किसान आंदोलन: ‘प्रधानमंत्री भी जनता का नौकर होता है भगवान नहीं’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मध्य प्रदेश के रायसेन में किसानों से मुखातिब होते हुए कहा कि आंदोलन कर रहे किसान गुमराह हो चुके हैं. उन्होंने कहा राजनीतिक पार्टियों ने भ्रम जाल फैला कर किसानों को फंसाया है.
बड़ी अजीब बात है किसान आंदोलन को एक महीना होने को आया और अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह लग रहा है कि आंदोलनकारी किसान गुमराह हो चुके हैं. विडंबना देखिए कि पूरी केंद्र सरकार, सभी बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्री, भारतीय जनता पार्टी का आईटी सेल जब किसानों को कृषि कानूनों का लाभ नहीं समझा पाया तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद मोर्चा संभाला. और एक घोर राजनीतिक भाषण दिया जिसमें वह अपने चित्र परिचित अंदाज में कांग्रेस के 70 सालों का हिसाब मांगते हुए नजर आए. बल्कि किसान उनसे उनके 6 सालों का हिसाब मांग रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कह रहे हैं कि ‘किसानों को राजनीतिक पार्टियां गुमराह कर रही हैं’. उनका मानना है कि कृषि कानूनों के खिलाफ एक भ्रम फैलाया गया है और इसकी वजह से किसान आंदोलनरत है.
आंदोलन के लिए विपक्ष को कसूरवार ठहराने की कोशिश
शायद मोदी जी जैसे कुशल और मजे हुए राजनेता को इस तरह की नासमझी शोभा नहीं देती. क्योंकि अगर वो किसान आंदोलन को उनकी सरकार के खिलाफ विपक्ष की साजिश समझ रहे हैं तो उनकी भूल है. उन्हें यह बात समझनी होगी कि किसानों का यह ऐतिहासिक आंदोलन किसी राजनीतिक पार्टी ने खड़ा नहीं किया है. और किसी राजनीतिक पार्टी में इतना बूता है भी नहीं कि वह इस तरह का आंदोलन खड़ा कर सकें. ये आंदोलन उन हजारों किसानों के डर का नतीजा है जिन्हें लग रहा है कि मोदी जी देश की किसानी को भी बेच खाएंगे. और अगर राजनीतिक पार्टियां किसानों के खड़े किए हुए आंदोलन के जरिए अपनी सियासी रोटियां सेंक रही हैं तो इसमें गलत क्या है? क्या भारतीय जनता पार्टी ने विपक्ष में रहते यह नहीं किया और अगर किया तो सत्ता में आने के बाद इस पार्टी के किसी भी नेता को यह अधिकार नहीं है कि वह विपक्ष के ऊपर उंगली उठाए.
मोदी जी यह गुमराह किसानों का आंदोलन नहीं है
भारतीय जनता पार्टी समर्थित आईटी सेल और खुद मोदी सरकार के मंत्रियों ने किसान आंदोलन को बदनाम करने के लिए तरह-तरह के जतन किए और जब वह नाकाम हो गए तब मोदी जी ने अपनी अद्भुत भाषण शैली का नमूना पेश करते हुए किसान आंदोलन को गुमराह किसानों का आंदोलन करार दे दिया. और एक बार फिर से कांग्रेस को कटघरे में खड़ा कर दिया. लेकिन क्या यह वाकई में गुमराह किसानों का आंदोलन है? यह सवाल हम सबको खुद से ही पूछना होगा. क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि अभी तक इन 3 कृषि कानूनों की वजह से ही किसान खुशहाल नहीं हो पा रहा था? क्या किसानों की खुशहाली के लिए इन 3 कानूनों को लागू करना ही पहली शर्त है?
हकीकत से कोसों दूर है बहुमत की सत्ता
बहुसंख्यकवाद और बहुमत की सत्ता पर बैठकर इन प्रश्नों का जवाब ‘हां’ लग सकता है लेकिन हकीकत इस ‘हां’ से कोसों दूर है. भारत के कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर इन दिनों काफी सक्रिय हैं उन्होंने हाल ही में किसानों के नाम एक चिट्ठी जारी की जिसमें उन्होंने किसानों को एमएसपी का भरोसा दिया और विपक्ष के भ्रम का जिक्र किया. उन्होंने यह भी कहा है कि नए साल तक समाधान निकलेगा. लेकिन क्या 26 नवंबर से पहले अपने पूरे कार्यकाल में कृषि मंत्री कभी भी इतने सक्रिय दिखाई दिए? इस सवाल का जवाब कृषि मंत्री खुद ही दें तो ज्यादा अच्छा है. आज किसानों का आंदोलन खत्म कराने के लिए कृषि मंत्री तमाम जतन करने में लगे हैं लेकिन पिछले 6 सालों में कृषि मंत्रालय की भूमिका जब खत्म सी हो गई थी तब वह एक गहरी चुप्पी साधे बैठे थे.
प्रधानमंत्री भगवान नहीं होता
26 नवंबर से शुरू हुए किसान आंदोलन में अभी तक 20 से ज्यादा किसानों की मौत हो चुकी है. भीषण ठंड में आंदोलन कर रहे किसान आरपार के मूड में है और सरकार अपनी नैतिक जिम्मेदारी से बचते हुए विपक्ष को आंदोलन की वजह बताने पर तुली हुई है. बल्कि होना तो यह चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रायसेन और कच्छ के किसानों को भरोसे में लेने के बजाय है सिंघु बॉर्डर पर डटे उन किसानों को भरोसा दिलाएं जिन्हें कृषि कानूनों से खुद के बर्बाद होने की बू आ रही है. रायसेन के किसानों के सामने फ्रंट फुट पर खेलने से अच्छा यह है कि आप पंजाब और हरियाणा के किसानों के सामने उनके सवालों का जवाब देने के लिए पेश हों. यहां पेश शब्द इसलिए इस्तेमाल किया क्योंकि प्रधानमंत्री भी जनता का नौकर होता है भगवान नहीं.
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