मध्य प्रदेश: लॉकडाउन और ठेकेदारों के चलते भूखों मरने की कगार पर मछुआरे
‘मध्यप्रदेश में मछुआरों की हालत दिन ब दिन खराब होती जा रही है. सुरक्षा गार्ड और ठेकेदार मछुआरों के साथ मारपीट पर अमादा हैं. हालात यहां तक खराब हो गई है कि राज्य के 2 लाख से ज्यादा मछुआरे भूखों मरने के कगार पर हैं. सरकार चाहें लाख अच्छी अच्छी बातें करें लेकिन हकीकत ये है कि ठेकेदारी प्रथा, लॉकडाउन और सरकारी उदासीनता ने मछुआरों को बर्बाद कर दिया है. दो वक्त जून की रोटी का इंतजाम करना भी मुश्किल है.’
राजनीति ऑनलाइन से बात करते हुए बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ के राज कुमार सिन्हा आक्रोशित हो जाते हैं. उनकी नाराजगी इतनी ज्यादा है कि वो कहते हैं कि मछुआरों की सुनने वाला कोई नहीं है. उनका कहना है कि, कोरोना वायरस की वजह से मछुआरों की इस कमजोर आर्थिक स्थिति को देखते हुए मछुआ कल्याण एवं मत्सय विभाग मध्यप्रदेश ने 31 मार्च 2020 को मत्स्याखेट, मत्सय परिवहन, मत्सय विक्रय की वयवस्था सुचारू रखने के लिए उन्होंने कलेक्टर को चिट्ठी लिखी थी. इतना ही नहीं बरगी जलाशय के मछुआरों ने मंडला, सिवनी कलेक्टर और संबंधित क्षेत्र के विधायकों को पत्र लिख कर मछल पकड़ने का काम जारी रखने का आग्रह किया था. लेकिन राज्य मत्सय महासंघ और ठेकेदारों ने मत्स्याखेट कार्य शुरू नहीं होने दिया.
लॉकडाउन में दाने-दाने को मोहताज मछुआरे
कोविड-19 महामारी के कारण 24 मार्च की आधी रात को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लॉकडाउन कर दिया था. इसकी वजह से मध्यप्रदेश के पुर्णकालिक लगभग 2 लाख 2 हजार मछुआरा सदस्यों के सामने आजीविका का संकट पैदा हो गया है. इसके बाद मछुआ कल्याण एवं मत्सय विभाग मध्यप्रदेश ने 31 मार्च 2020 मत्स्याखेट के लिए कोशिशें शुरु कीं लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. अब मछुआरों की परेशानी ये है कि सीजन निकल गया है और 15 जून से 15 अगस्त तक सरकारी आदेशों के कारण मत्स्याखेट कार्य बंद रखा जाता है. ये इसलिए किया जाता है क्योंकि ये मछली का प्रजनन काल होता है. अब इसका मतलब ये हुआ कि विभागीय आदेश के बाद भी मछुआरा लगभग साढ़े चार महीने मत्स्याखेट नहीं कर पाएगा.
5 मार्च को ही राज्य सरकार से की गई थी मांग
राज कुमार सिन्हा बताते हैं कि, ‘5 मार्च को जब कोरोना को लेकर सरकार इतनी संजीदा नहीं थी तभी मंडला में आयोजित क्षेत्रीय मछुआरा बैठक के बाद कलेक्टर के माध्यम से राज्य सरकार से पत्र लिखकर मांग कि गई थी कि हर मछुआरे सदस्य को बंद ऋतु में दो महीने के लिये 10 हजार रूपये की सहायता राशि दी जाए.’ लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई. इसका कारण ये भी रहा कि उस वक्त राज्य में बीजेपी-कांग्रेस में सियासी उठापटक चल रही थी. इसलिए किसने राज्य के 2 लाख से ज्यादा मछुआरों की सुध नहीं ली. अब जब राज्य में बीजेपी की सरकार बन गई है तभी कोई इनकी ओर देखने को तैयार नहीं है.
‘मछुआरों के उत्थान का तंत्र बेकार है’
मध्यप्रदेश राज्य मत्सय महासंघ 2 हजार हैक्टर से बड़े 18 जलाशय हैं जिनमें बरगी, तवा, बारना, भीमगढ, बाण सागर, गांधी सागर, इंदिरा सागर, ओंकारेशवर, राजघाट सागर,हलाली, कोलतार,मङीखेङा, माही, केरवां, हरसी, मोहिनी, सगढ जैसे तालाब शामिल हैं. जिसका कुल क्षेत्रफल 2 लाख 8 हजार हैक्टर है. जिसका मुख्य उद्देश्य मत्सय विकास और संबद्ध मछुआरों एवं उनके परिवारों की समाजिक आर्थिक उन्नति करना है. महासंघ की 2015 के रिपोर्ट कहती है कि इन 18 जलाशयों 201 पंजीकृत प्राथमिक मछुआ सहकारी समितियां महासंघ की सदस्य हैं. जिसमें कार्यशील मछुआरों की संख्या 6 हजार 523 बताई गई है. जबकि 16 हजार हैक्टर वाली बरगी जलाशय में मछुआरा सदस्यों की संख्या 2038 है. यहां आपको ये भी समझ लेना होगा कि बहुत सारे स्थानीय मछुआरा मत्स्याखेट तो करते हैं लेकिन प्राथमिक मछुआरा समिति में उनका नाम दर्ज नहीं होता है, जिसे स्थानीय भाषा में लोकल मछुआरा कहा जाता है जो सरकारी योजनाओं से वंचित रहता हैं.
ठेकेदारी प्रथा से भी पीड़ित है एमपी के मछुआरे
आपको बता दें कि बरगी जलाशय में ठेकेदारी प्रथा के खिलाफ 1992 में मछुआरों द्वारा सैकड़ों किश्तियों की 50 किलोमीटर रैली निकाल कर विरोध दर्ज किया था. 1993 में राष्ट्रपति शासन के दौरान तत्कालीन राज्यपाल कुंवर महमूदअली खान ने आखेटीत मछली के 20 प्रतिशत हिस्से पर मछुआरा का मालिकाना हक घोषित किया था. साथ ही मछुआरों की प्राथमिक समिति गठित करने का आदेश सहकारिता विभाग को दिया था. इस आदेश के बाद बरगी जलाशय में 54 प्राथमिक समितियों का गठन हो पाया. 1994 में जब दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में गठित सरकार ने बरगी बांध से विस्थापित होने वाले समुदाय के प्रति न्यायपुर्ण दृष्टिकोण अपनाया और बरगी जलाशय में मत्स्याखेट एवं विपणन का अधिकार 54 प्राथमिक सहकारी समितियों के फेडरेशन को 5 सितंबर 1994 को सौंपा तो उम्मीद बंधी की मछुआरों को कुछ फायदा होगा. लेकिन वो भी ढाक के तीन पात वाला हिसाब ही रहा.
पूर्व प्रशासनिक अधिकारी एवं भारत जनआंदोलन के राष्ट्रीय अध्यक्ष स्वर्गीय ब्रहम देव शर्मा ने इसे मजदूर से मालिक बनने की यात्रा कहा था. अनुभव की कमी,व िभागीय अड़गे और विधान सभा के हर सत्र में फेडरेशन को लेकर लगातार पुछे गए सवाल का जबाब देते हुए 1994 से 2000 तक इन 6 सालों में औसत 450 टन का उत्पादन प्रति वर्ष, 319.94 लाख मछुआरों को पारिश्रमिक भुगतान, 1 करोड़ 37 लाख राज्य सरकार को रायल्टी, मछुआरों बिना ब्याज के नाव जाल हेतु ऋण, लगभग 100 विस्थापितो को इस कारोबार में रोजगार देने के आंकड़े हैं. बरगी माडल के आधार पर तवा जलाशय में मत्स्याखेट एवं विपणन का अधिकार स्थानीय प्राथमिक मछुआरा सहकारी समिति के फेडरेशन को दिया गया था इससे मछुआरों को कुछ फायदा तो हुआ. लेकिन इस निर्णय का विरोध करने वाले ठेकेदार, नेता और नौकरशाहों ने इस प्रयोग का खत्म कर दिया.
ठेकेदारी प्रथा में घटा मछली उत्पादन
ठेकेदारी प्रथा में औसत उत्पादन 175 – 200 टन के बीच रह गया है लेकिन इसको लेकर कोई सियासी हलचल नहीं हुई. बरगी फेडरेशन पर मुख्य आरोप यही था कि राज्य की निर्धारित उत्पादन क्षमता से बहुत ही कम उत्पादन है. 2007 में मुख्य सचिव मध्यप्रदेश शासन की अध्यक्षता में हुई बैठक में यह निर्णय लिया गया कि मत्स्याखेट और विपणन कार्य मछुआरों की प्राथमिक समितियां करेगी और इन समितियों का जलाशय स्तर पर युनियन का गठन किया जाएगा. इसके अलावा मछुआरों को पारिश्रमिक के अतिरिक्त मत्सय विपणन से प्राप्त लाभ का लाभांश भी दिया जाएगा. इन फैसलों के बाद भी ठेकेदारी प्रथा जारी रही और राज्य महासंघ और बरगी ठेकेदार के बीच 2018 में हुए अनुबंध के अनुसार कतला चार किलो से बड़ा पकङने पर पारिश्रमिक 28 रूपये प्रति किलो की दर से भुगतान निर्धारित किया गया है.जबकि राजस्थान सरकार द्वारा जारी 2019 के आदेशानुसार मेजर कार्प कतला 5 किलो का दर 148 रूपये प्रति किलो निर्धारित किया गया है.
सच्चाई ये है कि कम दर देकर राज्य मत्सय महासंघ मछुआरों की आर्थिक हालात और कमजोर कर रहा है. महासंघ द्वारा प्रदेश में जलाशय विकास, मछुआरा विकास और सहकारिता विकास को मजबूत करना था लेकिन महासंघ ने ठेकेदारी प्रथा को ही बढावा दिया है. इन नीतियों के कारण प्राथमिक सहकारी समिति और जलाशय स्तर का फेडरेशन निष्क्रिय हो गया है. मत्सय बीज़ संचय में नहीं है इसलिए उत्पादन घट रहा है.
लॉकडाउन में बढ़ गई मछुआरों की समस्या
मछली उत्पादन घटने की वजह से हजारों मछुआरों ने पलायन किया और शहरों में रोजगार के लिए चले गए. जो मछुआरे बचे उन्हें भी लॉकडाउन की वजह से मछली नहीं पकड़ने दी. पूरा सीजन बर्बाद हो गया है. यहां आपको ये भी जान लेना चाहिए कि मत्स्याखेट कार्य के लिए उपयोग किया जाने वाला नाव और जाल भी मछुआरे ही खरीदते हैं जो काफी महंगे होते हैं. जाल की मियाद 6 महीने होती है. इस बार इनका वो पैदा भी बर्बाद हो गया. एक तो वक्त की मार और दूसरा ठेकेदारी प्रथा ने मछुआरों को लाचार कर दिया है. लेकिन हैरानी की बात ये है कि ये सब देखते हुए भी राज्य मतस्य महासंघ मछुआरों की सुध नहीं ले रहा और न ही कोई ठोस नीति बना रहा है.
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