बैंक हड़ताल की वजह से आम लोगों को परेशानी हो रही है लेकिन हमें यह समझने की जरूरत है कि सरकार सरकारी बैंकों का निजीकरण क्यों करना चाहती है?
सोमवार और मंगलवार को बैंक के 1000000 कर्मचारी हड़ताल पर हैं. हड़ताल का कारण है सरकारी बैंकों का निजीकरण…लेकिन सवाल यह है कि आखिर सरकार निजीकरण करना क्यों चाहती है. देश के सबसे बड़े बैंक कर्मचारी संगठन यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियंस ने हड़ताल का आह्वान किया है. फोरम में भारत के बैंक कर्मचारियों और अफसरों के नौ संगठन शामिल हैं.
बैंक हड़ताल की सबसे बड़ी वजह
हड़ताल की सबसे बड़ी वजह सरकार का एलान है कि वो आईडीबीआई बैंक के अलावा दो और सरकारी बैंकों का निजीकरण करने जा रही है. बैंक यूनियनें निजीकरण का विरोध कर रही हैं. उनका कहना है कि जब सरकारी बैंकों को मज़बूत करके अर्थव्यवस्था में तेज़ी लाने की ज़िम्मेदारी सौंपने की ज़रूरत है उस वक़्त सरकार एकदम उलटे रास्ते पर चल रही है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट में एलान के बाद से ही बैंक कर्मी सरकार की निजी करण की नीति से खफा चल रहे हैं. ऐसी चर्चा ज़ोरों पर है कि सरकार चार बैंक बेचने की तैयारी कर रही है. इनमें बैंक ऑफ महाराष्ट्र, बैंक ऑफ इंडिया, इंडियन ओवरसीज़ बैंक और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के नाम लिए जा रहे हैं. इन चार बैंकों के लगभग एक लाख तीस हज़ार कर्मचारियों के साथ ही दूसरे सरकारी बैंकों में भी इस चर्चा से खलबली मची हुई है.
सरकारी बैंक बने सरकार के लिए बोझ
बैंक हड़ताल क्या सरकार की मंशा को बदल पाएगी यह प्रश्न इसलिए जरूरी है क्योंकि सरकारी बैंक सरकार के लिए बोझ बन गए हैं. पिछले तीन सालों में ही सरकार बैंकों में डेढ़ लाख करोड़ रुपए की पूंजी डाल चुकी है और एक लाख करोड़ से ज़्यादा की रक़म रीकैपिटलाइजेशन बॉंड के ज़रिए भी दी गई है. अब सरकार की मंशा साफ़ है. वो एक लंबी योजना पर काम कर रही है जिसके तहत पिछले कुछ सालों में सरकारी बैंकों की गिनती 28 से कम करके 12 तक पहुंचा दी गई है. इनको भी वो और तेज़ी से घटाना चाहती है. कुछ कमज़ोर बैंकों को दूसरे बड़े बैंकों के साथ मिला दिया जाए और बाक़ी को बेच दिया जाए. यही फॉर्मूला है. इससे सरकार को बार-बार बैंकों में पूंजी डालकर उनकी सेहत सुधारने की चिंता से मुक्ति मिल जाएगी. ऐसा विचार पहली बार नहीं आया है. पिछले बीस साल में कई बार इस पर चर्चा हुई है.लेकिन पक्ष विपक्ष के तर्कों में मामला अटका रहा.
निजीकरण से किसका फायदा?
भारत में निजी और सरकारी बैंकों की तरक्क़ी की रफ़्तार का मुक़ाबला करें तो साफ़ दिखता है कि निजी बैंकों ने क़रीब क़रीब हर मोर्चे पर सरकारी बैंकों को पीछे छोड़ रखा है. इसकी वजह इन बैंकों के भीतर भी देखी जा सकती है और इन बैंकों के साथ सरकार के रिश्तों में भी. और यह साफ़ है कि बैंकों के निजीकरण से तकलीफ़ तो होगी लेकिन फिर इन बैंकों को अपनी शर्तों पर काम करने की आज़ादी भी मिल जाएगी. लेकिन बैंक कर्मचारी और अधिकारी इस तर्क को पूरी तरह बेबुनियाद मानते हैं. उनका कहना है कि बैंक राष्ट्रीयकरण के समय ही साफ़ था कि प्राइवेट बैंक देश हित की नहीं अपने मालिक के हित की ही परवाह करते हैं. इसीलिए यह फ़ैसला न सिर्फ़ कर्मचारियों के लिए बल्कि पूरे देश के लिए ख़तरनाक है.
बैंक हड़ताल का असर
बैंक यूनियनों ने निजीकरण के फ़ैसले के ख़िलाफ़ लंबे प्रतिरोध का कार्यक्रम बनाया हुआ है. उनका यह भी आरोप है कि डूबे क़र्ज़ों की वसूली के लिए कठोर क़ानूनी कार्रवाई करने की जगह आईबीसी जैसे क़ानून बनाना भी एक बड़ी साज़िश का हिस्सा है. क्योंकि इसमें आख़िरकार सरकारी बैंकों को अपने क़र्ज़ पर हेयरकट लेने यानी मूल से भी कम रक़म लेकर मामला ख़त्म करने को राज़ी होना पड़ता है. यूनाइटेड फोरम में शामिल यूनियनों के सभी कर्मचारी और अधिकारी सोमवार और मंगलवार को हड़ताल पर रहेंगे. इससे पहले शुक्रवार को महाशिवरात्रि, शनिवार को दूसरे शनिवार और रविवार की छुट्टी थी. यानी पूरे पाँच दिन बैंकों में कामकाज़ बंद. हालांकि प्राइवेट बैंकों में हड़ताल नहीं होगी लेकिन अभी तक कुल बैंकिंग कारोबार का एक तिहाई हिस्सा ही उनके पास है यानी दो तिहाई कामकाज़ पर असर पड़ सकता है.
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