‘वो शख्स जो गणित में भगवान को देखता था’

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जीवन भले ही छोटा हो लेकिन जीवन में किए काम बड़े होने चाहिए. ये बात शायद महान गणितिज्ञ रामानुजन पर एकदम सटीक बैठती है. सिर्फ 32 साल की उम्र में उन्होंने अपने काम से डंका बजवाया और आप उनके काम की गुणवत्ता का अंदाजा इस बात से लगा सकते हो कि उनकी मौत के एक सदी बाद आज दुनिया उनके काम को समझ रही है.

22 दिसंबर 1887 को तमिलनाडु के इरोड शहर में रामानुजन जन्मे थे. वो इतने प्रतिभाशाली थे कि वो बचपन में ही अपने दोस्तों को पढ़ाने लगी है. कहा ये भी जाता है कि सातवीं में आते-आते वो बीए के छात्रों को गणित पढ़ाने लगे थे. उनके टीचरों के पास उनके सवालों के जवाब नहीं थे. स्कूल के हेडमास्टर ने कह दिया था कि विद्यालय में होने वाली परीक्षाओं के पैमाने रामानुजन के लिए लागू नहीं होते. रामानुजन की विशुद्ध गणित में जबरदस्त दिलचस्पी थी. वो कहते थे कि अगर आप गणित में कोई खोज करते हैं तो आप भगवान को खोज रहे हैं. रात दिन संख्याओं के गुणधर्मों के बारे में सोचते, सुबह उठकर कागज पर सूत्र लिखते यही काम रामनुजन का. उनकी याददाश्त जबरदस्त थी.

1898 में हाईस्कूल में रामानुजन का दाखिला हुआ और तभी उन्होंने गणितज्ञ जीएस कार की लिखी किताब ‘ए सिनोप्सिस आफ एलीमेंट्री रिजल्ट्स इन प्योर एंड एप्लाइड मैथमेटिक्स’ पढ़ी. इसमें उच्च गणित के कुल 5000 फार्मूले दिये गये थे. रामानुजन के लिए यह किताब किसी खजाने जैसी थी. उन्होंने इसके सूत्रों पर काम करना शुरू किया और जल्द ही सारे सूत्र हल कर लिए. रामानुजन के काम ने इसे मशहुर कर दिया.

1905 में रामानुजन मद्रास विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में शामिल लेकिन वो सिर्फ गणित में ही पास हो सके. 1906 और 1907 की प्रवेश परीक्षा का भी यही परिणाम रहा. 1909 में रामानुजन की शादी हो गई थी. इसके बाद उन्होंने नेल्लोर के कलेक्टर और ‘इंडियन मैथमैटिकल सोसायटी’ के संस्थापकों में से एक रामचंद्र राव के साथ एक साल तक काम किया. उस दौर में रामानुजन को 25 रूपये महीने का वेतन मिलता था. 1911 में बर्नोली संख्याओं पर प्रस्तुत शोधपत्र से वो मशहूर हुए और पूरे मद्रास में गणित के विद्वान के तौर पर उन्हें ख्याति मिली. 1912 में रामचंद्र राव की मदद से उन्हें मद्रास पोर्ट ट्रस्ट के लेखा विभाग में क्लर्क की नौकरी मिल गई.

1913 में उन्होंने केंब्रिज के प्रोफेसर और गणितज्ञ जीएच हार्डी अपनी प्रमेयों की एक लंबी सूची के साथ एक चिट्ठी भेजी. इस चिट्टी में हार्डी को बहुत से प्रमेय ऐसे मिले जो उन्होंने न कभी देखे थे और न सोचे थे. हार्डी ने रामानुजन को क्रेंब्रिज बुलाने का फैसला किया. 1914 में हार्डी ने रामानुजन के कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज आने की व्यवस्था की और हार्डी ने रामानुजन को यहां पढ़ाया. 1916 में रामानुजन ने केंब्रिज से बीएससी की डिग्री ली. इसके बाद रामानुजन और हार्डी का काम दुनिया में छाने लगा.

लेकिन होनी कुछ और मंजूर था. इंग्लैंड में रामानुजन को परेशानी होने लगी और वो बीमार हो गए. 1917 से उनकी तबीयत खराब होने शूरु हुई. उन्हें टीबी के लक्षण दिखाई दिए. ये वो दौर था जब रामानुजन के लेख मशहूर पत्रिकाओं में छप रहे थे. 1918 में रामानुजन को कैम्ब्रिज फिलोसॉफिकल सोसायटी, रॉयल सोसायटी तथा ट्रिनिटी कॉलेज, तीनों का फेलो चुना गया. लेकिन रामानुजन की बीमारी ठीक नहीं हुई. इसी वजह से 1919 में उन्हें भारत वापस लौटना पड़ा. उनका आखिरी वक्त कुंभकोणम में बीता. और 26 अप्रैल 1920 को महज 32 साल की उम्र में उन्होंने दुनिया छोड़ दी.

इस छोटे से जीवन में उन्होंने जो काम किए हैं वो आज भी दुनिया को हैरान करते हैं. आपकी जानकारी के लिए बता दें कि इंग्लैंड जाने से पहले 1903 से 1914 के बीच रामानुजन गणित के 3,542 प्रमेय लिख चुके थे. जिन्हें टाटा इंस्टीट्यूट आफ फंडामेंटल रिसर्च ने प्रकाशित किया. इस पर 20 सालों तक शोध किया गया. और भी दुनिया उनके काम को सलाम करती है.

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