बढ़ाने वाली इस मुहिम का, सिर्फ और सिर्फ यही मतलब और मकसद है। आज भारत की जनता को सरकार की इस नई जुमलेबाजी की अगली कड़ी से बचने की और सावधान रहने की सबसे ज्यादा जरूरत है।

ये लेखक के निजी विचार हैं

लेखक: मुनीष त्यागी

About Post Author

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *