Organic farming ने कर दिया बर्बाद, भुखमरी के कगार पर पहुंचा पूरा देश
Organic farming को लेकर भले ही लोगों में बहुत क्रेज हो और यह सेहत के लिए अच्छी मानी जाती हो लेकिन एक देश ऐसा भी है जिससे इसने बर्बाद कर दिया. हालात इतने ज्यादा खराब हो गए हैं कि लोग भुखमरी की कगार पर पहुंच गए हैं.
श्रीलंका इन दिनों भयानक आर्थिक संकट से जूझ रहा है हालात इतने ज्यादा खराब है कि देश भुखमरी की कगार पर पहुंच गया है. जानकार कहते हैं कि श्रीलंका में आए आर्थिक संकट के लिए ऑर्गेनिक फार्मिंग नीति जिम्मेदार है. गोटाबाया राजपक्षे जब राष्ट्रपति चुने गए तब कृषि से जुड़े उद्योग श्रीलंका की अर्थव्यवस्था के लिए बहुत अहम थे. लेकिन ऑर्गेनिक नीति ने सब कुछ बदल दिया.
श्रीलंका में कुल श्रम शक्ति के 25 प्रतिशत लोग कृषि क्षेत्र से जुड़े हैं. करीब 20 लाख लोग इस क्षेत्र में काम करते हैं. अगर सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी देखें तो पाएंगे कि इसमें अकेले कृषि क्षेत्र का योगदान सात फ़ीसदी है. खाद्य पर आधारित उद्योग धंधों का योगदान छह प्रतिशत है. कुल मिलाकर ये एक बड़ा हिस्सा है. श्रीलंका की घरेलू खाद्य ज़रूरत का करीब 80 प्रतिशत हिस्सा देश के छोटे किसान उगाते हैं.
यहां धान की उपज प्रमुख है. श्रीलंका में चावल के अलावा सब्जियों, फलों, नारियल, मांस और अंडों का भी अच्छा उत्पादन होता रहा है. 1960 के दशक में विकासशील देशों के लिए चलाए गए ‘हरित क्रांति’ अभियान के तहत श्रीलंका में उपज बढ़ाने के प्रयास शुरू हुए. इसमें उन्नत किस्मों को आजमाया गया. आधुनिक तकनीक इस्तेमाल की गई. पैदावार बढ़ाने के लिए बहुतायत में पोषक तत्व इस्तेमाल किए गए.
श्रीलंका में रासायनिक खाद का उत्पादन नहीं होता. 1960 के दशक से ही खाद बाहर से आयात की जाती है. छोटे किसानों पर बोझ न पड़े इसके लिए उन्हें 90 प्रतिशत तक सब्सिडी दी गई. श्रीलंका चीनी, गेहूं और दूध का भी आयात करता है. ये देश चाय, नारियल और मसाले निर्यात कर अपने आयात बिल का भुगतान करता रहा है. श्रीलंका से होने वाले कुल निर्यात में खेती की हिस्सेदारी करीब 20 प्रतिशत थी. पर्यटन भी विदेशी मुद्रा का बड़ा स्रोत था. साल 2020 की शुरुआत में कोरोना महामारी की वजह सैलानियों का आना अचानक रुक गया और श्रीलंका को बड़ा झटका लगा.
सरकार क्यों लाई Organic farming नीति?
रासायनिक खाद से जुड़ी एक और दिक्कत थी. हरित क्रांति के बाद पैदावार तो बढ़ी लेकिन बीमारियों के मामले भी सामने आने लगे. कुछ लोगों ने आशंका जाहिर की कि किसान जो रासायनिक खाद इस्तेमाल करते हैं, वही इस बीमारी की वजह है. किसान जब खाद और कीटनाशक छिड़कते हैं तो सुरक्षा से जुड़े दिशा निर्देशों का पालन नहीं करते और सावधानी नहीं रखते. ऐसे में खेती से जुड़े लोग बिना रासायनिक खाद के खेती करके देखना चाहते थे. तब सरकार ने तय किया कि ये खेती में क्रांतिकारी बदलाव का समय है.
राष्ट्रपति राजपक्षे ने बीते साल अप्रैल में घोषणा की कि नई नीति के जरिए वो स्वास्थ्य से जुड़ी इन चिंताओं का समाधान करेंगे. सरकार ने रासायनिक खादों पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी. देश के तमाम खेत सौ प्रतिशत ऑर्गेनिक यानी पूरी तरह जैविक खाद पर निर्भर होने जा रहे थे. तब ये भी बताया गया कि श्रीलंका को काफी विदेशी मुद्रा हासिल हो सकती है लेकिन असल मुद्दा स्वास्थ्य था. श्रीलंका ऐसा पहला देश नहीं है जिसने पूरी तरह ऑर्गेनिक होने की कोशिश की हो. साल 2014 में भूटान ने भी ऐसा एलान किया था.
भूटान ने लक्ष्य हासिल करने के लिए छह साल का वक़्त तय किया था. वो इसके लिए साल 2003 से तैयारी कर रहे थे लेकिन भूटान मुश्किल में घिर गया और उन्हें अपनी कुल ज़रूरत का 50 फ़ीसदी से ज़्यादा अनाज आयात करना पड़ा. श्रीलंका में भी विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे थे लेकिन उन्हें नज़रअंदाज़ कर दिया गया. पूरी दुनिया कोविड महामारी से जूझ रही थी. पर्यटकों के नहीं आने से श्रीलंका की आर्थिक स्थिति चरमरा रही थी. इस बीच ऑर्गेनिक क्रांति ने स्थिति को और मुश्किल बना दिया.
जल्दी ही साफ़ हो गया कि किसानों की उपज घट रही है. उनके रोज़गार और आमदनी पर भी संकट छा गया. श्रीलंका में चावल की दो फसल होती हैं. पहला येलो सीजन मई से सितंबर तक होता है. चावल की फसल के लिहाज से जो प्रमुख सीजन है उसकी शुरुआत सितंबर में होती है और ये मार्च में खत्म होता है. चावल की मुख्य फसल के दौरान पर्याप्त खाद उपलब्ध नहीं थी. पूरी दुनिया में खाद की कीमतें भी बढ़ रही थीं. श्रीलंका के किसानों पर इसका असर हुआ. उन्हें अब खाद पर सब्सिडी भी नहीं मिल रही थी. ऐसे में फसल को 40 प्रतिशत नुक़सान का अनुमान लगाया गया. इसका असर देश की खाद्य सुरक्षा पर भी हुआ.
लागू होने के कुछ ही महीनों में ही ऑर्गेनिक प्लान फेल होने लगा और लोग गुस्से में उबलने लगे. खाने के सामने की कमी होने लगी. दाम बढ़ने लगे और इस नीति के ख़िलाफ़ देश भर में प्रदर्शन होने लगे. देश में खाद्य संकट खड़ा हो गया. स्थिति संभालने के लिए श्रीलंका सरकार को भारत और म्यांमार से 40 लाख मीट्रिक टन चावल मंगाना पड़ा. Organic farming की नाकामी उजागर हो चुकी थी लेकिन फिर भी बीते साल नवंबर में राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने ग्लासगो के COP 26 सम्मेलन में ऑर्गेनिक खेती को लेकर अपनी प्रतिबद्धता दोहराई. लेकिन कुछ ही हफ़्ते बाद उनकी सरकार ‘यू टर्न’ यानी अपना फ़ैसला पलटने पर मजबूर हो गई.
नवंबर के आखिर में सरकार ने प्रतिबंध पर आंशिक छूट दे दी और रासायनिक खाद आयात करने की अनुमति दी. ये छूट चाय, रबर और नारियल जैसी निर्यात होने वाली अहम फसलों के लिए थी. ये फसल विदेशी मुद्रा के लिए अहम हैं. इसके जरिए देश को करीब 1.3 अरब डॉलर की रकम मिलती है. लेकिन ये फ़ैसला होने तक श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को बड़ी चोट लग चुकी थी. ये इंसान की पैदा की गई त्रासदी है. इससे बाहर आने में बरसों का वक़्त लग सकता है. रासायनिक खाद इस्तेमाल करने वाले किसान अब खेती तक छोड़ने की बात सोच रहे हैं.
भारी आर्थिक संकट की शुरुआत
भारी आर्थिक संकट के बीच लोगों के बढ़ते गुस्से का असर लगातार दिखा. पहले मंत्रियों और फिर प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे को इस्तीफ़ा देना पड़ा और उनकी जगह रनिल विक्रमसिंघे छठी बार प्रधानमंत्री बने. सरकार ने पाबंदी से प्रभावित हुए दस लाख ज़्यादा किसानों के लिए 20 करोड़ डॉलर के पैकेज का एलान किया है. कुछ आर्थिक दिक्कतें श्रीलंका के काबू के बाहर हैं. मसलन जिन चीजों को बाहर से आयात किया जाता है, उनकी कीमतें नए रिकॉर्ड बना रही हैं. लेकिन रासायनिक खादों पर पाबंदी देश के लिए आत्मघाती गोल जैसी थी.
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