उत्तराखंड में आ सकती है आपदा, पहाड़ों से जुड़ी इस रिपोर्ट में चौंकाने वाला खुलासा
उत्तराखंड आपदा के निशान अभी भी मिले नहीं हैं की एक और आपदा की दस्तक सुनाई देने लगी है. पहाड़ों पर सब कुछ ठीक नहीं है और यहां रहने वाले लोगों के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं.
पहाड़ी क्षेत्रों पर रहने वाले लोगों के लिए हालात खतरनाक होते जा रहे हैं. आपदाओं की संख्या भी बढ़ रही है और हिमालय की गोद में बसे गांव भी अब सुरक्षित नहीं रह गए. उत्तराखंड के चमोली में ऐतिहासिक रैणी गांव को सरकार द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ टीम ने असुरक्षित घोषित कर दिया है.
इन गांवों से लोगों को हटाकर दूसरी जगह बसाना एक बड़ी समस्या है क्योंकि पहाड़ों में बसावट के लिये ज़मीन का अभाव है.
रैणी गांव इकलौता ऐसा गांव नहीं है जिसको असुरक्षित माना जा रहा हो. उत्तरकाशी से करीब बीस किलोमीटर दूर कठिन पहाड़ी पर बसा है एक छोटा सा गांव ढासड़ा गांव भी असुरक्षित क्षेत्र में आ गया है. 200 लोगों की आबादी वाला ढासड़ा पिछले कई सालों से लगातार दरक रहा है. हालात ऐसे कि मॉनसून या खराब मौसम में यहां लोग रात को अपने घरों में नहीं सोते बल्कि गांव से कुछ किलोमीटर ऊपर पहाड़ी पर छानियां (प्लास्टिक के अस्थायी टैंट) लगा लेते हैं क्योंकि पहाड़ से बड़े-बड़े पत्थरों के गिरने और भूस्खलन का डर हमेशा बना रहता है. इसलिये जब लोग जान बचाकर ऊपर पहाड़ी पर भागते हैं तो रात के वक्त गांव में बहुत बीमार या बुज़ुर्ग ही रह जाते हैं क्योंकि वह पहाड़ पर नहीं चढ़ सकते।
पहाड़ों के वह गांव जहां हमेशा रहता है जान का खतरा
उत्तराखंड में असुरक्षित गांव की एक बड़ी संख्या हो गई है. ढासड़ा अकेला ऐसा गांव नहीं है. बल्कि यहां सैकड़ों ऐसे असुरक्षित गांव हैं जहां से लोगों को हटाया जाना है और ये बात सरकार खुद मानती है. ढासड़ा से कुछ दूर स्थिति भंकोली गांव है जहां रहने वाले लोग आए दिन खौफ के साए में रहते हैं. इस गांव में पहाड़ काटकर निकाली गई सड़क ने गांव को असुरक्षित कर दिया है. आलम यह है कि लोग गांव को छोड़कर जाने के बारे में सोचने लगे हैं और बहुत से लोग पलायन भी कर गए हैं.
कुछ साल पहले सरकार ने उत्तराखंड में 376 संकटग्रस्त गांवों की लिस्ट बनाई जहां से लोगों को तुरंत हटाया जाना चाहिये लेकिन असल में इन गांवों की संख्या कहीं अधिक है. सरकारी अधिकारी मानते हैं कि दो दर्जन से अधिक ‘असुरक्षित’ गांव तो चमोली ज़िले में ही हैं जिन पर आपदा का ख़तरा बना रहता है. यहां इस साल फरवरी में ऋषिगंगा नदी में बाढ़ आई तो इसके किनारे बसे रैणी – जो पहले ही असुरक्षित माना जाता था – में लोग गांव छोड़कर ऊपर पहाड़ों पर चले गये. अब रैणी को सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ कमेटी ने असुरक्षित घोषित कर यहां के निवासियों को किसी और जगह बसाने की सिफारिश की है.
इसी तरह चमोली का ही चाईं गांव भी संकटग्रस्त है और असुरक्षित माना जाता है. यहां हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट के लिये की गई ब्लास्टिंग और टनलिंग (सुरंगें खोदना) से गांव दरकने लगे हैं और लोग असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. इस गांव में कभी रसीले फलों की भरमार थी जो फसल अब पानी की कमी के कारण नहीं होती.
साल 2013 में केदारनाथ आपदा में 6000 से अधिक लोग मारे गये थे और कई गांव तबाह हुये. रुद्रप्रयाग ज़िले में (जहां केदारनाथ धाम स्थित है) भी बहुत से गांव ऐसे हैं जहां रहना ख़तरे से खाली नहीं है लेकिन लोग मजबूरी में अब भी वहां टिके हैं.
हिमालय में आपदाओं की बढ़ती मार
बाढ़ आना, बादल फटना और भूस्खलन तो हिमालयी क्षेत्र में आम है लेकिन इनकी मारक क्षमता और ऐसी घटनाओं की संख्या अब लगातार बढ़ रही है. जहां एक ओर असुरक्षित और बेतरतीब निर्माण को लेकर कई विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं तो कई जानकार मानते हैं कि जंगलों के कटने और जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव का भी असर है.
भू-विज्ञानियों की चेतावनी, ऐतिहासिक रैणी के पुनर्वास की सिफारिश
फरवरी में चमोली में आई बाढ़ के बाद ज़िला प्रशासन ने आपदा प्रबंधन विभाग से रैणी क्षेत्र का भूगर्भीय और जियो-टैक्निकल सर्वे करने को कहा. इस सर्वे के लिये उत्तराखंड डिजास्टर रिकवरी इनीशिएटिव के तीन जानकार वेंकटेश्वरलु (जियोटेक एक्सपर्ट), जीवीआरजी आचार्युलू (भूगर्भविज्ञानी) और मनीष सेमवाल (स्लोप स्टेबिलाइजेशन एक्सपर्ट) शामिल थे. महत्वपूर्ण है कि रैणी 1970 के दशक में उत्तराखंड के ऐतिहासिक वृक्ष बचाओ आंदोलन चिपको का गवाह रहा जिसमें महिलाओं की अग्रणी भूमिका थी लेकिन इन विशेषज्ञों ने सर्वे के बाद सरकार को जो रिपोर्ट दी है उसमें साफ कहा है, “रैणी गांव अपने मौजूदा हाल में काफी असुरक्षित है और इसके स्लोप स्टेबिलाइजेशन (ढलानों को सुरक्षित बनाने) की ज़रूरत है।”
उत्तराखंड में समस्या ये है कि असुरक्षित इलाकों से हटाकर लोगों के पुनर्वास के लिये बहुत ज़मीन नहीं है. यह भी एक सच है कि किसी गांव के लोग विस्थापित को अपने यहां बसाना नहीं चाहते क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे पहले से उपलब्ध सीमित संसाधनों पर दबाव बढ़ेगा.
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