प्रेग्नेंसी में स्मार्टफोन का इस्तेमाल करने वाली महिलाएं जरूर पढ़ें!
Women using smartphones during pregnancy must read!
प्रेग्नेंसी के 9 महीनों के दौरान मां अपने मोबाइल, टीवी और कई डिजिटल गैजेट्स के जरिए काम करती है तो अभिमन्यु की तरह बच्चा भी सभी अनुभवों को समेटता हुआ दुनिया में आता है.
यही वजह है कि कुछ दिन पहले भारत आए एप्पल के सीईओ टिम कुक ने इंडियन पेरेंट्स को हिदायत देते हुए कहा कि
“आज के बच्चे डिजिटल एज के बच्चे हैं. उनका स्क्रीन टाइम कम करना जरूरी है. मैं तो कहूंगा कि स्कूलों में भी पढ़ाई का डिजिटलाइजेशन कम किया जाना चाहिए.”
6 साल की उम्र में पहला स्मार्टफोन रखने वाली 74 फीसदी महिलाओं को यंग एज में मानसिक दिक्कतें.
15 मई को यूएस एनजीओ के जरिए सेपियन लैब्स ने भारत सहित 40 से ज्यादा देशों में मोबाइल इस्तेमाल को लेकर एक स्टडी जारी की.
स्टडी में पाया गया है कि एक बच्चे को जितनी जल्दी स्मार्टफोन दिया जाता है, उतनी ही जल्दी उसको मेंटल प्रॉबलम्स का सामना करना पड़ सकता है.
इस मामले में महिलाओं को मानसिक दिक्कतें आने की ज्यादा संभावना है.
नए वैश्विक अध्ययन में 40 से अधिक देशों के 18 से 24 वर्ष की आयु के 27,969 वयस्कों का डेटा एकत्र किया गया, जिसमें भारत के लगभग 4,000 शामिल थे.
बचपन में स्मार्टफोन से लगातार चिपके रहने की वजह से, बच्चों को यंग एज में मानसिक परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है.
स्टडी में पाया गया कि जिनको 6 साल की उम्र में पहला स्मार्टफोन मिल गया था, उनमें से करीब 74% महिलाओं को यंग एज में गंभीर मानसिक समस्याओं का सामना करना पड़ा.
अध्ययन में पाया गया कि जिन लोगों को 18 साल की उम्र में अपना पहला स्मार्टफोन मिला, उनमें से 46% मानसिक रूप से परेशान या संघर्षरत थे.
सबसे कम उम्र में भारतीय बच्चों को मिलता है मोबाइल, किसी भी काम में नहीं लगाते मन.
दुनिया भर में भारतीय बच्चे ऐसे हैं जो कि सबसे कम उम्र में स्मार्ट फोन का इस्तेमाल करना शुरू कर देते हैं.
पिछले साल मई में जारी हुई एक रिपोर्ट यह यह दावा किया गया है। इसके मुताबिक, भारत में कम उम्र के बच्चे मोबाइल फोन का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करते हैं, जिसकी वजह से वे ऑनलाइन रिस्क की चपेट में ज्यादा आते हैं.
रिपोर्ट में बताया गया कि इंटरनेट पर बच्चे साइबर बुलीइंग, डेटा प्राइवेसी, इनफॉर्मेशन लीक जैसी कई तरह की गलत एक्टिविटी की चपेट में भी आ जाते हैं.
भारत में दूसरे देशों के मुकाबले साइबर बुलीइंग के मामले कम उम्र के बच्चों में 5% ज्यादा हैं
इजराइल, इटली के बाद भारत में सबसे सस्ता इंटरनेट, बच्चों के लिए मुफीद.
दुनिया में सबसे सस्ते मोबाइल इंटरनेट डेटा के मामले में भारत तीसरे नंबर पर है. cable.co.uk की 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक इजराइल और इटली के बाद भारत में सबसे सस्ता मोबाइल डेटा मिलता है. भारत में 1 GB इंटरनेट डेटा की कीमत करीब 14 रुपए है. इसके मुकाबले अमेरिका (50 रुपए), जापान (35 रुपए), फ्रांस (20 रुपए) और चीन (36 रुपए) में अधिक कीमत पर डेटा मिलता है.
स्मार्टफोन, इंटरनेट और कॉलिंग रेट सस्ता होने से परिवार बच्चों को मोबाइल फोन पर ज्यादा वक्त बिताने की छूट देता है, जिससे बच्चों का स्क्रीनटाइम बढ़ जाता है.
सस्ते स्मार्टफोन की स्क्रीन ज्यादा खतरनाक
Cable.co.uk की 2021 की स्टडी के मुताबिक, सबसे कम कीमत के मोबाइल भारत में मिल रहे हैं. इसके बाद श्रीलंका, कजाखस्तान, रूस और मिस्र का नंबर आता है.
सस्ते मोबाइल के मानकों को लेकर आईटी एक्सपर्ट दिनेश भट्ट का कहना है कि अभी देश में सस्ते मोबाइल स्क्रीन से निकलने वाली हार्मफुल रेज (Rays) को चेक करने का न तो कोई पैरामीटर है और न ही किसी तरह की गाइडलाइन सरकार की तरफ से दी गई है.
लोकल सर्कल के एक सर्वे में पाया गया कि करीब 55 प्रतिशत बच्चों के पेरेंट यह मानते हैं कि 9 से 13 साल के बच्चे पूरे दिन मोबाइल का इस्तेमाल करते हैं. कभी मम्मी का तो कभी पापा का. अन्य अध्ययनों में भी इसी बात को उजागर किया गया है.
सोते समय फोन देखते हैं 24% बच्चे, उम्र बढ़ने के साथ बढ़ रहा टाइम स्पेंट.
पिछले साल मार्च में इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री राजीव चंद्रशेखर ने संसद में राष्ट्रीय बाल अधिकार सुरक्षा आयोग (NCPCR) की एक स्टडी का हवाला देते हुए बताया था कि देश में करीब 24 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं जो सोने से पहले स्मार्ट फोन देखते हैं.
स्टडी में यह भी पाया गया कि जैसे-जैसे बच्चे की उम्र बढ़ती है तो स्मार्ट फोन को लेकर उसका रुझान और समय भी बढ़ता जा रहा है, जबकि 37 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं जो स्मार्ट फोन के इस्तेमाल की वजह से किसी भी काम पर सही ढंग से फोकस नहीं कर पाते हैं यानी बच्चों की एकाग्रता की क्षमता में लगातार गिरावट आ रही है.
92% को खेल नहीं मोबाइल गेम पसंद, 78% बच्चे मोबाइल देखते हुए खाना खाते.
सौराष्ट्र यूनिवर्सिटी ने राजकोट में एक हजार से ज्यादा बच्चों और पेरेंट पर सर्वे किया जिसमें पाया गया कि 92 प्रतिशत बच्चों ने बाहर खेलने की बजाय मोबाइल पर गेम खेलना ज्यादा पसंद किया. वहीं, 78 प्रतिशत बच्चों में यह आदत पाई गई कि वे खाना खाते वक्त भी मोबाइल देखना चाहते हैं.
सर्वे में यह भी पाया गया कि बच्चों के साइबर एडिक्ट होने की एक बड़ी वजह कोरोना काल में फोन से जुड़े रहना था.
अमेरिकी कंपनी ‘साइबर वर्ल्ड ओरिजनल’ और ‘ए.टी. कियर्नी’ ने दुनिया के दर्जन भर से ज्यादा देशों के एक लाख से ज्यादा लोगों पर एक सर्वे किया. सर्वे में सवाल उठाया गया कि स्कूल से आने के बाद घर पर बच्चे ज्यादातर अपना समय कैसे बिताते हैं?
अधिकांश पेरेंट्स का जवाब था कि बच्चे सीधे मोबाइल फोन पर झपट्टा मारते हैं और यूनिफॉर्म तक नहीं बदलते. घर से बाहर जाकर खेलते समय भी मोबाइल फोन साथ रहता है.
खाना खाते हुए बच्चों का मोबाइल देखना क्यों खतरनाक
सर गंगाराम हॉस्पिटल, नई दिल्ली के पीडियाट्रिशियन डॉ. नीरज गुप्ता ने बताया कि “खाना खाते हुए मोबाइल देखना खतरनाक है. अगर बच्चे का दिमाग मोबाइल स्क्रीन पर लगा हुआ है तो वह खाने की चीजों पर ध्यान नहीं दे पाएगा. बच्चे में कई तरह की दिक्कतें आ सकती हैं-
खाना इधर उधर बिखरेगा जिससे कि बच्चे में खाना खाने की गलत आदतें पनपेंगी.
बच्चे का दम घुट सकता है, सांस लेने में दिक्कत आ सकती है या खांसी आ सकती है.
बच्चे को खाने में स्वाद महसूस नहीं होगा. इस वजह से उसमें हेल्दी फूड हेबिट्स का विकास नहीं होगा.
बच्चे का दिमाग खाने पर फोकस न होने से उसका पेट गड़बड़ रहेगा. खाना ठीक से नहीं पचेगा.
जरूरत से अधिक या कम खाना खा सकता है. इससे मोटापा बढ़ सकता है या कमजोर हो सकता है.
बच्चों के दिमाग में बढ़ रहा डोपामाइन, ड्रग्स की तरह मोबाइल की लत बेहद खतरनाक.
न्यूरो-केमिस्ट्री के मुताबिक, स्मार्ट फोन की स्क्रीन पर ज्यादा समय बिताने से दिमाग को आनंद मिलता है. ऐसे में दिमाग में डोपामाइन केमिकल तेजी से रिलीज होने से अधिक मजा आने लगता है जो धीरे धीरे लत की शक्ल ले लेता है और बच्चे मोबाइल स्क्रीन से नजर हटाने का नाम नहीं लेते.
अगर छोटी उम्र में डोपामाइन का लेवल हाई हो जाता है तो बच्चे का ध्यान बंटता है. किसी काम में उसका मन नहीं लगेगा.
अगर डोपामाइन का लेवल शरीर में कम है, तो वह फुर्तीला नहीं रहेगा. आलस और उदासी बढ़ेगी. याददाश्त भी कमजोर हो सकती है.
दिल्ली में न्यूरो फिजीशियन डॉक्टर मनीष गुप्ता का कहना है कि “बेहद कम उम्र में ही बच्चों को मोबाइल स्क्रीन की आदत उनकी याददाश्त के लिए खतरनाक साबित होती है. वे किसी भी बात को जल्दी भूलने लगते हैं जिसका असर उनकी पढ़ाई पर भी पड़ता है.”
‘डोपामाइन’ नाम से किताब लिख चुकीं और स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में साइकेट्री की प्रोफेसर डॉ. अन्ना लेम्बके का कहना है कि “स्मार्टफोन अपने आप में नशे की दवा पीने जैसा है. इसका असर किसी ड्रग के इंजेक्शन जैसा है जिसके हम आदी होते जा रहे हैं और हमारी सेहत पर बुरा असर पड़ रहा है.”
बच्चों को स्मार्टफोन बनाता है इमोशनली कमजोर और आक्रामक.
दिल्ली में चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट डॉक्टर ऋचा सिंह के मुताबिक, “स्मार्ट फोन की लत से बच्चे हकीकत की दुनिया से कटते हैं. जब उनकी यह आदत बदलने की कोशिश की जाती है तो वो चिड़चिड़े, आक्रामक और कुंठित हो जाते हैं. हमारे पास ऐसे केस भी आते हैं कि बच्चे अपने फेवरेट कार्टून कैरेक्टर जैसी हरकतें करने लगते हैं. इस वजह से उनके दिमागी विकास में रुकावट आती है. जो बच्चे मोबाइल का इस्तेमाल गेम्स खेलने के लिए ज्यादा करते हैं, वे इमोशनली कमजोर होते जाते हैं. हिंसक गेम्स बच्चों को एग्रेसिव बनाते हैं.”
स्मार्ट फोन के ज्यादा इस्तेमाल से चीजें भूलने लगते हैं बच्चे
स्मार्ट फोन देख रहे बच्चे को अगर फोन न दिया जाए तो वह गुस्सा जाहिर करने लगता है. दिमाग में जरूरत से ज्यादा गैरजरूरी सूचनाएं बच्चे की दिमागी सेहत पर भी बुरा असर डालती हैं.
बच्चों के इस तरह के बिहेवियर पर दिल्ली एम्स में सेवाएं दे चुके डॉ. रविकांत चतुर्वेदी कहते हैं कि “बच्चे का दिमाग मोबाइल रेडिएशन की वजह से पूरी तरह विकसित नहीं हो पाता. इससे बच्चे में चिड़चिड़ापन, कॉर्निया डिसफंक्शन जैसी दिक्कतें दिखने लगती हैं. उसे ब्रेन ट्यूमर भी हो सकता है.”
मोबाइल की रोशनी आंखों के अंदरूनी हिस्सों को डेवलप नहीं होने देती.
पिछले साल केंद्रीय स्वास्थ्य विभाग ने एक सर्वे में छत्तीसगढ़ में 11 हजार स्कूलों के 3.44 लाख बच्चों की आंखों की जांच की. सर्वे में पाया गया कि 100 में से चार बच्चों की आंखों की रोशनी कम हो गई है. छत्तीसगढ़ नोडल अधिकारी डॉ. सुभाष मिश्रा के मुताबिक, “अधिक देर तक मोबाइल का इस्तेमाल बच्चों की आंखों के लिए नुकसानदेह साबित हो रहा है. उनकी आंखें कमजोर हो रही हैं.”
डॉ. नीरज गुप्ता के मुताबिक, बच्चे की आंखों के अंदरूनी हिस्से मोबाइल स्क्रीन से निकलने वाले रेडिएशन की वजह से अच्छी तरह से डेवलप नहीं हो पाते.
बच्चे स्क्रीन को आंखों के करीब ले जाते हैं, जिससे आंखों को ज्यादा नुकसान पहुंचने लगता है. आंखें सीधे प्रभावित होने से बच्चों को आंखों में जलन और सूखापन, थकान, सिरदर्द और कम उम्र में चश्मा लगने जैसी दिक्कतें हो रही हैं. स्मार्टफोन चलाने के दौरान बच्चे पलकें कम झपकाते हैं. इससे कंप्यूटर विजन सिंड्रोम की समस्या पैदा होती है.
डिजिटल दुनिया की लत बेहद खराब, ‘डिजिटल डिटॉक्स’ विकल्प
जरूरत से ज्यादा डिजिटल चीजों का इस्तेमाल एडिक्शन की तरफ ले जा रहा है. ऐसे में बच्चों को डिजिटल संस्कार देने से पहले माता-पिता खुद को डिजिटल डिटॉक्स (Digital Detox) करें.
दरअसल, स्मार्टफोन, टीवी स्क्रीन और वर्चुअल वर्ल्ड से पूरी तरह दूरी बनाने को ही डिजिटल डिटॉक्स कहते हैं.
डिजिटल डिटॉक्स ऐसे करें माता-पिता-
- डिजिटल स्क्रीन से हर आधे घंटे बाद 5-10 मिनट का ब्रेक लें.
- सोते वक्त मोबाइल फोन को “डू नॉट डिस्टर्ब मोड” में कर दें.
- हर दो घंटे में कुछ ऐसा करने का नियम बनाएं जो डिजिटल न हो.
- काम के बाद फोन स्विच ऑफ कर दें.
- टहलते वक्त अपना फोन या स्मार्टवॉच साथ लेने से बचें.
- स्क्रीन टाइम को वर्कआउट और सोशल नेटवर्किंग के साथ संतुलित करें
[9:37 AM, 5/17/2023] BM Prasad Ji: बिहार में बागेश्वर बाबा का जलवा देखकर मुझे लगा इसका कुछ यूट्यूब सुनना चाहिए. चार-पांच यूट्यूब पर इनको थोड़ा-बहुत देखा और सुना. माथा भन्ना गया. चिढ़चिढ़ा गया. बर्दाश्त करना मुश्किल!
न इनके पास कोई भाषा है और न शैली, अंतर्वस्तु की तो बात ही छोड़िये!
आध्यात्मिक व्यक्ति की पहचान भाषा से होती है. आप परमहंस रामकृष्ण वचनामृत के तीनों खंड पढ़िये या विवेकानंद के दस खंड. आपके भीतर एक विद्युत संचार सा अनुभव होगा.
रामकृष्ण परमहंस की भाषा तो विवेकानंद से भी गहरी है. ऐसी संवेदनशीलता जैसे दूब पर अटकी भोर के ओस की बूंदे!
कहा जाता है कि जब कोई पैदल उन दूंबों पर से आता तो परमहंस जी विह्वल हो जाते. वे मना करते.
अगर यह न पढ़ सके तो कम से कम रोमां रोला की लिखी तीन जीवनियां रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद और महात्मा गांधी को तो जरूर ही पढ़िये.
जां क्रिस्तोफ जैसी अमर कृति रचने वाले इस फ्रेंच के महान् लेखक ने जिस सूक्ष्मता और तटस्थता से बिना विगलित रूप में प्रभावित हुए, इन तीनों को देखा है, वह चमत्कृत करने वाला है.
इन तीनों की ऐसी पहचान और समझ पैदा कर देता है, जो खुद आपको ही आश्चर्य होने लगताहै.
यही अहसास भारत पर गाय सर्मन को पढ़कर होता है.
उस देश में ऐसे लकड़सुंघवा के पीछे पढ़े लिखे प्रोफेसरों तक का जब लगाव देखता हूँ, तो चिंता होती है और गुस्सा भी आता है.
हम हीरा घर में रखकर बाहर पत्थर चुन रहे हैं.
ऐसे बाबाओं का तो सारा कुछ ज़ब्त कर कहना चाहिए कि तुम उन संतो की तरह, बिना साधन के दो साल जी कर दिखाओं.
मेरा दावा है इनको सितुहा भर भी आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं है. ये सब देश और समाज को बहुत पीछे ले जाते हैं. इस क्षेत्र के महान व्यक्तित्व को और उन पर लिखे उत्कृष्ट साहित्य को पढ़ना चाहिए.
ये सब तो धर्म के व्यापारी हैं!
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लेखक : कारमेंदु शिशिर
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