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‘किसान कितना भी आंदोलन करें कृषि कानून रद्द नहीं होगा’

मोदी सरकार किसी भी कीमत पर कृषि कानून रद्द करने के मूड में नहीं है. किसान आंदोलन कर रहे किसान संगठन लगातार कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग कर रहे हैं लेकिन सरकार ऐसा कोई कदम उठाने नहीं जा रही.

पिछले 14 दिनों से दिल्ली बॉर्डर पर जो किसान कृषि कानूनों को रद्द कराने के लिए आंदोलन कर रहे हैं उन्होंने भारत को खाद्य संकट से निकालने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. पंजाब और हरियाणा के किसानों ने गेहूं और चावल का रिकॉर्ड उत्पादन करके देश का पेट भरा है. सरकार ने भी इन किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए एमएसपी की शुरुआत की थी. एमएसपी से आज भी सबसे ज़्यादा हरियाणा और पंजाब के किसानों को फ़ायदा होता है. सरकार ने इनके लिए दूसरी सब्सिडी भी सुनिश्चित की. लेकिन अब इन किसानों को लग रहा है कि सरकार एमएसपी से छुटकारा पाना चाहती है क्योंकि देश खाद्य संकट से बाहर निकल गया है.

मोदी सरकार ने जो नए तीन क़ानून बनाए हैं उनमें कृषि उपज की मंडी, ख़रीदारी और उत्पादन को नियंत्रण मुक्त करने पर ज़ोर है. पंजाब हरियाणा के किसानों को लग रहा है कि वो बाक़ी राज्यों के किसानों की तरह हो जाएंगे जिन्हें अपनी उपज औने-पौने दाम में बेचना पड़ता है. ऐसे में वो सड़क पर डटे हुए हैं कि एमएसपी जैसी व्यवस्था सरकारी मंडी हो या निजी मंडी हर जगह अनिवार्य होनी चाहिए. तो क्या किसानों की यह मांग नाजायज है. क्या सरकार किसानों को अपनी मंशा समझाने में नाकाम रही है. यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि एक किसान आंदोलन से पीछे हटने को तैयार नहीं और सरकार कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए तैयार नहीं.

किसान क्यों डरा हुआ है?

किसान आंदोलन के मकसद को समझने के लिए आपको एमएसपी को बारीकी से समझना होगा. बात 1964 की है यह वह वक्त था जब भारत खाद्य संकट से जूझ रहा था. उस वक्त देश की कमान लाल बहादुर शास्त्री के हाथ में थी. 1964 में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अपने सचिव लक्ष्मी कांत झा (एलके झा) के नेतृत्व में खाद्य-अनाज मूल्य समिति का गठन किया था. प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का कहना था कि किसानों को उनकी उपज के बदले कम से कम इतने पैसे मिलें कि नुकसान ना हो. इस कमिटी ने अपनी रिपोर्ट 24 सितंबर को सरकार को सौंपी और अंतिम मुहर दिसंबर महीने में लगी.

1966 में पहली बार गेंहू और चावल के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय किए गए. एमएसपी तय करने के लिए कृषि मूल्य आयोग का गठन किया गया, जिसका नाम बदल कर कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) कर दिया गया. 1966 में शुरू हुई ये परंपरा आज तक चली आ रही है. आज सीएसीपी के सुझाव पर हर साल 23 फसलों की एमएसपी तय की जाती है. किसान अपनी फसल, खेत से राज्यों की अनाज मंडियों में पहुँचाते हैं. इन फसलों में गेंहू और चावल को फूड कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया एमएसपी दर से ख़रीदती है. एफसीआई किसानों से ख़रीदे इन अनाजों को ग़रीबों के बीच सस्ती दर पर देती है. लेकिन एफसीआई के पास अनाज का स्टॉक इसके बाद भी बचा ही रहता है. ग़रीबों के बीच अनाज पीडीएस के तहत दिया जाता है.

साल 2015 में एफसीआई के पुनर्गठन पर सुझाव देने के लिए शांता कुमार कमिटी बनाई गई थी. कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि एमएसपी का लाभ सिर्फ़ 6 फ़ीसदी किसानों को मिल पाता है. यानी 94 फ़ीसदी किसानों को एमएसपी का लाभ कभी मिला ही नहीं.

पीडीएस, भारतीय खाद्य सुरक्षा प्रणाली है, जो दुनिया की सबसे मंहगी खाद्य सुरक्षा प्रणाली में से एक बताई जाती है. इस योजना के तहत भारत सरकार और राज्य सरकार साथ मिलकर ग़रीबों के लिए सब्सिडी वाले खाद्य और ग़ैर-खाद्य वस्तुओं को वितरित करती हैं. नए कृषि क़ानून के आने के बाद से किसानों को लग रहा है कि अब प्राइवेट प्लेयर बाज़ार में आ जाएँगे और मंडी व्यवस्था ख़त्म हो जाएगी. ऐसे में उनकी एमएसपी की सुनिश्चित आय ख़त्म हो जाएगी. यहाँ ग़ौर करने वाली बात ये है कि एमएसपी चाहे 23 फसलों के लिए हर साल घोषित हो, सरकार गेंहू, चावल के अलावा कपास जैसी एक दो और फसलें ही हैं जो मंडी में जाकर एमएसपी दर से किसानों से ख़रीदती है.

क्या खत्म हो जाएगी मंडी व्यवस्था?

सरकार ने जो तीन क़ानून बनाए हैं उनमें से एक है, कृषक उपज व्‍यापार और वाणिज्‍य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक 2020.  इसके तहत किसानों और व्यापारियों को एपीएमसी की मंडी से बाहर फसल बेचने की आज़ादी होगी. किसानों को डर सता रहा है कि इससे मंडियाँ बंद हो जाएँगी. केंद्र सरकार का कहना है कि वह एपीएमसी मंडियां बंद नहीं कर रही है बल्कि किसानों के लिए ऐसी व्यवस्था कर रही है जिसमें वह निजी ख़रीदार को अच्छे दामों में अपनी फसल बेच सकें. लेकिन सरकार के इस तर्क से किसान संतुष्ट नहीं हैं.

देश भर में 6000 से ज़्यादा एपीएमसी की मंडियाँ हैं, जिनमें से 33 फ़ीसदी मंडियाँ अकेले पंजाब में हैं. 

यही कारण है कि एफसीआई गेहूं और चावल पंजाब से खरीदती है. इन मंडियों में एमएसपी पर गेंहू ख़रीदने पर सरकार को उसके ऊपर मंडी टैक्स, अढ़तिया टैक्स, और रूरल डिवेलपमेंट सेस के तौर पर अलग से कुछ और पैसा चुकाना पड़ता है. इससे राज्य सरकार के ख़जाने भी भरते हैं. पंजाब में तीनों टैक्स मिला कर सबसे ज़्यादा 8.5 फ़ीसदी अतिरिक्त ख़र्च आता है. हरियाणा में ये अतिरिक्त ख़र्च 6.5 फ़ीसदी है. अब जो लोग यह सवाल कर रहे हैं क्या आंदोलन में पंजाब और हरियाणा का किसान ही शामिल है उनको यह समझना चाहिए कि ऐसा क्यों है. उनको यह भी समझना चाहिए कि जब संपन्नता की बात होती है तब भी पंजाब और हरियाणा का किसान ही आगे होता है. ऐसे में जब किसानों को लग रहा है कि कृषि कानून एमएसपी और मंडी व्यवस्था पर चोट करेंगे तो वह आंदोलन कर रहे हैं. लेकिन अभी तक सरकार का रुख स्पष्ट है कि वह कृषि कानूनों को रद्द करने वाले नहीं है.

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