पूर्वांचल एक्सप्रेस वे बचाएगा योगी की कुर्सी ?… आंकड़े जान लीजिए चुनाव में काम आएंगे

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पूर्वांचल एक्सप्रेस वे का उद्घाटन हो गया है और अब लखनऊ से गाजीपुर तक आप इस एक्सप्रेस वे पर फर्राटा भर सकते हैं लेकिन क्या योगी आदित्यनाथ की गाड़ी 2022 में फर्राटा भरेगी? इस सवाल का जवाब इतनी आसानी से मिलने वाला नहीं है.

पूर्वांचल एक्सप्रेस वे से पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों की जिंदगी आसान होगी इसमें कोई शक नहीं और इस पर भी कोई प्रश्नचिन्ह नहीं है कि इस एक्सप्रेस वे की सोच पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के विजन का नतीजा है. लेकिन 16 नवंबर 2021 को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस एक्सप्रेस वे का उद्घाटन किया तो अखिलेश यादव का जिक्र कहीं नहीं था. इसीलिए समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने और खुद अखिलेश यादव ने ट्वीट के माध्यम से लोगों को यह बताने की कोशिश की कि यह एक्सप्रेसवे समाजवादी पार्टी की सरकार के दौरान जमीन पर उतारा गया था.

पूर्वांचल एक्सप्रेस वे का चुनावी महत्व

पूर्वांचल में उत्तर प्रदेश विधानसभा की करीब 160 सीटें हैं. आंकड़ा इतना है कि किसी को भी सीएम की कुर्सी तक पहुंचा सकता है और सीएम की कुर्सी से उतार सकता है. 2007 के विधानसभा चुनाव में इस इलाक़े में बीएसपी ने सबसे ज़्यादा सीटें जीतीं और सरकार बनाई. 2012 में समाजवादी पार्टी ने इनमें से तकरीबन सौ से ज़्यादा सीटें जीतीं और अखिलेश सत्ता में आए. 2017 में इस इलाक़े में बीजेपी को लगभग 115 सीटें मिलीं और योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. यानी पूर्वांचल में इतनी ताकत है कि वह सूबे का चुनावी गणित बदल सकता है. और इसीलिए पूर्वांचल एक्सप्रेस वे का महत्व बढ़ जाता है.

पूर्वांचल एक्सप्रेसवे 341 किलोमीटर लंबा है और उत्तर प्रदेश के नौ ज़िलों लखनऊ, बाराबंकी, अमेठी, अयोध्या, आंबेडकर नगर, सुल्तानपुर, मऊ, आजमगढ़ और ग़ाज़ीपुर को जोड़ता है. यहां एक और तथ्य आपको जान लेना चाहिए कि एक्सप्रेसवे, सेंट्रल उत्तर प्रदेश के ज़्यादातर ज़िलों को जोड़ता है.  इनमें से तीन ज़िले ही हैं जो पूर्वांचल मेन में आते हैं – मऊ,आजमगढ़ और ग़ाज़ीपुर. ये तीन ज़िले ऐसे हैं, जो पिछले चुनाव में लहर के बावजूद बीजेपी साध नहीं पाई थी. इन तीनों ज़िलों में समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन भी अच्छा रहता है.

एक्सप्रेस वे से नहीं जीत सकते चुनाव

पूर्वांचल की राजनीति पर भारी पकड़ रखने वाले जानकार कहते हैं एक एक्सप्रेसवे से आप इस इलाके की राजनीति को नहीं साध सकते. क्योंकि अगर ऐसा होता तो 2017 में अखिलेश यादव दोबारा से सीएम बन गए होते. अखिलेश यादव भी आगरा एक्सप्रेसवे बना कर वहाँ की सभी सीटें जीत लेते. लेकिन 2017 में ऐसा नहीं हुआ. आगरा एक्सप्रेसवे जिस इटावा- मैनपुरी के इलाक़े को जोड़ता है, वो समाजवादियों का गढ़ भी माना जाता है. उस गढ़ में एक्सप्रेसवे बना कर भी 2012 का प्रदर्शन 2017 में सपा दोहरा नहीं पाई. उनकी पार्टी केवल 49 सीट ही जीत पाई.

लेकिन बीजेपी दूसरे गणित पर काम कर रही है. बीजेपी को लगता है कि 2022 में उसका प्रदर्शन सुधर सकता है. 90 के दशक में जब मंदिर लहर थी, उस वक़्त भी बीजेपी को पूर्वांचल में केवल 82 सीटें ही मिली थीं. लेकिन 2017 में 115 सीटों पर कामयाबी मिली. बीजेपी अपनी उस पकड़ को इस एक्सप्रेसवे के ज़रिए बनाए रखना चाहती है. वहीं दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी की कोशिश है कि वह छोटे दलों और छोटी जातियों को साध कर पूर्वांचल के समीकरण को अपने पक्ष में कर सके.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश से उलट पूर्वांचल में छोटी-छोटी जातियों की बड़ी तादाद है. 12-14 जातियाँ ऐसी है, जो सीधे-सीधे चुनाव को प्रभावित कर सकती हैं. जैसे मल्लाह, राजभर, यादव, कुर्मी, प्रजापति आते हैं. इस वजह से बीजेपी और समाजवादी पार्टी दोनों की रणनीति इन जातियों को अपने खेमे में करने की है.

बीजेपी भी कर रही जातियों की खेमे बंदी

बीजेपी अलग-अलग जातियों के छोटे-छोटे 32 सम्मेलन करके उन्हें साधने में जुटी है. इनमें से तक़रीबन दो दर्ज़न सम्मेलन हो भी चुके हैं. उसी क्रम में कैबिनेट विस्तार से लेकर गठबंधन तक में बीजेपी का फोकस इसी जातिगत समीकरण को साधने में रहा. बीजेपी ने 2022 का विधानसभा चुनाव निषाद पार्टी के साथ मिल कर लड़ने का एलान किया है. कुल मिला कर देखें तो पूर्वांचल में दलितों के साथ-साथ अति पिछड़ी जातियों को अपने खेमें में करने की लड़ाई चल रही है. इनमें बीजेपी ने पिछले चुनाव में ठीक-ठाक अपनी पैठ बना ली थी. अब समाजवादी पार्टी ने बीजेपी का वो गेमप्लान समझ लिया है और कड़ी टक्कर देने के लिए मैदान में कूद पड़ी है. और यह लग रहा है कि इस इलाके में मुख्य मुकाबला सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी और मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के बीच होगा.

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