Communalism

Communalism: यह एक सर्वमान्य विचार है कि भारत में सांप्रदायिकता ब्रिटिश उपनिवेशवाद की विभेदकारी नीतियों का परिणाम है.

औपनिवेशिक काल में भारतीय जनता की एकता को विखंडित करने और एक राष्ट्र के रूप में संगठित होने को लेकर भारतीयों के आत्मविश्वास को कमजोर करने के लिए ब्रिटिश शासकों ने हिंदू और मुस्लिम धर्मों के बीच की दूरी को और ज्यादा विस्तारित किया जिसे लोकप्रिय तरीके से “फूट डालो राज करो” की नीति के रूप में जाना जाता है.

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में इस सांप्रदायिक विभेद और वैमनस्य को दूर करने की हर संभव कोशिश की गई. महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने धर्म निरपेक्षता को एक राष्ट्रीय मूल्य के रूप में में विकसित करने और “हिंदू और मुसलमानों के बीच एकता” कायम करने के हर संभव प्रयास किए.

भारत के संविधान में भी धर्मनिरपेक्षता को एक मूलभूत सिद्धांत के रूप में स्वीकार
किया गया; लेकिन इस सबके बावजूद सांप्रदायिकता की समस्या दिनों दिन विकराल रूप धारण करती गई, हिंदू-मुस्लिम विभेद ने द्विराष्ट्र का सिद्धांत ग्रहण कर लिया जिसका परिणाम भारत विभाजन और पाकिस्तान के रूप में अलग मुल्क हुआ.

आज़ाद भारत में इस सांप्रदायिकता ने नया रूप ग्रहण किया और अब यह “सांप्रदायिक फासीवाद” के रूप में भारत की मुख्य राजनैतिक शक्ति के रूप में उपस्थित है.

सवाल यह उठता है कि आखिर क्या वजह है कि भारत में सांप्रदायिकता को निर्मूल नहीं किया जा सका?

तीन चौथाई सदी से भी ज्यादा समय के अपने स्वतंत्र राष्ट्रीय जीवन में भारतीयों ने क्यों धर्मनिरपेक्षता को मूल्य के रूप में नहीं अपनाया? और आज परिस्थिति यह है कि सेक्युलरिज्म एक नकारात्मक और घृणित भवाबोध का शब्द बन गया है!

डॉ. अंबेडकर ने भारत में सांप्रदायिकता की समस्या को दूर करने के लिए महात्मा गांधी
द्वारा अपनाई जा रही रणनीति की आलोचना की थी.

अपनी किताब ‘पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन’ में उन्होंने पाकिस्तान बनाए जाने की जरूरत का पुरजोर समर्थन और उसकी व्यावहारिकता को रेखांकित करते हुए, भारत में सांप्रदायिकता के इतिहास और तत्कालीन संदर्भों में उसके राजनैतिक घात प्रतिघात को उद्घाटित किया है.

डॉ. अंबेडकर ने Communalism का व्यावहारिक समाधान खोजने की प्रक्रिया में मुस्लिम लीग द्वारा की जा रही पाकिस्तान की मांग का औचित्य देखा था.

इस प्रक्रिया में अंबेडकर की दृष्टि कबीर से मिलती जुलती है जिसमें वे हिंदू और मुस्लिम दोनों ही पक्षों को कसौटी पर रखते हैं और वे सांप्रदायिकता की समस्या को बढ़ाने में उनकी भूमिका के लिए दोनों पक्षों की आलोचना करते हैं.

लेकिन आज की परिस्थिति में हिंदुत्व की की वैचारिकी के लेखक विचारक अंबेडकर द्वारा की गई मुसलमानों की आलोचनाओं और उनके खिलाफ आने वाले तर्कों को प्रचारित कर अंबेडकर को मुसलमानों का आलोचक सिद्ध करना चाहते रहते है.

बेशक डॉ. अंबेडकर ने अपनी किताब ‘पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन’ में मुस्लिमों की Communalism आक्रामकता, उनमें व्याप्त सामाजिक बुराइयों, मुस्लिम लीग की अनौचित्यपूर्ण मांगों की आलोचना की है, पर उसके साथ ही उन्होंने हिंदू महासभा के द्विराष्ट्र के सिद्धांत और सावरकर की योजनाओं को भी नकारा है.

महात्मा गांधी द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन में मुसलमानों को साथ लेने के लिए अपनाई जाने वाली रणनीति की भी आलोचना उन्होंने की.

खिलाफत आंदोलन का बिना शर्त समर्थन देने को लेकर भी अंबेडकर ने गांधी की आलोचना की पर साथ ही यह भी कहा–

“खिलाफत आंदोलन का मुद्दा उठाकर श्री गांधी ने दो उद्देश्यों की पूर्ति की: एक तो मुस्लिमों का समर्थन पाने की कांग्रेसी योजना को उन्होंने पूरा कर दिखाया.

दूसरे, उन्होंने कांग्रेस को देश में एक शक्ति बना दिया, और यदि मुस्लिम कांग्रेस में शामिल न होते तो वह शक्ति नहीं बन सकती थी.

मुसलमानों की राजनीतिक सुरक्षाओं की जगह खिलाफत का मुद्दा कहीं अधिक आकर्षक लगता था. इसका नतीजा यह निकला कि जो मुसलमान कांग्रेस के बाहर थे, वे भी भारी संख्या में कांग्रेस में शामिल हो गए. (सेक्युलर) हिंदुओं ने उनका स्वागत किया, क्यूंकि उन्हें लगा कि इस तरह वे अंग्रेजों के विरुद्ध साझा मोर्चा खोल सकते हैं जो कि उनका उद्देश्य था.

इसका श्रेय तो निश्चित रूप से श्री गांधी को जाता है. निस्संदेह यह एक बड़ा साहसपूर्ण काम था.”

सावरकर पाकिस्तान बनने के विरोध में थे, पर साथ ही वह मुसलमानों को भारत में हिंदुओं के अधीनस्थ कौम के रूप में रखना चाहते थे..उनका कहना था कि–

भारत में रहने वाला प्रत्येक नागरिक हिंदू है, चाहे उसकी पूजा पद्धति कोई भी हो, परंतु जिन धर्मों की पुण्य भूमि भारत से बाहर है, उन्हें हिंदुओं अर्थात जिनकी पितृ भूमि और पुण्य भूमि दोनों ही भारत में है, के अधीन रहना होगा. सावरकर की योजना के अनुसार

• “मुसलमानों को ‘एक व्यक्ति एक वोट’ का अधिकार तो मिलेगा पर उन्हें विधान मंडलों और प्रशासन में भागीदारी व नौकरियों की गारंटी नहीं दी जाएगी.”

अंबेडकर ने सावरकर के इस प्रस्ताव को विचित्र बताया और कहा कि सावरकर अगर हिंदूराष्ट्र का दावा कर सकते है, तो मुस्लिम राष्ट्र के कौमी वतन के दावे का विरोध कैसे कर सकते हैं?

सावरकर के बारे में अंबेडकर लिखते हैं-

“यह बात सुनने में भले ही विचित्र लगे, पर ‘एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र’ के प्रश्न पर श्री सावरकर और श्री जिन्ना के विचार परस्पर विरोधी होने की बजाय एक दूसरे से पूरी तरह मेल खाते हैं.

दोनों ही इस बात को स्वीकार करते हैं, और न केवल स्वीकार करते हैं, बल्कि इस बात पर जोर देते हैं कि ‘भारत में दो राष्ट्र हैं एक मुस्लिम राष्ट्र और एक हिंदू राष्ट्र!’ उनमें मतभेद केवल इस बात पर है कि इन दोनों राष्ट्रों को किन शर्तों पर एक दूसरे के साथ रहना चाहिए.’

आमतौर पर द्विराष्ट्र के सिद्धांत गढ़ने का दोष सिर्फ जिन्ना के सिर पर मढ़ा जाता है, पर यहां स्पष्ट है कि अंबेडकर सावरकर को भी इसके लिए दोषी मानते हैं.

डॉ. अंबेडकर भारतीय राष्ट्र के लिए अखंड भारत की किसी वायवीय, अव्यावहारिक योजना की बजाय ठोस जमीनी हकीकत और तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक परिस्थिति के हिसाब से एक हल सुझा रहे थे, जिसमें Communalism की समस्या को राजनैतिक समझौतों, एकता के संकल्पों के जरिए सुलझाने की बजाय, स्पष्ट संवैधानिक सुरक्षात्मक उपायों की बात कर रहे थे.

इसी संदर्भ में उन्होंने पाकिस्तान की मांग की जायज ठहराते हुए भी मुसलमानों को अधिकतम सुरक्षात्मक अधिकारों के साथ भारत में ही रहने का सुझाव दिया था.

पाकिस्तान की मांग को अंबेडकर ने ‘एक राष्ट्र का अपने घर के लिए आह्वान’ (A Nation a calling for a Home) कहा.

पाकिस्तान की मांग को वे मुस्लिम अल्पसंख्यकों के आत्मनिर्णय के अधिकार के रूप में देखते हैं.

“पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन” में वे लिखते है–

“मुसलमानों को आत्मनिर्णय के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता. हिंदू राष्ट्रवादी जो आत्मनिर्णय पर भरोसा करते हैं और यह पूछते हैं कि जब विश्व को छोटे-छोटे राष्ट्रों के मामले में यह बात माननी पड़ी, तो ब्रिटेन भारत को उससे वंचित कैसे रख सकता है? इस तरह वे ब्रिटेन से यह नहीं कह सकते कि वह अल्पसंख्यकों को आत्मनिर्णय का अधिकार देने से मना कर दे.

हिंदू राष्ट्रवादी जो यह आशा करते हैं कि ब्रिटेन मुसलमानों पर पाकिस्तान की मांग त्यागने का दबाव डाले, वे यह भूल जाते हैं कि ‘विदेशी आक्रामक साम्राज्यवाद’ से ‘राष्ट्रीयता की आज़ादी का अधिकार’ और ‘बहुसंख्यक आक्रामक राष्ट्रीयता’ से ‘अल्पसंख्यकों की स्वतंत्रता’ दो अलग-अलग चीजे नहीं है!

दोनों का एक ही आधार है. ये तो स्वतंत्रता के संघर्ष के दो पहलू है तथा उनका नैतिक आधार भी बराबर है.

स्पष्ट तौर पर यह मानते हैं कि पाकिस्तान की मांग औपनिवेशिक भारत में मुस्लिम जनता के राजनीतिक विकास के साथ प्रबल हुई है, और इसे रूपक अलंकारों से भरी बातों के बल पर मिटाया नहीं जा सकता. इस मामले में वे सभी पहलुओं का अध्ययन कर उसकी परिणतियों को समझ कर कोई बुद्धिमत्ता पूर्ण निर्णय लेने के पक्षपर थे.

अपनी किताब में वे हिंदू और मुस्लिम दोनों पक्षों के तर्कों का सकारात्मक और नकारात्मक दृष्टि से परीक्षण करते हैं.

यहां यह समझना जरूरी है कि अंबेडकर जिसे हिंदू पक्ष कह रहे हैं उसका नेतृत्व कांग्रेस के पास या और मुस्लिम पक्ष का राजनीतिक नेतृत्व मुख्यतः मुस्लिम लीग के पास था.

आज की परिस्थिति में हिंदू पहचान का राजनीतिक नेतृत्व जिस RSS के पास है, वह उस समय परिदृश्य में नहीं था, वह एक हाशिए की शक्ति थी. हिंदू महासभा के पास जरूर उल्लेखनीय ताकत थी लेकिन यह भी बहुसंख्यक हिंदुओं का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहा था, यह नेतृत्व गांधी का प्राधिकार था!

हिंदू पक्ष जो पाकिस्तान की योजना का विरोध “अखंड भारत के तर्क” पर कर रहा था और यह कह रहा था कि पाकिस्तान के तहत पृथक होने वाला पश्चिमोत्तर भारत, हमेशा से अखंड भारत का हिस्सा रहा है, इसलिए उसे भारत से अलग नहीं किया जा सकता.

इस तर्क के को निराधार साबित करने के उद्देश्य से अपनी किताब ‘पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन’ में एक अध्याय लिखा– “एकता का विघटन”.

इसी अध्याय में व्यक्त किए गए अंबेडकर के विचारों का इस्तेमाल, उनकी मुस्लिम विरोधी छवि गढ़ने के लिए सबसे ज़्यादा किया जाता है.

इसमें तो अबेडकर कहते है कि– “पश्चिमोत्तर भारत के जिन क्षेत्रों को मुसलमान भारत से पृथक करना चाहते हैं, वे भारत के अंग रहे हैं जब चंद्रगुप्त मौर्य भारत का शासक था. चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपनी भारत यात्रा में इस तथ्य का उल्लेख किया था.

पर भारत पर मुस्लिम आक्रमणों और इस्लाम के विस्तार के बाद परिस्थिति गई.

अंबेडकर ने 711 ई. में मुहम्मद बिन कासिम के प्रथम आक्रमण से लेकर 1761 ई. में अहमदशाह अब्दाली के हमलों के करीब
1000 वर्षों में मुसलमानों के भारत में आने और पश्चिमोत्तर भारत में अपनी सांस्कृतिक जड़े जमाने से लेकर पूरे भारत में फैलने की घटना का ज़िक्र किया है. इस विवरण में अम्बेडकर का जोर इस बात पर है कि भारत में इस्लाम को फैलाने के लिए अफ़ग़ान, तुर्क और मंगोल मुसलमान आक्रमणकारियों द्वारा अपनाई जाने वाली क्रूरता और धार्मिक उद्देश्य की कट्टरता को उजागर किया जाए.

अम्बेडकर का मानना था कि ब्रिटिश भारत में मुसलमानों की साम्प्रदायिक सोंच के पीछे यही श्रेष्ठता बोध समाया है कि हमारे पूर्वजों ने मध्य काल में इस देश को विजित किया था और इसलिए वे शासक कौम हैं, इसीलिए अंबेडकर ने हिंदू मुस्लिम एकता के लिए दोनों कौमों को अपना अतीत भुलाकर साथ रहने की सलाह दी थी.

अंबेडकर लिखते है–
आक्रांताओं ने हथकंडे अपनाए थे, वे अपने पीछे भविष्य में आने वाले परिणाम छोड़ते गए, उनमें से ही एक हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की कटुता है! दोनों के बीच कटुता इतनी गहराई से पैठी हुई है कि एक शताब्दी का राजनीतिक जीवन इसे न तो शांत कर पाने में सफल हुआ है और न ही लोग उस कटुता को भुला पाए है, क्यूंकि इन हमलों के साथ ही साथ मंदिरों का विध्वंस, बलात् धर्मातरण, संपत्ति की तबाही, संहार और गुलामी तथा नर-नारियों और बालिकाओं का अपमान हुआ था, अतएव क्या यह कोई आश्चर्यजनक है कि ये हमले याद में सदैव बने रहे हैं!
ये हमले मुसलमानों के लिए गर्व का विषय बने तो हिंदुओं के लिए शर्म का; परंतु इन बातो के भारत का यह पश्चिमोत्तर कोना एक ऐसा मंच भी रहा है, जिस पर एक निर्मम नाटक खेला जाता रहा है. मुसलमानों के दल एक के बाद दूसरी लहर के रूप में इस क्षेत्र पर चढकर आते रहे और वहां से उन्होंने स्वयं को शेष भारत में छितराया. ये छोटी-छोटी धाराओं के रूप में शेष भारत में पहुंचे. समय आने पर वे अपनी सुदूरतम सीमाओं से पीछे भी हटे; जबकि वे वहां रहे तो उन्होंने भारत के इस पश्चिमोत्तर कोने में आर्य-संस्कृति पर इस्लामी संस्कृति का गहन प्रभाव भी छोड़ा, जिसने धार्मिक और राजनीतिक दोनों की दृष्टि से इसे एक सर्वथा अलग रंगत दे दी.”

मुस्लिम आक्रमण के संदर्भ में अपने विवरणों को अम्बेडकर मुख्यतः ब्रिटिश प्राच्यवादी इतिहासकार लेन पूल के और अमेरिकी मूल के पादरी और इस्लाम और ईसाईयत का
तुलनात्मक अध्ययन करने वाले इतिहासकार टाइटस के लेखन का सहारा लेते हैं.

इन दोनों ही इतिहासकारों ने ब्रिटिश उपनिवेशवादी दृष्टिकोण के अनुसार मध्यकाल को भारत पर मुस्लिम विजय के काल की तरह दर्शाया है. इस्लाम की स्थापना के लिए मुसलमानों द्वारा धर्मांतरण के लिए की गई नृशंसताओं का विस्तार के साथ वर्णन किया है, कुछ ऐसा चित्रण हुआ है जैसे इस काल में हिंदुओं की स्थिति गुलामों जैसी हो गई हो और राजकाज के मामले में वे अधिकारों से वंचित कर दिए गए थे! सामाजिक स्तर पर वे हतदर्प बना दिए गए थे.

मध्यकाल के बारे में यह दृष्टिकोण ब्रिटिश इतिहास लेखन की वृहत परियोजना का हिस्सा था, जो कि भारत में राष्ट्रवादी इतिहास लेखन से पहले, एकमात्र मान्य इतिहास दृष्टि थीऔर यही उपलब्ध स्रोत भी था, जिसका इस्तेमाल अबिडकर ने भी किया था.

हिंदुत्ववादी राजनीति के विचारक ब्रिटिश इतिहासकारों के नजरिए को पूरी तरह स्वीकार करते हैं. अंबेडकर के मामले में भी इस विवरण को संदर्भ से अलग रखकर वे “एकता में विघटन” के तहत विचारों को प्रचारित करते हैं.

● अंबेडकर की इतिहास दृष्टि के बारे में आनंद तेलतुम्बड़े ने बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है. अपनी किताब Republic of Caste (रिपब्लिक ऑफ कास्ट) की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि

“अंबेडकर इतिहास के किसी सिद्धांत में विश्वास नहीं करते. कोलंबिया विश्वविद्यालय के अपने प्रोफेसर जॉन डिवी के प्रभाव में इतिहास को बरतने के मामले में ये हमेशा ही एक उपयोगितावादी (pragmatist)) बने रहे. अबेडकर अपने समय में उपलब्ध के साधनों और विचारों का इस्तेमाल तत्कालीन समस्याओं का व्यावहारिक हल निकालने के लिए करते हैं, इसीलिए वे किसी महाआख्यान और मूलवादी राजनीति का इंतजार नहीं करते. डॉ. अंबेडकर के चिंतन व व्यवहार में यह उपयोगितावाद कई जगहों पर दिखता है, “जातियों की उत्पत्ति का इतिहास” से और “अछूत जातियों की उत्पत्ति का इतिहास” हो, आबेडकर ने अपने समय में उपलब्ध हर प्रकार से ऐतिहासिक सामग्री का परीक्षण किया, लेकिन साथ ही वे औपनिवेशिक भारत में दलितों की समस्याओं और जाति उन्मूलन के अपने लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए उनके ऐतिहासिक सामग्रियों का उपयोग करते हैं.

वे खुद को बदली हुई परिस्थिति के अनुसार व अनुसंधानों से प्राप्त नए ज्ञान के अनुरूप अपने दृष्टिकोण को बदलने में बिल्कुल भी नहीं हिचकिचाते.

तेलतुम्बड़े कहते हैं कि अंबेडकर खुद को निरंतर बदलते या संवर्धित करते रहते हैं.

अंबेडकर के उपयोगितावाद को उनके द्वारा गठित राजनीतिक पार्टियों के उदाहरण से ठीक से समझ सकते हैं. पहले उन्होंने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी का गठन किया, जिसके द्वारा वे एक “दलित वाम रुझान” की राजनीति करते हैं, उसके बाद गोलमेज सम्मेलन से ठीक पहले, दलितों को कम्यूनल अवार्ड दिलाने की संभावना को तलाशते हुए उन्होंने शेडयूल कास्ट फेडरेशन का गठन किया.

इसी तरह स्वतंत्र भारत में दलित प्रतिनिधित्व के लिए उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी का गठन किया.

तात्पर्य यह कि अछूतों को अधिकार दिलाने के लिए वे बदली हुई परिस्थिति के अनुसार अपनी रणनीति बदलते रहे है.

चौथे दशक के भारत में जब सांप्रदायिक समस्या विभाजन के मुहाने तक पहुंच चुकी थी, अंबेडकर ने सांप्रदायिकता का हल पाकिस्तान बनने के रूप में देखा था.

1940 में प्रकाशित ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ में वे पाकिस्तान को अनिवार्य विकल्प के रूप में देखते हैं; लेकिन 1945 में उस किताब के दूसरे संस्करण जिसका नाम Pakistan Or partition to India (पाकिस्तान और पार्टिशन टू इंडिया) रखा, इसमें वे पांचवां अध्याय जोड़कर पाकिस्तान न बनने की स्थिति में उपलब्ध अन्य विकल्पों की बात करते हैं; जिसमें वे हिंदूराष्ट्र के खतरे के प्रति आगाह करते हैं.

यहां सवाल अंबेडकर के ऐतिहासिक नज़रिए का है.

यह स्पष्ट है अंबेडकर के पास भारत के मध्यकालीन इतिहास की केवल ब्रिटिश सामग्री उपलब्ध थी, जिसके आधार पर उन्होंने मुस्लिम आक्रमणों का उल्लेख किया.

ब्रिटिश इतिहासकारों ने मध्यकालीन इतिहास को सांप्रदायिक रंग में रंग कर पेश किया था, जिसके बारे में हरबंस मुखिया कहते हैं कि–

औपनिवेशिक इतिहास लेखन मे मध्यकाल में निहित Communalism स्वर को दिलेरी करने तथा भारत के अतीत के एकरेखिक सांप्रदायिक अध्ययन को प्रमुख बल्कि एकमात्र रुझान बनाने का प्रयास किया.

जेम्स स्टूअर्ट मिल ने भारतीय इतिहास का ‘हिंदू, मुस्लिम और ब्रिटिश कालों’ में जो विभाजन किया, उसका यही अंतिम परिणाम था.

ब्रिटिश इतिहासकारों ने मध्यकाल को मुस्लिम काल घोषित कर यह साबित किया कि यह समय हिंदुओं पर मुसलमानों के विजय का समय है.

इसका खंडन राष्ट्रवादी इतिहासकारों द्वारा किए जाने को लेकर हरबंस मुखिया कहते है- “।मध्यकालीन भारत के इस अनवरत साम्प्रदायिक संघर्ष के विचार का राष्ट्रवादी इतिहासकार खंडन करते थे. वे मध्यकालीन भारत के मुस्लिम शासकों की धार्मिक प्रेरणाओं की सच्चाई पर सवालिया निशान लगाते थे. उन्होंने मध्यकालीन भारत में सांप्रदायिक सद्भाव दिखाने के लिए साक्ष्य प्रस्तुत किए. उन्होंने विगत शताब्दियों में विचारों के, संस्कृति के, जीवन के क्षेत्रों में दोनों बड़े संप्रदायों के बीच पर्याप्त अंतक्रिया पर जोर दिया. ‘समन्वित संस्कृति’ की अवधारणा का विकास इसी जोर से हुआ. मध्यकालीन इतिहास को धर्म निरपेक्ष रूप प्रदान करने में इन इतिहासकारों को भूमिका को मुखिया स्वीकारते तो है, पर यह कहते हैं कि राष्ट्रवादी इतिहासकार सांप्रदायिक इतिहास लेखन का मुकाबला उसी की जमीन पर कर रहे थे. वे बताते है कि पचास के दशक के बाद ही ऐसे अनुसंधान हुए जिसमें सांप्रदायिक प्रवर्गों का कोई दखल नहीं था. वर्गीय संरचना, किसानों के शोषण के रूप और परिणाम आदि विषयों के शामिल होने पर इतिहास की सांप्रदायिक दृष्टि में बदलाव आया.

इसलिए मध्यकाल के ऐतिहासिक निरूपण में अंबेडकर अगर औपनिवेशिक इतिहास लेखन के चंगुल में फंसते है, तो यह कोई आश्चर्य की नहीं है, लेकिन यह देखा जाना महत्वपूर्ण है कि इस इतिहास दृष्टि से वे हासिल क्या करते हैं?

जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है कि इसके जरिए विभाजन की समस्या को यथार्थवादी ढंग से समझने का प्रयास कर रहे थे.

इसके बावजूद अंबेडकर के इस दृष्टि की कमजोरियों से मुंह फेर लेने कोई कारण नहीं है. अम्बेडकर भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या को इतिहास के इसी विकासक्रम में देखते हैं. वे मानते हैं कि आपसी वैमनस्य और सामाजिक, संस्कृति और धार्मिक पहचान के आधार पर परस्पर दुश्मनी भारतीयों का मूल चरित्र है. इसके लिए वे हिंदुओं और मुसलमानों में कोई भेद नहीं करते. वे कहते हैं कि “अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो” की नीति, तब तक सफल नहीं हो सकती, जबतक हमारे बीच ऐसे तत्व न हो, जो यह विभाजन संभव करा सके. और अगर यह नीति इतने लंबे सफल होती रही है, तो इसका तात्पर्य यह है कि हमारे बीच में हमारा विभाजन कराने वाले तत्व करीब करीब ऐसे है कि कभी भी सामंजस्य स्थापित नहीं हो सकता और वे क्षणिक नहीं है.

अंबेडकर यह मानते है कि हिंदुओं मुसलमानों में राजनीतिक व धार्मिक प्रतिद्वंद्विता उन तथाकथित सामूहिक बंधनों की अपेक्षा अधिक गहन है, जो उन्हें एक सूत्र में बांध सकते हैं.

वे कहते हैं कि दोनों संप्रदायों में सामूहिक चेतना का विकास तभी संभव है, जब दोनों ही समुदाय अपने अपने अतीत को विस्मृत कर दें. हिंदू खुद को भारत का भाग्य विधाता समझते है और मुसलमानों में यह चेतना रही है कि हमने हिंदुओं पर शासन किया है.

एक दूसरे के ऊपर श्रेष्ठता का यह बोध ही अम्बेडकर की नज़र में सांप्रदायिक सोच का कारण है.

अपने पुस्तक के पांचवे व अंतिम आध्याय में अंबेडकर ने पाकिस्तान की मांग के कारणों का परीक्षण किया और यह कहा कि “हिंदू राज के विरुद्ध विभाजन का विकल्प और अधिक बुरा है.”

हिंदू राज के खतरे को दूर करने और राजनीति में Communalism बहुमत को आकार लेने से रोकने के लिए, उन्होंने सुझाया कि धर्म के आधार पर राजनीतिक पार्टियों के गठन पर रोक लगाई जानी चाहिए.

उन्होंने तर्क दिया कि मुस्लिम लीग का समर्थन कर मुसलमान हिंदू महासभा को प्रायिक ध्रुवीकरण का मौका देते हैं, इसलिए ‘मुस्लिम लीग’ और ‘हिंदू महासभा’ की जगह, हिंदू-मुस्लिम धर्मों के संयुक्त जनमत के आधार पर राजनीतिक पार्टी का गठन किया जाना चाहिए.

भारत में सांप्रदायिकता और उसके समाधान की लेकर डॉ. अंबेडकर के इन विचारों का एक विशेष संदर्भ और निश्चित देश काल और परिस्थिति है.

स्वतंत्रता और विभाजन के बाद भारत में Communalism की स्थिति में मूलभूत परिवर्तन आ चुका है.

जिस समय अंबेडकर यह लिख रहे थे, उस समय तक हिंदू और मुस्लिम दो पक्ष के रूप में उपस्थित थे.

ब्रिटिश शासन प्रणाली के अंतर्गत मुसलमान को वे सभी सुविधाएं व अधिकार शामिल थे जो हिंदुओं को प्राप्त थे.

शासन, संपत्ति और राजनीतिक अधिकारों के मामले में मुस्लिम अल्पसंख्यक होते हुए भी बेहतर स्थिति में थे. इसी आधार पर ये राजनीतिक सौदेबाजी की स्थिति में थे.

यह सौदेबाज़ी आम मुसलमानों के हितों के नाम पर शुरू हुई पर धीरे-धीरे मुस्लिम लीग के नेतृत्व में मुसलमानों के प्रभावशाली तबके के राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने का जरिया बन गई.

मुस्लिम लीग की दवाब की राजनीति पर टिप्पणी करते हुए अंबेडकर ने कहा था कि–

“मुसलमानों की मांगे लगातार बढ़ती ही जा रही है और कांग्रेस उनके दबाव में झुकती जा रही है. कम्यूनल अवार्ड के मामले में भी गोलमेज परिषद में महात्मा गांधी ने मुस्लिम पक्ष की मांगों का समर्थन किया परंतु अनुसूचित जातियों के मामले में अवार्ड न मिले इसके लिए अड गए थे.

संभवत: इस कारण भी अंबेडकर यह बात कर रहे हो.

पर यह निश्चित है आज यह परिस्थिति बदली हुई है.

आज भारत के मुसलमान पहले की अपेक्षा विपन्न और राजनीतिक सामाजिक अलगाव का शिकार हैं.

ऐसे में आज भारत की सांप्रदायिक शक्तियां ‘पाकिस्तान’ का राजनीतिक इस्तेमाल बहुसंख्यक हिंदुओं के ध्रुवीकरण के लिए करते हैं.

पाकिस्तान आज एक परिघटना के रूप में भारत में शासक वर्गों के हाथ में व्यवहृत हो रहा है.

आज हमें अंबेडकर के पाकिस्तान संबंधी विचारों और Communalism पर उनके दृष्टिकोण की संवेदनशीलता को समझने, सही संदर्भों के साथ आज की समस्या के समाधान के रूप में अपनाने और लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता विरोधी शक्तियों द्वारा उनके संदर्भरहित दुरुपयोग करने की कुत्सित प्रयासों के प्रति
सचेत रहना चाहिए.

संदर्भ:

  1. पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, बाबा साहब डॉ. अंबेडकर संपूर्ण वांगमय खंड 15 पृष्ठ सं. 142 प्रकाश अंबेडकर प्रतिष्ठान, सामाणिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, तीसरा संस्करण 2013
  2. वही, पृष्ठ सं. 131
  3. इसी किताब की भूमिका से पृष्ठ 4. वहीं पृष्ठ सं. 49
  4. रिपब्लिक ऑफ कास्ट नं. नवयाना तीसरा पेपरबैक संस्करण 2021, पृष्ठ सं. 22
  5. मध्यकालीन भारत नए आयाम, हरवंस मुखिया, राजकमल प्रकाशन, पहला संस्करण 2020 पृष्ठ सं. 43
  6. पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, बाबा साहब डॉ. अंबेडकर संपूर्ण वांगमय खंड 15 पृष्ठ से. 335.अंबेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, तीसरा संस्करण 2013

नोट: यह लेख समकालीन जनमत मई 2023 से अविकल साभार उद्धृत.

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