हमारे अंदर का आदमी, मर तो नहीं गया
आसमान से कोई नहीं टपकता… इसी समाज का हिस्सा होता है…
इवेंट मैनेजर… हिप्पोक्रेट.. वगैरह वगैरह जैसे तमगों से नवाज आप किसी व्यक्ति विशेष को टार्गेट कर सकते हैं… मगर वह तो इस बात की तस्दीक कर रहा है कि सिर्फ सैंपल भर है… यह वैरायटी आपको थोक के भाव में अपने इर्द गिर्द या आपके अंदर भी मिल जाएगी… किसी की भी मौत लोगों को गहरा घाव दे जाती है… अगर वह मनुष्य है तो… शायद इसीलिए इसमें खबर का फ्लेवर होता है… इसके लिए उस व्यक्ति को जानना कत्तई जरूरी नहीं है… सोशल मीडिया ने सूचना के दायरे में विस्तार भी कर दिया है…. संवेदना मनुष्य की बपौती भी नहीं है… छटाक भर कम या ज्यादा… अन्य प्राणियों में भी यह सहज सुलभ है… भले वह वक्त के साथ स्मृतियों के किसी कोने में दुबक जाए… या फिर पुराने अखबार की तरह टेबल पर धूल गर्द के नीचे ओझल हो जाए…
Also read:
- सिलिकॉन वैली पहुँचा JOIST, वैश्विक संबंधों को विस्तार देने की कोशिश!
- क्या खत्म हो गई है पीएम मोदी और ट्रम्प की दोस्ती?
- मुश्किल में बीजेपी नेता विकास गर्ग, गाज़ियाबाद कोर्ट ने कहा- “दोबारा जाँच करके रिपोर्ट पेश करे पुलिस” जानिए क्या है पूरा मामला?
- क्या है लॉकबिट जिसने पूरी दुनिया में तबाही मचा रखी है?
- शिवपाल सिंह यादव को अखिलेश ने दी मुश्किल मोर्चे की जिम्मेदारी, जानिए बदायूं से क्यों लाड़वा रहे हैं लोकसभा चुनाव?
कल आगरा के वरिष्ठ पत्रकार पंकज कुलश्रेष्ठ और शशिभूषण द्विवेदी की मौत कहीं न कहीं कचोट गई… Yogesh Tripathi और अन्य मित्रों की पोस्ट पढ़ हतप्रभ था… नांदेड़ में मालगाड़ी ने घर लौट रहे 16 मजदूरों की जान ले ली… सुबह जब Ravish Kumar की पोस्ट से जाना तो स्तब्ध रह गया…
यह दीगर बात है कि मेरी रोजी रोटी पत्रकारिता रही है… अभ्यस्त या ढीठ हो चुका हूं इस तरह की सूचनाओं के लिए… मगर कहीं न कहीं तो वेधता है ही… करोड़ों लोगों को इस हादसे से मेरी तरह ही दुख हुआ होगा… और इस स्वतः स्फूर्त प्रतिक्रिया के लिए कत्तई आवश्यक नहीं है कि आप उन मजदूरों या शब्दजीवियों को व्यक्तिगत तौर पर जानते ही हों… इसके लिए मात्र मनुष्य होना ही शायद पर्याप्त है…
मगर शायद पत्रकार होने के चलते ही कई और बातें भी कचोटती हैं… टीवी मैं नहीं देखता… हां, न्यूज पोर्टलों से जरूर जुड़ा रहता हूं… पत्रकारों द्वारा लगाई गई हेडिंग और कंटेंट भी यह तय करता है कि उनके अंदर का ‘आदमी’ जीवित है या खबर के पहले वह भी मर गया… कारण, आज भी कहीं मैं अपने रोल मॉडल सुरेंद्र प्रताप सिंह की चर्चा सुनता हूं तो मुझे मेट्रो चैनल पर आजतक का उपहार सिनेमा हॉल हादसा वाला बुलेटिन याद आ जाता है….
और यही बात साहित्यकारों पर भी मेरी समझ से अक्षरश: लागू होती होगी… चाहे आप कितने भी वरिष्ठ, गरिष्ठ या बलिष्ठ हो…. और उसके जवाब में गाली गलौज इस बात की तस्दीक करता है कि हमारे अंदर ट्रोल आर्मी या आईटी सेल का वायरस पैठ बना चुका है… इसके लिए हमें खुद को खुद ही कोरेंटाइन करना पड़ेगा… क्योंकि इसके लिए कोई पुलिस हमें ढूंढती हुई नहीं आएगी…
(ये लेखक के निजी विचार हैं)