औजार से निजी संपत्ति और फिर शोषण की व्यवस्था का उदय

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ज्यों-ज्यों उत्पादन के औजारों में गुणात्मक परिवर्तन होता गया, त्यों-त्यों समाज भी गुणात्मक रूप से बदलने लगा.

उदाहरण के तौर पर, जैसे- कोई बंदर किसी फल पर हाथ लपकाया, उसे फल नहीं मिला तो वह चला गया, कोई आदिम मनुष्य भी फल पर हाथ लपकाया, फल नहीं मिलता तो वह भी चला गया तो आदमी और बंदर में कोई गुणात्मक फर्क नहीं रहा, लेकिन जब मनुष्य के विकास की ऐसी परिस्थिति बनी, कि बन्दर ने हाथ लपकाया और फल नहीं मिला तो वह चला गया, मगर आदमी ने हाथ लपकाया फल नहीं मिला तो उसने डंडा उठा लिया!


यह जो डंडा उठा लेने का काम है, यह मनुष्य को बंदरों समेत सारे जंगली जानवरों से अलग करता है, अर्थात उत्पादन के औजारों का इस्तेमाल करने से ही मनुष्य अन्य जानवरों से अलग होता गया!

मानव समाज उत्पादन की समस्याओं का समाधान करने के लिए उत्पादन के औजारों में सतत विकास करता रहा है, जैसे किसी ऊंचे पेड़ पर लगा हुआ फल नहीं मिला तो डंडा उठा लिया, तो डंडा उसका पहला औजार हो गया, कालांतर में डंडे के एक सिरे पर गोल पत्थर बांध दिया तो पत्थर का गदा हो गया, पत्थर को लंबा और नुकीला कर के डंडे के सिरे पर बांध दिया तो पत्थर का भाला हो गया, पत्थर को चपटा और धारदार बनाकर डंडे के एक सिरे पर बांध दिया तो पत्थर की कुल्हाड़ी हो गई, परंतु कालान्तर में डंडे को मोड़ दिया तो ऐसा क्या हो गया कि उसका कबीला टूट गया?

यह हैरान करने वाली बात है- ‘आखिर डंडे को मोड़ने से कबीला कैसे टूट सकता है?’

लेकिन हैरान होने की जरूरत नहीं है. डंडे को मोड़ देने से वह डंडा धनुष का रूप ले लेता है, जो गुणात्मक रूप से पिछले सभी औजारों से अलग होता है, धनुष के पहले अन्य जितने भी औजार हुए, उनसे शिकार करने के लिए चक्रव्यूह बनाना पड़ता है. चक्रव्यूह बनाने के लिए कई दर्जन आदमियों को चक्करदार घेरे में मोर्चा संभाल कर घेरेबंदी करना पड़ता है, तब कहीं वे अपने शिकार को मारने में कामयाब हो पाते थे.

धनुष के अतिरिक्त अन्य छोटे औजारों से शिकार को मारने के लिए शिकार के पीछे-पीछे भागना पड़ता था, शिकार जैसे-जैसे भागता है वैसे-वैसे मनुष्य को भी अपने शिकार को मारने के लिए भागना पड़ता है, परंतु धनुष उस समय के अन्य सभी औजारों से इस मामले में भिन्न था कि एक अकेला आदमी, भागते हुए शिकार को धनुष के प्रयोग से बैठे-बैठे ही मार सकता था!

इस प्रकार धनुष के आ जाने से उत्पादन में भारी वृद्धि हो गयी, जिससे भारी बचत होने लगी.

बचत तो इसके पहले भी होती थी परंतु तब बचत बहुत कम होती थी कम बचत होती थी तो विनिमय भी बहुत कम होता था, परन्तु धनुष के आ जाने से पैदावार में बढ़ोत्तरी हुई. पैदावार बढ़ने से बचत में बढ़ोत्तरी हो गई.

बचत बढ़ी तो अदला-बदली अर्थात विनिमय भी बढ़ता गया…

विनिमय के बढ़ते जाने से एक नई समस्या आ गई, वो यह कि संपत्ति साझा थी, अत: संपत्ति को बेचने के लिए पूरे कबीले की राय ली जाती थी और जो खरीदने वाला कबीला होता था वहां भी पूरे कबीले की पंचायत बुलाई जाती थी. उस पंचायत में तय होता था कि कितना दिया जाए तथा कितना लिया जाय.

बचत बढ़ने से विनिमय में भी बढ़ोत्तरी होती गयी. बार-बार विनिमय अथवा अदला-बदली के लिए पूरे कबीले की पंचायत बुलाना बहुत कठिन और खर्चीला होता गया.

इस प्रकार साझी सम्पत्ति को खरीदने और बेचने का फैसला करना बहुत कठिन होता गया!

जब सामूहिक संपत्ति को बेचना और खरीदना (विनिमय) दोनों ही मुश्किल होता जा रहा था तब निजी संपत्ति आवश्यक हो गई!!

मगर कबीले में निजी संपत्ति का ज्ञान नहीं था, उन लोगों ने विचार किया होगा कि जिस तरीके से छोटी-मोटी चीजें के मामले में कबीले से पूछे बगैर आपस में अदला-बदली कर लिया करते हैं; (मिशाल के तौर पर- राम के पास एक सेब है और श्याम के पास एक अमरूद है, राम ने श्याम को सेब देकर उससे अमरुद ले लिया, तो इतनी छोटी चीज के लिये पूरे कबीले के लोगों की पंचायत नहीं बुलाना पड़ता था.

इससे लोगों ने सीखा कि जिस तरह से एक कबीले के भीतर छोटी-मोटी चीजें, बगैर कबीले की पंचायत बुलाये ही आदान प्रदान कर लिया जाता है, इसी तरह बड़ी-बड़ी सम्पत्तियों का भी व्यक्तिगत रूप से आदान-प्रदान हो जाता तो विनिमय बहुत आसान हो जाता!

यहीं से उनकी समझ में यह विकास होता है कि जिस तरीके से हम छोटी-मोटी चीजों को व्यक्तिगत निर्णय के जरिए खरीद और बेच लेते हैं, उसी तरीके से कबीले के बाग-बगीचे, पशु, अनाज, आदि सभी चीजें यदि निजी होती तो उनकी अदला-बदली अर्थात विनिमय कर सकते हैं.

कुछ इस प्रकार की हालात में निजी संपत्ति अस्तित्व में आया!

निजी संपत्ति के आने से निजी बीवी, निजी बीवी से निजी बच्चे इस प्रकार कबीला टूट जाता है और उसकी जगह पर कई परिवार बन जाते हैं!

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, समान्य जन (शूद्र) के रूप में श्रम विभाजन तो क़बीलाई दौर की शुरुआत में ही हो चुका था, परन्तु उस समाज में शोषक और शोषित नहीं थे, सभी बराबर थे, मगर धनुष ने श्रम विभाजन को निजी सम्पत्ति पर आधारित कर दिया, जिससे शोषक और शोषित दो वर्गों की उत्पत्ति हुई, और पुराना वर्ग विहीन समाज टूट गया.

इस नये समाज में जो सम्पत्तिविहीन होता है, उससे काम लिया जाता है!

रजनीश भारती, राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा उ. प्र.

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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