क्या दाल जैसी मामूली चीज़ नोबेल प्राइज़ दिला सकती है?
अभिजीत बनर्जी और उनकी पत्नी एस्टेयर ड्यूफ़्लो को अर्थशास्त्र का नोबेल मिला है. इन दोनों ने गरीबी मिटाने के लिए जो कोशिशें की उसकी वजह से उन्हें ये सम्मान मिला है. लेकिन नोबेल प्राइज मिलने के पीछे की कहानी बड़ी दिलचस्प है.
अभिजीत बनर्जी के मुताबिक उन्होंने गरीबी को टुकड़ों में तोड़कर उसे खत्म करने की तरकीबों पर ध्यान दिया. उनका कहना है कि गरीबी पर बड़ी बड़ी बातें करने से कुछ नहीं होता बल्कि गरीबी की समस्या को सुलझाने के लिए उसे टुकड़ों में तोड़ना जरूरी है.
अभिजीत और उनकी पत्नी ने गरीबी को दूर करने के लिए शिक्षा, पोषण और टीकाकरण जैसे कामों पर ध्यान देने पर जोर दिया. उनके ग़रीबों को थोड़ी मदद दी जाए तो ऐसे कार्यक्रमों की सफलता की दर बढ़ जाएगी और ग़रीबी उन्मूलन की दिशा में छोटे-छोटे हज़ारों लाखों काम करने की ज़रूरत है, न कि बड़ी-बड़ी बहसों की. अब आप ये ग्राफिक्स देखिए. ये नोबेल समिति की वेबसाइट पर प्रकाशित किया गया है.
इस ग्राफिक्स को देखकर आप समझ पाएंगे कि अभिजीती और उनकी पत्नी एस्टेयर ने गरीबी को खत्म करने के लिए क्या किया. दरअसल अर्थशास्त्रियों ने दाल जैसी मामूली चीज के जरिए टीकाकरण की एक परियोजना को कामयाब बनाया. अब आप सोच रहे होंगे कि दाल से टीकाकरण परियोजना का क्या ताल्लुक. तो चलिए आपको बता दें कि. एस्टेयर ड्यूफ़्लो बताती है कि राजस्थान में बच्चों के टीकाकरण की दर बहुत कम है. यहां शोध के जरिए पता चला कि यहां पूरी तरह इम्युनाइज़्ड बच्चों की तादाद पांच प्रतिशत के क़रीब थी.
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जब इससे पीछे की वजह जानने की कोशिश की गई तो पता चला कि बच्चों तक इम्युनाइज़ेशन करने वाले कर्मचारी लोगों तक पहुंच नहीं पा रहे हैं. बच्चों का टीकाकरण करने में बहुत परेशानी हो रही थी. इस समस्या का तोड़ निकालने के लिए दाल का इस्तेमाल किया गया. अर्थशास्त्रियों ने एक स्वयंसेवी संस्था सेवा मंदिर की मदद ले और लाटरी के जरिए 120 गांवों का चयन किया. इसके बाद इन गांव को लाटरी के जरिए तीन कैटेगरी में बांट दिया गया. पहली श्रेणी में वे गांव थे जहां लोगों से स्वास्थ्य केंद्र में जाकर टीके लगवाने को कहा गया. दूसरी श्रेणी में ऐसे गांव थे जहां टीका लगाने वाली मोबाइल क्लिनिकें लोगों के दरवाज़े तक पहुंचीं. तीसरी श्रेणी में ऐसे गांव थे जहां टीका लगाने के मोबाइल क्लिनिक तो लोगों तक पहुंचे ही, साथ ही, टीका लगवाने को प्रोत्साहित करने के लिए लोगों को एक किलो दाल भी दी गई.
इस प्रयोग से तीसरी कैटेगरी के गांव यानी जिन गांव में दाल दी गई वहां टीकाकरण कराने की दर में 39 फीसदी इजाफा हुआ. जबकि बिना दाल वाले गांवों में यह दर आधी से भी कम रही. इस प्रयोग से अर्थशास्त्रियों ने ये साबित किया कि दाल के चमत्कारिक नजीते हो सकते हैं. अर्थशास्त्री ने पक्के तौर पर साबित किया कि टीकाकरण की वजह से हज़ारों बच्चे स्वास्थ्य सेवाओं पर बोझ नहीं बनेंगे इस तरह सरकार को बहुत मोटी बचत होगी, एक किलो दाल की तुलना में कई हज़ार गुना बचत. अभिजीत और उनकी पत्नी ने ये साबित की दाल जैसी मामूली चीज भी गरीबी उन्मूलन के लिए कारगर हो सकती है.