विचार: क्योंकि मुम्बई ही नहीं, पूरा भारत मायानगरी बन चुका है!
अरब सागर के तट पर बसा बॉम्बे, तब मायानगरी नहीं था.
यहां तारदेव में एक मैदान है, जिस पर बड़ा सा पानी का टैंक था. लोग उसका पानी अपनी गायें और मवेशी धोने के लिए करते. इसका नाम ग्वालिया टैंक मैदान पड़ गया. इससे लगा हुआ था गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज.
आज यहां बैठक होनी थी. देश भर से नामी गिरामी वकील, पत्रकार, NGO किस्म की संस्थाओं के प्रमुख, अकेडमिशियन्स और दूसरे किस्म के सोसायटी के इंफ्लुएंसर्स यहां आ रहे थे. अंग्रेज अफसर ह्यूम ने यह बैठक बुलाई थी.
मुद्दा था कि भारत की समस्याओं पर बात हो. ब्रिटिश राज और पढ़े लिखे, प्रभावशाली भारतीयों के बीच बातचीत का चैनल खुले.
कोशिश पिछले साल से हो रही थी. पहले बैठक पूना में होनी थी. प्लेग के कारण मुल्तवी हुई, अब बॉम्बे में हो रही थी.
ग्वालिया टैंक, एक प्रमुख ट्राम स्टेशन था, इसलिए आना जाना सुगम था. कोई 76 लोग आए थे.
बंगाल के बैरिस्टर ब्योमेश चन्द्र ने बैठक की अध्यक्षता की. सरकार के समक्ष कई मांगे आयी. इसे पूरा करने का वचन दिया गया.
एक सोसायटी बन गयी, जिसके सचिव खुद एलेन ऑक्टेवियन ह्यूम हुए. यह दिन 28 दिसम्बर 1885 था, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के जन्म दिवस के रूप में इतिहास में दर्ज हो गया!
सभा हर साल में एक बार बैठती. अंग्रेज और भारतीय मिलकर मसले सुलझाने की कोशिश करते. इस सभा की बात सरकार तक सीधे जाती थी. जाहिर है, इसका मेम्बर होना काफी वजनदार बात होती. इसमे गुट भी बनने लगे, अध्यक्षी के लिए खींच तान भी.
लेकिन यह भी सच था कि कांग्रेस की हर मांग मानी भी नही जाती थी, तो कुछ लोग गर्म हो जाते! मगर बहुतेरे लोग अनुनय विनय की पॉलिसी के ही पक्षधर थे.
पर एक दिन आया , जब अध्यक्ष बनने के लिए कुर्सियां तोड़ी गयी, हंगामा हुआ, सभा, याने कांग्रेस का गरम नरम में विभाजन हो गया.
सभा की शुरुआत हुई थी इसके भागीदारों की बौद्धिक सक्षमता और प्रभावशीलता के आधार पर. आबादी के लिहाज से हिन्दू ज्यादा होना स्वाभाविक था. कई रिलिजियस किस्म की मांग होती, जिसे कम तवज्जो मिलती!
तो इन मांगों को जमीनी मजबूती देने के लिए, पंजाब में कुछ क्षेत्रीय हिन्दू सभाओं का निर्माण हुआ. इसमे उधर के नेता लाजपत राय इंस्ट्रुमेंटल (अग्रणी) थे. गणेश पंडाल वाले तिलक के साथ, वे कांग्रेस में गरम दल के बड़े चेहरे थे. उन्होंने स्टेट लेवल पर सभी हिन्दू सभाओं का एक अम्ब्रेला सन्स्थान, “पंजाब हिन्दू सभा” बनाई!
लाजपत राय के आमंत्रण पर, कांग्रेस के एक बड़े नेता, मदन मोहन मालवीय इस जलसे में अध्यक्षता करने गए.
1909 में ऐसी राष्ट्रव्यापी सभा बनाने पर विचार हुआ, तब मालवीय खुद कांग्रेस के अध्यक्ष थे. बात आगे बढ़ने लगी. 1910 की कांग्रेस में इस पर फॉर्मल प्रस्ताव आया. इस समय एक अंग्रेज, विलियम वेडरबर्न अध्यक्ष थे जो ऑटोनॉमी और भारत मे सुशाशन के पक्षधर थे, मगर कांग्रेस संगठन के भीतर हिन्दू संगठन का प्रस्ताव अटपटा था! प्रस्ताव ठंडे बस्ते में चला गया.
अगर किसी आइडिया का वक्त आ गया हो, वह अच्छा हो, या बुरा….रोका नही जा सकता. मदन मोहन मालवीय इस काम मे जुट गए. वे एक यूनिवर्सिटी बनाने के अभियान में भी सहभागी थे. अनेक हिन्दू राजाओं से सम्पर्क था.
हिन्दू राजाओ को अपना एक जनसंगठन चाहिए था, जो सरकार के सामने उनकी बात रखे. यह काम मुस्लिम नवाब पहले मुस्लिम लीग बनाकर कर चुके थे. हिंदुओं का “मुस्लिम लीग-नुमा संगठन” काम का साबित होता!
तो 1915 में (जब दूर अंडमान में सावरकर अपना पहला माफीनामा लिख रहे थे) बसंत पंचमी के दिन कुंभ के तट, पर एक विशुद्ध भारतीय, मन प्रण से हिन्दू, ऑनली हिन्दू रक्षार्थ “अखिल भारतीय हिन्दू महासभा” का जन्म हुआ! नन अदर (कोई और नहीं, बल्कि स्वयं) महामना मदन मोहन जी मालवीय, स्वयम अध्यक्ष हुए!!
ये दौर चुनावी राजनीति का नही था, समझिये की कांग्रेस, लीग, महासभा सब NGO किस्म के संगठन थे. आप भोजपुरी समाज के सदस्य भी हो सकते है, गायत्री परिवार के भी, साथ मे रोटरी क्लब के भी. बस वैसे ही कई लोग एकाधिक संगठनों में थे. मुंजे और केशव बलिराम हेडगेवार भी वैसे ही कांग्रेसी थे. ये हिन्दू महासभा में भी घुस गए….
गांधी के आने के बाद कांग्रेस पलटने लगी. वह सबकी होने लगी. वह NGO टाइप से आगे बढ़, मास मूवमेंट होने लगी. धर्मनिरपेक्ष हो गयी. अंग्रेजो से सीधे टक्कर के मूड में आ गयी!
कबूतरों के बीच इन गांधी नाम की बिल्ली ने जो हलचल मचाई.. सबके रंग एक एक करके सामने आने लगे…
जिन्ना लीग की ओर भागे. तिलक के साथी मुंजे और मालवीय के चेले-हेडगेवार-हिन्दू महासभा की ओर खिसके. उन्हें ताजे ताजे माफी पाए सावरकर का साथ मिला. मालवीय के एक और चेले गोलवरकर भी शरण मे आये.
मुंजे और सावरकर ने हिन्दू महासभा सम्भाली, हेडगेवार गोलवरकर ने उनकी यूथ विंग…
मालवीय जी ने खुद को इनसे अलग नही किया. गांधी के भी बगलगीर रहे, और महासभा के पोषक भी.
2015 याने महासभा कें साल सौवें साल में मालवीय को भारतरत्न देकर उनका कर्ज उतारा गया!
1937 में चुनाव होने शुरू हुए और हर दल चुनावी हो गया! महासभा और लीग को अपनी औकात पता चल गई. कांग्रेस हर ओर विनर थी! इन्हें पॉलिसी बदलनी थी. कांग्रेस, अंग्रेजी राज के साथ टकराव की राह में थी. लीग और महासभा “ताज” के साथ हो गयी!!
ग्वालिया टैंक मैदान से गांधी जी ने भारत छोड़ो आंदोलन छेड़ा!
वक्त का मजाक देखिये, जिस कांग्रेस को अंग्रेजो ने 67 साल पहले, इसी मैदान के बगल की एक बिल्डिंग में बनाई थी, भारत मे सदा सदा रहने के लिए, वही कांग्रेस उसे भारत छोड़ने का नारा बुलंद कर रही थी!!!
वक्त का इससे बुरा मजाक देखिये!विशुद्ध भारतीयों मुसलमानों की बनाई मुस्लिम लीग और घोर देशभक्तों की हिन्दू महासभा, इस आंदोलन के खिलाफ थी. वे “भारत मत छोड़ो” का नारा लगा रही थी! ब्रिटिश ताज के लिए मुखबिरी कर रही थीं. एक दूसरे से मिलकर सरकार बना रही थी, और एक दूसरे को मार-काट कर दंगे करवा रही थी.
भारत के इस इतिहास में महाभारत का गजब अक्स दिखता है. पाण्डव जनित कर्ण, निजी हित, मान सम्मान, पेंशन और अहसान के लिए कृष्ण के खिलाफ जाता है, धर्म के खिलाफ जाता है. अपने जन्मना परिवार की आवाज को ठुकरा देता है!
वहीं धृतराष्ट्र का पुत्र होकर भी युयुत्सु धर्म के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझता है. अधर्मी पक्ष का त्याग करता है, पाण्डवों के पक्ष से अपने बाप के खिलाफ लड़ता है!
लेकिन इस देश का हत्भाग है कि लोग कर्ण की पूजा करते हैं, युयुत्सु भुला दिया जाता है!!
महाभारत की वह कहानी इस भारत मे दोहराई गयी है!!
क्योंकि मुम्बई ही नही, पूरा भारत मायानगरी बन चुका है!!!
लेखक:- मनीष सिंह रीबोर्न
(यह लेखक के निजी विचार हैं)