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दोमुंही राजनीति का शिकार हैं भारत के पत्रकार

भारत में प्रेस की आजादी को लेकर बहस छिड़ी हुई है. रिपब्लिक टीवी के मालिक अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी के बाद पत्रकारों और सरकार का एक बड़ा तबका महाराष्ट्र सरकार के इस कदम को दमनकारी बता रहा है. लेकिन यही लोग हाथरस मामले की रिपोर्टिंग करने के मामले में हुई एक पत्रकार की गिरफ्तारी पर मौन है.

मोदी कैबिनेट में 22 केंद्रीय मंत्री हैं और टॉप टू बॉटम सभी ने एक सुर में अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी का विरोध किया है. सभी ने इसे प्रेस की आजादी पर हमला बताते हुए अर्नब गोस्वामी को रिहा करने की मांग की है. बीजेपी शासित सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार के मुखिया उद्धव ठाकरे का विरोध किया है. विरोध करने वालों में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी शामिल हैं. वही योगी आदित्यनाथ जो हाथरस रेप केस की रिपोर्टिंग करने के लिए बीते 1 महीने से एक पत्रकार को मथुरा जेल में बंद किए हुए हैं.

दो पत्रकार और दोनों के लिए अलग-अलग रवैया

क्या पत्रकारों के साथ दो मुंही ही राजनीति नहीं हो रही है? यह प्रश्न इसलिए लाज़मी हो जाता है क्योंकि पांच अक्टूबर को उत्तर प्रदेश में गिरफ्तार किए गए पत्रकार सिद्दीक कप्पन को अभी तक किसी वकील से बात नहीं करने दिया गया है. उनकी जमानत याचिका पर सुप्रीम कोर्ट पहली सुनवाई गिरफ्तारी के लगभग डेढ़ महीने बाद 16 नवंबर को करेगा. बीते 1 महीने से कप्पन मथुरा जेल में बंद हैं. पुलिस प्रशासन से लेकर न्यायपालिका तक और काफी हद तक सियासत भी कप्पन को लेकर चुप्पी साधे बैठी है.

कप्पन और गोस्वामी में फर्क क्यों?

कप्पन को पांच अक्टूबर को मथुरा में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था जब वो हाथरस में सामूहिक बलात्कार की पीड़िता के परिवार के सदस्यों से मिलने उनके गांव जा रहे थे. उनके साथ अतीक-उर-रहमान, मसूद अहमद और आलम नामक तीन एक्टिविस्टों को भी गिरफ्तार किया गया था और चारों के मोबाइल, लैपटॉप और कुछ साहित्य को जब्त कर लिया गया. पुलिस ने दावा किया था कि चारों पॉप्युलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) नामक संस्था के सदस्य हैं.

केरल यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स (केयूडब्लयूजे) ने उसी समय कहा था कि सिद्दीक कप्पन पत्रकार हैं और संगठन की दिल्ली इकाई के सचिव भी हैं. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पहले से पीएफआई के खिलाफ रहे हैं. उन्होंने संस्था को राज्य में नागरिकता कानून के खिलाफ पिछले साल शुरू हुए विरोध प्रदर्शनों का जिम्मेदार ठहराया था और उस पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी.

1 महीने से जेल में है कप्पन

लेकिन कप्पन के पीएफआई के सदस्य होने का सार्वजनिक रूप से कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है. इसके बावजूद उनके खिलाफ आईपीसी की धारा 124ए (राजद्रोह), 153ए (दो समूहों के बीच शत्रुता फैलाना), 295ए (धार्मिक भावनाओं को आहत करना), यूएपीए और आईटी अधिनियम के तहत आरोप लगाए गए हैं. बाद में उनके खिलाफ जाति के आधार पर दंगे भड़काने की साजिश और राज्य सरकार को बदनाम करने की साजिश के आरोप भी लगा दिए गए.

कप्पन से ना तो उनके परिवार को मिलने दिया जा रहा है और ना ही उनके वकील को. वही अर्नब गोस्वामी के पक्ष में पूरी बीजेपी खड़ी हुई है. कई पत्रकारों ने एक सुर में महाराष्ट्र सरकार के इस कदम की आलोचना की है. लेकिन वही केंद्रीय मंत्री वही पत्रकार जो अर्नब की गिरफ्तारी का विरोध कर रहे हैं वही लोग योगी सरकार के कदम पर कुछ भी बोलने से बच रहे हैं. तो सवाल यह है कि यह सिलेक्टिव एप्रोच क्यों? जबकि अर्नब गोस्वामी को पुलिस ने दो लोगों की आत्महत्या के बाद मिले सुसाइड नोट के आधार पर गिरफ्तार किया है और कप्पन को यूपी पुलिस ने हाथरस मामले की रिपोर्टिंग करने के लिए गिरफ्तार किया है.

कप्पन के मामले में फ्रीडम ऑफ प्रेस कहां गई?

तो अगर दोनों मामलों को देखें तो फ्रीडम ऑफ प्रेस पर असली हमला कप्पन के मामले में हुआ है ना कि अर्नब गोस्वामी के मामले में. कप्पन के साथ जो हो रहा है वो यह दर्शाता है कि देश में छोटे शहरों, कस्बों और ग्रामीण इलाकों में काम करने वाले पत्रकारों के साथ क्या क्या होता है. गोस्वामी और कप्पन के मामलों में कई बड़े अंतर हैं. एक तो कप्पन के खिलाफ लगाए गए आरोपों का कोई स्पष्ट आधार नहीं है जबकि गोस्वामी का नाम उस व्यक्ति की आखिरी चिट्ठी में है जिसकी आत्महत्या के मामले में उन्हें गिरफ्तार किया गया है. दूसरा अंतर यह कि गोस्वामी भले ही अभी तक जेल में हों, लेकिन उन्हें एक दिन के अंदर ही अदालत तक पहुंचने का मौका और फिर सुनवाई की तारीख भी मिल गई है.

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