धर्म: कौन लड़ेगा बाबा-काबा से?
धर्म: हर धर्म में परिमार्जन की प्रवृत्तियां रही हैं..सनातन हिंदुत्व के बीच ही कई बार कई लोगों ने परिमार्जन किया. बुद्ध वगैरह पर मतभेद हो सकता है, लेकिन वसवन्ना, नानक, कबीर पर कोई मतभेद नहीं होगा. उन्होंने हिंदुत्व को संवारा!
हर संस्था या संगठन से पाखण्ड अथवा मिथ्याचार का एक सम्बन्ध रहता है. जो संस्था जितनी पुरानी है, उसमें उतना ही पाखण्ड. इससे मुक्ति का एक ही उपाय है कि संस्थाओं का निरंतर परिमार्जन होता रहे. जैसे सुथरा बने रहने के लिए नित- निमज्जन अपरिहार्य है, वैसे ही संस्थाओं के लिए सतत परिमार्जन. इसके अभाव में संस्थाएं अश्लील और पुरातन होने लगती हैं. उनकी प्रणवता ( नित नया होने की प्रवृत्ति) का अंत हो जाता है.
भारतीय मनीषा में ईश्वर को प्रणव कहा गया है, तब इसके अर्थ हैं. ईश्वर को थका- हारा और विवश देखना ऋषियों को स्वीकार नहीं था. यह हमारा आध्यात्मिक नजरिया रहा है.
हर धर्म में परिमार्जन की प्रवृत्तियां रही हैं..सनातन हिंदुत्व के बीच ही कई बार कई लोगों ने परिमार्जन किया. बुद्ध वगैरह पर मतभेद हो सकता है, लेकिन वसवन्ना, नानक, कबीर पर कोई मतभेद नहीं होगा. उन्होंने हिंदुत्व को संवारा!
आधुनिक ज़माने में राममोहन राय, विद्यासागर, दयानन्द, जोतिबा फुले, रामकृष्ण, विवेकानंद जैसे लोगों ने इसे संवारा. इस्लाम के बीच सूफीवाद का विकास हुआ. ईसाईयों के बीच प्रोटोस्टेंट आए. इन तमाम सुधार आंदोलनों से धर्मों को नयी ऊर्जा मिली.
लेकिन कुछ लोगों को सनातनता बहुत प्रिय है..इसलिए कि इसमें उनके निहित स्वार्थ सुरक्षित होते हैं. पुराने खोल में जीने का भी अपना आनंद होता है.
आर्कीडिया-विलास का अपना सुख होता है. शहरों के वातानुकूलित कैफेटेरिया में बैठ कर, अमराई और धान के बिचड़े गोड़ती महिलाओं पर कविताएं लिखना लोगों को अच्छा लगता है.
गांव के कीचड-कादो उन्हें उत्साहित करते हैं. लेकिन रहना वे चाहेंगे महानगर में ही!
इसी तरह कुछ लोग तमाम तरह के आधुनिक सरअंजामों -सुविधाओं और विचारों के बीच सनातन का एक स्वांग सजा कर रखना चाहते हैं.
विकास के दौर में पुरानी दुनिया तेजी से छूट रही है, उतनी ही तेजी से उसके प्रति एक नॉस्टेल्जिया विकसित हो रहा है.
हमारे जो लोग विदेशों में हैं, उनके मन में अपने किस्म का एक डायस्पोरा संस्कृति विकसित हो रही है..गंगाजल , हनुमान चालीसा, बाबा, मंत्र, भभूत उन्हें कुछ ज्यादा रोमांचित करते हैं.
हमारे सनातन धर्म को असली ताकत यूरोप के शहरों में बसे हिन्दुओं से मिलती है.
मैं पिछले हप्ते भर से एक बाबा को लेकर कोहराम देख रहा हूँ. मेरे ध्यान जाने का एक कारण यह रहा कि यह कोहराम हमारे नौबतपुर में हो रहा था, जहाँ मेरा बचपन गुजरा है, आरंभिक पढाई -लिखाई हुई है. वह मेरा क़स्बा है.
सुना है लाखों की भीड़ एक बाबा को देखने -सुनने के लिए उमड़ी पड़ी थी.
मीडिया में बाबा की सूरत देखी. युवा -खूबसूरत चेहरा डालडे के डब्बे की तरह चिकना -चुपड़ा. अपने पुराने दिन याद आये जब हम युवा थे. हमारा नौबतपुर स्वामी सहजानंद सरस्वती के किसान आंदोलन का इलाका था.
बगल में बिहटा है, जहाँ स्वामी जी का आश्रम था..हमारे युवा काल में नौबतपुर में मजबूत कम्युनिस्ट पार्टी थी..मैं कम्युनिस्ट पार्टी का अठारह की उम्र होते सदस्य बना था, जब कि मेरे पिता कांग्रेस नेता थे.
याद है हमलोगों ने रामचरितमानस की चार सौवीं जयन्ती समारोह को नहीं आयोजित होने दिया था, जिसके आयोजकों में मेरे पिता भी थे.
हमें अपने नौबतपुर पर थोड़ा गुमान रहता है..वहां जात-पात और संकीर्णता, और जगहों की अपेक्षा बहुत कम थी.
लेकिन उसी नौबतपुर को आज एक बाबा ने अपने कोहराम से रौंद दिया. सुना वहां धूल के बगूले उठ रहे हैं. खाने-पीने की सामग्रियों का अभाव हो गया है. सैंकड़ों लोग भीषण गर्मी से गश खाकर बीमार पड़े हैं.
इन सब के बीच से बाबा का उद्घोष हुआ है कि पांच करोड़ लोग जिस रोज तिलक लगा कर कूच कर जाएंगे, उसी रोज यह भारत हिन्दू राष्ट्र बन जाएगा!
ओह ! बिहार में युवकों को रोजगार नहीं है. किसानों को खाद-पानी- बाजार की सुविधा नहीं है, स्कूल और अस्पताल बदहाल हैं;
लेकिन कुछ लोगों को हिन्दू राष्ट्र की पडी है.
उसमें भी तब, जब हमारे बगल में एक मुस्लिम राष्ट्र में रोटियों के लाले पड़े हैं! वहां जनता तबाह है!राजनीतिक तौर पर अफरा-तफरी की स्थिति है.
क्या हिन्दू भारत मुस्लिम पाकिस्तान का ही प्रतिरूप नहीं होगा?
गांधी-नेहरू -आंबेडकर -पटेल जैसे लोग न होते तो यह पाकिस्तान के साथ ही हिन्दू राष्ट्र बन गया होता!
और अब तक भीख का कटोरा लिए अमीर देशों के दरवाजे पर खड़ा होता,जैसे आज पाकिस्तान है!
बाबाओं और मुल्लाओं के पीछे एक बड़ी साजिश हमेशा रही है. इसे समझा जाना चाहिए.
धार्मिकता और आध्यात्मिकता के औचित्य से इंकार नहीं करता हूँ. बल्कि व्यक्ति स्तर पर मैं थोड़ी रूचि रखता हूँ.
बौद्ध दर्शन के प्रति मेरा आकर्षण है, जिसे मैं हिंदुत्व का ही विकास मानता हूँ.
संस्कृत और पाली -प्राकृत के प्रति भी मेरा वैसा ही आकर्षण है जैसा कुछ लोगों का ग्रीक और लैटिन के प्रति.
लेकिन हर अन्धविश्वास का मैं विरोध करता हूँ, क्योंकि यह हमारी चेतना को बाधित करता है.
धर्म आडम्बर की चीज नहीं, धारण करने की चीज है.
मनुष्यता का पहला धर्म है कि वह अन्य यानी दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार करे.
पारसी लोग धर्म पालन करने में सबसे कट्टर होते हैं.
लेकिन वे अपने होने और दूसरों पर लादने का कोहराम नहीं करते. अपने में डूबे होते हैं.
धर्म चिल्लाने की चीज नहीं है. प्रशांत होने की एक प्राविधि है. अपने में डूबने की एक युक्ति. इसके द्वारा हम अपने अंतर्मन को संवारते हैं. प्रणव होते हैं.
आखिर क्यों हो रहे है मूर्खता के ये महाआयोजन ? कौन है इन सब केलिए जिम्मेदार। हम अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। देश जब आज़ाद हुआ था, तब हमारे यहाँ एक रामराज परिषद् नाम की पार्टी बनी थी 1948 में। करपात्रीजी उसके नेता थे। प्रथम आमचुनाव के बाद संसद में उसके तीन सदस्य थे। सुना था एकबार प्रधानमंत्री नेहरू के रास्ते पर करपात्री जी ने धरना दिया था। लेट गए थे। रुतबा ऐसा था कि पुलिस उन्हें छूने से डर रही थी। नेहरू अपनी कार से उतरे खींच-घसीट कर करपात्री को किनारे लगाया और निकल गए। ऐसे हमारे प्रधानमंत्री थे।
और उन दिनों बुद्धिजीवी -लेखक भी आज की तरह के नहीं थे। करपात्री ने एक किताब लिखी थी – ‘ मार्क्सवाद और रामराज ‘ । तब राहुल सांकृत्यायन थे। उन्होंने इसके जवाब में एक किताब लिखी ‘रामराज और मार्क्सवाद ‘। करपात्री के विचारों और उनके रामराज की अवधारणा की धज्जियाँ उड़ा कर रख दीं। आजकल तो हमारे लेखक इन विषयों पर टिप्पणी करना अपनी तौहीन समझते है।
और राजनेता ! वे बाबाओं के दरबार में हाजिरी लगाएंगे, मजारों पर चादरपोशी करेंगे, सरकारी धन से सरकारी जमीन पर हज भवन बनवाएंगे, सरकारी धन से इफ्तार करेंगे, अरबी टोपी पहिन कर नमाज का स्वांग कर मुसलमानों को रिझाएंगे। ऐसे लोग ही बाबाओं केलिए भी ज़मीन तैयार करते हैं। मुसलमानों को रिझाने केलिए आप करोगे तो कोई हिन्दुओं को रिझाने केलिए करेगा ही। यह सेकुलर चरित्र नहीं है। नेहरू,सुभाष पटेल ने ऐसी नौटंकियां नहीं की थीं। इसीलिए वे लोग हिन्दू महासभा ,आरएसएस और मुस्लिम लीग की मजहबी राजनीति से टकरा सके थे।
देश में वैज्ञानिक चेतना का विकास हो इसकी कोशिश होनी चाहिए। नेहरू इसे साइंटिफिक टेम्परामेंट कहते थे। धर्म -अध्यात्म को भी हम इसी परिदृष्टि से देखें। लोहिया ने पौराणिकता की भी खूबसूरत व्याख्या की थी। उनके चेलों में उसके विकास करने की कुव्वत नहीं हुई। होनी चाहिए थी। नई पीढ़ी को इन सब से सीखना चाहिए। अब तो उन्हीं के हाथों में इस देश का भविष्य है।
लेखक: प्रेमकुमार मणि
लाइव न्यूज अपडेट के लिए हमें फेसबुक पर लाइक करें या ट्विटर पर फॉलो करें. https://rajniti.online/ पर विस्तार से पढ़ें देश की ताजा-तरीन खबरें