कहानी उन जजों की जिनके लिए सरकार से सवाल करना गुनाह हो गया!
भारत में न्यायपालिका को कैसे मैनेज किया जाता है. ये समझने के लिए ये जानना चाहिए कि कैसे किसी ऐसे केस में सरकार अफनी ताकत दिखाती है जो सरकार को परेशान कर सकता है. इस आर्टिकल में हम यही समझने की कोशिश करेंगे.
असल में क्या हो रहा है…ये समझना जरूरी है…मैं कुछ घटनाओं के माध्यम से ये बताने की कोशिश करूंगा कि हम कहां हैं और किस दिशा में जा रहे हैं…हकीकत ये है कि मुख्य न्यायाधीशों के पास बिना कारण बताए मामलों को विशेष पीठों को सौंपने का अधिकार होता है…कोई भी इसपर ज्यादा बोल नहीं सकता लेकिन 7 अगस्त को, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की एक पीठ ने नूंह और गुरुग्राम जिलों में अवैध रूप से इमारतों को ध्वस्त करने के लिए हरियाणा सरकार की आलोचना की थी…और एक कड़ा आदेश पारित किया था…अदालत ने इसे मुसलमानों के ख़िलाफ़ “जातीय सफाए” की कार्रवाई बताया था…पीठ ने इस मामले की सुनवाई स्वत: संज्ञान लेते हुए की यानी अपनी मर्जी से…इसने दो जिलों में उन विध्वंसों पर रोक लगा दी जो कानून में निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार नहीं थे…
यानी बुल्डोजर पर लगाम लगाई…लेकिन इसके तीन दिन बाद एक खबर आई कि उच्च न्यायालय की इस पीठ से ये मामला एक अलग पीठ में स्थानांतरित कर दिया गया … कोई कारण नहीं बताया गया. ये अगली सुनवाई से ठीक एक दिन पहले हुआ…क्या ये इत्तेफाक था…तो समझने की कोशिश करते हैं…सरकार की आलोचना करने वाले न्यायाधीशों से कोई मामला छीनने का यह पहला उदाहरण नहीं है…विशेषज्ञों का मानना है कि यह राजनीतिकरण मामले के आवंटन पर मुख्य न्यायाधीशों की विवेकाधीन, अनियंत्रित शक्ति का परिणाम है…ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। 26 फरवरी, 2020 को, न्यायमूर्ति एस मुरलीधर की अगुवाई वाली दिल्ली उच्च न्यायालय की एक पीठ ने दिल्ली पुलिस को उस महीने की शुरुआत में शहर में हुए सांप्रदायिक दंगों की जांच के तरीके के लिए खुली अदालत में फटकार लगाई थी। मुरलीधर ने पुलिस से 24 घंटे के भीतर अभद्र भाषा के लिए भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के खिलाफ एफआईआऱ करने पर विचार करने को कहा।
लेकिन इसके कुछ घंटे बाद ही मोदी सरकार ने जस्टिस मुरलीधर को पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में ट्रांसफर करने का आदेश दे दिया. मामले को संभालने वाली उच्च न्यायालय की नई पीठ ने मामले को चार सप्ताह के लिए स्थगित कर दिया, जिससे कथित नफरत भरे भाषण के लिए जांच के दायरे में आए दिल्ली पुलिस और भाजपा नेताओं दोनों को राहत मिली । और कीसी बीजेपी नेता के लिए कोई रिपोर्ट रदर्ज नहीं हुई…न्यायमूर्ति मुरलीधर के दिल्ली उच्च न्यायालय से पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में स्थानांतरण की सिफारिश 12 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा की गई थी – सुप्रीम कोर्ट के पांच वरिष्ठतम न्यायाधीशों का एक निकाय जो उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के स्थानांतरण की सिफारिश करता है और केंद्र सरकार में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है उसने ऐसा किया…
हालाँकि, केंद्र सरकार आमतौर पर सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा अनुशंसित न्यायाधीशों के स्थानांतरण को अधिसूचित करने में तीन चार महीने का समय लेती है। लेकिन जिस जल्दबाजी के साथ उसने दिल्ली से चंडीगढ़ में उनके अनुशंसित स्थानांतरण को लागू किया था वो सवाल खड़े करता है…और सुनिए इसके विपरीत, मोदी सरकार सितंबर 2022 में मुरलीधर को, जब वह उड़ीसा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश थे, मद्रास उच्च मंे स्थानांतरित करने के लिए कॉलेजियम की सिफारिश को लटकाए रही थी….और बाद में कॉलेजियम ने अप्रैल में न्यायमूर्ति मुरलीधर को स्थानांतरित करने के अपने प्रस्ताव को वापस ले लिया, क्योंकि सरकार ने सात महीने तक उनके बारे में पहले सोचा ही नहीं…सोचिए सात महीने…ये सब क्या इसलिए था कि मुरलीधर सरकार के माफिक नहीं थे…अब गुजरात आते हैं…मई 2020 में, जस्टिस जेबी पारदीवाला और इलेश जे वोरा की गुजरात उच्च न्यायालय की पीठ ने गुजरात सरकार को उसके कोविड-नियंत्रण उपायों के लिए फटकार लगाते हुए कई आदेश जारी किए…पीठ ने अहमदाबाद सिविल अस्पताल, जहां सैकड़ों कोविड रोगियों का इलाज किया जा रहा था, को “कालकोठरी से भी बदतर” बताया। इसने अस्पताल में “उचित टीम वर्क और समन्वय” की कमी का उल्लेख किया।
अदालत राज्य में महामारी के कहर के बारे में मीडिया रिपोर्टों पर स्वत: संज्ञान लेते हुए मामले की सुनवाई की इशके बाद राज्य की बीजेपी सरकार इन आदेशों से इतनी घबरा गई कि उसने अस्पताल के खिलाफ अपनी कुछ आलोचनात्मक टिप्पणियों को वापस लेने की मांग करते हुए पीठ के समक्ष एक आवेदन दायर किया। हालाँकि, पीठ ने 25 मई को इस याचिका को अस्वीकार कर दिया। उसी तारीख को, उसने सरकार को चेतावनी दी कि यदि सरकार ऐसा करती है तो अस्पताल में कठिनाइयों का पता लगाने के लिए वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से अस्पताल के डॉक्टरों के साथ व्यक्तिगत रूप से बातचीत की जाएघी…29 मई को अगली सुनवाई से एक दिन पहले, मामला फिर से उच्च न्यायालय की एक नई पीठ को सौंप दिया गया, जिसमें तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति पारदीवाला शामिल थे। न्यायमूर्ति पारदीवाला वरिष्ठ न्यायाधीश के रूप में पिछली पीठ का नेतृत्व कर रहे थे, लेकिन नई पीठ में कनिष्ठ न्यायाधीश बन गए… चूँकि दो जजों की पीठ में वरिष्ठ न्यायाधीश पीठ में शामिल कर दिए।..सवाल ये है कि ये सब क्यों और कैसे होता है…
किसी मामले को अदालत की किसी विशेष पीठ को सौंपना, या एक पीठ से दूसरी पीठ को पुनर्नियुक्ति करना, उस अदालत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा अदालत के न्यायाधीशों के रोस्टर के प्रशासक के रूप में उनकी क्षमता में किया जाता है। ऐसे मामलों में मुख्य न्यायाधीश का विवेक ही तय करता है कि होना क्या है…उन्हें ऐसे कार्यों और पुनर्नियुक्तियों के कारणों का खुलासा करने की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में, अधिकांश उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में, या जब कोई नया मुख्य न्यायाधीश कार्यभार संभालता है, तब बेंचों की पुनर्नियुक्ति और रोस्टर में फेरबदल नियमित रूप से समय-समय पर किया जाता है। ये नियम है….न्यायिक भाषा में इसे “मास्टर ऑफ रोस्टर” कहते हैं…तो सवाल ये है कि क्या ये सरकार के हितों के लिए सुविधाजनक तरीके से किया जाता है?
उदाहरण के लिए, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में स्थानांतरित होने के बाद, न्यायमूर्ति मुरलीधर को एक ऐसी पीठ सौंपी गई जो मुख्य रूप से कर मामलों से निपटती थी…क्योंकि मुरलीधर उच्च न्यायालय में दूसरे सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश थे, और उनके वहां पहुंचने से पहले, कर मामलों की सुनवाई उच्च न्यायालय के सातवें सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश के नेतृत्व वाली पीठ द्वारा की जाती थी। इसे उच्च न्यायालय के वकीलों ने मुरलीधर को हाशिये पर डालने और उन्हें राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण मामलों से दूर रखने के प्रयास के रूप में देखा…इसी तरह मार्च में, बॉम्बे हाई कोर्ट में, मुख्य न्यायाधीश द्वारा रोस्टर में बदलाव के कारण, जस्टिस रेवती मोहिते डेरे और शर्मिला देशमुख की पीठ, जो आईसीआईसीआई बैंक की पूर्व प्रमुख चंदा कोचर से संबंधित राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों की सुनवाई कर रही थी। और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता हसन मुश्रीफ से जुड़ा मामला भी दूसरी पीठ को दे दिया गया था…इसपर भी सवाल उठे थे…
न्यायमूर्ति डेरे की अगुवाई वाली पीठ ने अलग-अलग मामलों में जांच में खामियों के लिए राष्ट्रीय जांच एजेंसी की आलोचना की थी, मुश्रीफ को जमानत दी थी, मनी लॉन्ड्रिंग मामले में शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) विधायक अनिल परब को राहत दी थी.. मुश्रीफ के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग मामले के संबंध में जनता पार्टी नेता किरीट सोमाया पैरबी कर रहे थे…एक और ववाकया है कि दिसंबर 2021 का जब, उच्च न्यायालय ने माना था कि एक मुख्य न्यायाधीश रोस्टर से हट भी सकता है और बिना कोई कारण बताए, अपने विवेक के अनुसार मामलों को विशेष पीठों को सौंप सकता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि अदालत ने कहा था, मुख्य न्यायाधीश के प्रशासनिक फैसले न्यायिक समीक्षा के अधीन नहीं हैं, और बेंच असाइनमेंट/पुनर्नियुक्ति से कोई अधिकार प्रभावित नहीं होता है।
आपको याद होगा कि इसी समस्या को लेकर 2018 में एक अभूतपूर्व कदम उठाया गया जजों के द्वारा जिसमें सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की , भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा द्वारा अदालत की कुछ पीठों को मामलों के आवंटन पर सवाल उठाया था। न्यायाधीशों ने आरोप लगाया था कि “देश और संस्था के लिए दूरगामी परिणाम वाले मामलों को इस न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों द्वारा ऐसे असाइनमेंट के लिए किसी भी तर्कसंगत आधार के बिना चुनिंदा रूप से ‘अपनी पसंद की’ पीठों को सौंपा गया है”। हालांकि इससे कोई फ्रक नहीं पड़ा ना ही कोई जांच हुई।।।
बाद में 2018 में, वरिष्ठ वकील शांति भूषण ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था, जिसमें अदालत में बेंचों को मामलों की लिस्टिंग और पुन: आवंटन की अधिक तर्कसंगत और पारदर्शी प्रणाली तैयार करने का अनुरोध किया गया था। हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने उस साल जुलाई में याचिका खारिज कर दी । तो कुल मिलाकर है कि ये जो कुछ भी चल रहा है इसको लेकर सोचना तो चाहिए…ही कमसे कम…क्योंकि अगर ये सब सच है तो फिर आफ अंदाजा लगाइए कि आप औ हम क्या हैसियत रखते हैं….
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