बेहद सरल, बातचीत का लहजा बेहद सादा, आवाज में कड़कपन, संघर्ष से सियासत तक का सफर और अपनी जिम्मेदारी का अहसास. ये खूबियां तेलंगाना (मुलुग) में कांग्रेस पार्टी की महिला विधायक दानासारी अनसूया (सीतक्का) को बाकी नेताओं से अलग करती हैं. पार्टी के साथी और क्षेत्र के लोग दानासारी अनसूया को ‘सीतक्का’ कहते हैं. अगर आप उनकी ट्विटर टाइम लाइन देखें तो आप समझ पाएंगे की कोरोना के समय में उन्होंने अपने विधानसभा क्षेत्र में हाशिए पर मौजूद लोगों की कितनी सेवा की है.
19 मई 2020 तक दानासारी अनसूया (सीतक्का) अपने विधानसभा क्षेत्र में 500 से ज्यादा गांव में चावल, सब्जियां, तेल और खाने-पीने का जरूरी सामान पहुंचा चुकी थीं. वो लॉकडाउन के बाद से लगातार घर-घर जाकर लोगों से मिल रही हैं. उनके दुख-दर्द को समझ रही हैं और उनकी मदद कर रही हैं. सीतक्का सोशल मीडिया पर काफी एक्टिव रहती हैं उन्होंने लॉकडाउन के एक-एक दिन का हिसाब लोगों को दिया है और बताया है कि कैसे उन्होंने अपने क्षेत्र में उन इलाकों तक मदद पहुंचाई है जहां पहुंचना बहुत मुश्किल है. वो सोशल मीडिया पर #GoHungerGo चला रही हैं और लोगों को बता रही हैं कि मुश्किल वक्त में वो लोगों की मदद के लिए खड़ी हैं.
‘सीतक्का’ अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की महासचिव हैं और इस समय छत्तीसगढ़ महिला कांग्रेस की इंचार्ज भी हैं. उन्होंने अपने जीवन के 11 साल नक्सल कमांडर के तौर पर बिताए हैं. ये वो वक्त था जब उन्होंने अपने हाथों में बंदूक उठाई थी. दानासारी अनसूया उस वक्त सुर्खियों में आईं जब उन्होंने 19 अप्रैल को ट्विटर पर चल रहे #MeAt20 कैंपेन के तहत दो तस्वीरें पोस्ट की थी. एक तस्वीर तब की थी जब वो 20 साल की थीं और नक्सल कमांडर थीं और दूसरी तस्वीर अभी की थी.
सीतक्का का ये ट्वीट करीब 300 बार रीट्वीट किया गया, इसमें उन्होंने लिखा था. “चाहें मैं गन के साथ हूं या गनमैन के साथ, ये कमजोर वर्गों के लिए है. भोजन, कपड़ा और आश्रय मैं इन लोगों के लिए हमेशा चाहती रही हूं.” सीतक्का अपने अतीत के बारे में बताने के हिचकती नहीं बल्कि वो लगातार उन दिनों को याद कर करती हैं. 13 अप्रैल को उन्होंने एक फोटो ट्वीट किया जिसमें वो एक बैलगाड़ी के साथ नदी पार कर रही थीं. उन्होंने उस फोटो के साथ लिखा कि जब वो नक्सल थीं तब बंदूक के साथ ये नदी पार करती थीं आज सब्जी, फल, चावल और खाने-पीने के सामान के था.
इस ट्वीट के बाद उन्होंने एक और ट्वीट किया करीब 6 दिनों बात जिसमें उन्होंने एक बुजुर्ग महिला के साथ तस्वीर पोस्ट करते हुए लिखा कि जब मैं नक्सलवाद से जुड़ी थी तब ये लोग हमें खाना खिलाते थे आज मैं इन्हें खाना दे रही हूं.
सीतक्का एक दशक से ज्यादा समय तक तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) में रहीं और 2018 के आखिर में उन्होंने कांग्रेस का हाथ थामा. हालांकि उनको सोशल मीडिया के साथ जमीन पर भी काफी जनसमर्थन मिला हुआ है लेकिन कांग्रेस पार्टी में कभी इसको लेकर उन्हें प्रोत्साहित नहीं किया गया. अप्रैल महीने की शुरुआत में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय ने सीतक्का का जिक्र किया तब उनके काम की चर्चाएं शुरु हुईं.
तेलंगाना प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कार्यकारी अध्यक्ष और मलकजगिरी के सांसद अनमुला रेवंत रेड्डी सीतक्का के काम की तारीफ करते हुए कहते हैं कि उन्होंने अपने क्षेत्र में जिस तरह से गरीबों और जरूरतमंदों की मदद की है वो काबिलेतारीफ है. वो कहते हैं कि वो ईमानदार हैं और उनमें शीर्ष नेता के तौर पर उभरने की पूरी क्षमता है.
कोया आदिवासी समुदाय से हैं ‘सीतक्का’
कोरोना काल में तेलंगाना के भीतर कांग्रेस के लिए सीतक्का जैसे नेता एक उम्मीद हैं. एक ऐसी उम्मीद जो पार्टी को ना सिर्फ राज्य में बल्कि देश की राजनीति में भी खड़ा करने का दम रखते हैं. सीतक्का कोया आदिवासी समुदाय से आती हैं. उन्हें विधायक बनाने में गांव-देहात और शहरी गरीबों के वोटों की बड़ी भूमिका है. उन्हें दलित और आदिवासी समुदाय का भरपूर सहयोग मिला है. कोरोना के समय में आपने ऐसे कितने नेताओं को देखा है जो हाथों थैला उठाए अपने क्षेत्रों में, दुर्गम रास्तों को पार करते हुए, बस्ती बस्ती घूम-घूम कर लोगों को राहत सामिग्री पहुंचा रहे हैं. लेकिन सीतक्का अपने क्षेत्र में पिछले करीब दो महीनों से लगातार लोगों की सेवा कर रही हैं. जहां तक गाड़ी, ट्रैक्टर या बैलगाड़ी जा सकती है वहां तक उनके सहारे नहीं तो पैदल ही वो लोगों तक पहुंकर उन्हें खाने-पीने का सामान पहुंचा रही हैं.
नक्सल कमांडर से लेकर डॉक्टरेट तक
अनसुया 1988 में नक्सल रैंक ज्वाइन की थी. उस वक्त वो 10वीं में पढ़ रहीं थीं. 1992 में उनका ग्रुप पांच और नक्सल ग्रुप के साथ जुड़ गया. सीतक्का जनशक्ति विचारक चंद्रा पुला रेड्डी से प्रभावित थीं और उन्होंने तेलंगाना (अविभाजित आंध्र) में नक्सल आंदोलन से जुड़ने का फैसला किया था. सीतक्का की खासियत ये है कि वो अपने अतीत के अनुभवों को वर्तमान से जोड़कर राजनीति में यकीन रखती हैं. उन्होंने बताया कि, ‘मैं कई रातें बिना सोए गुजारी हैं. पूरे दिन बिना खाए पीए मैं जंगलों में पैदल चली हूं. जब मैं जंगलों में रहती थी तब मैंने सीखा कि प्रतिबद्धता और कंधे से कंधा मिलाकर चलने में कितनी शक्ति है.’
अनसुया ने 1997 में जनशक्ति छोड़ दी और दोबारा से पढ़ाई करने का फैसला किया. बारहवीं की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने वकालत की और वारंगल में प्रैक्टिस शुरु कर दी. उन्होंने उन लोगों को इंसाफ दिलाने का काम किया जो हाशिए पर हैं. उन नक्सलियों की कानूनी मदद की जो सरेंडर करना चाहते थे.
सक्रिय राजनीति में कैसे हुई एंट्री ?
वो 2004 का साल जब अनसुया सीतक्का ने टीडीपी से अपनी राजनीति पारी की शुरुआत की. ये मुश्किल निर्णय था क्योंकि टीडीपी के साथ उनकी विचारधारा का टकराव था. सीतक्का बताती हैं कि नारा चंद्रबाबू नाएडू से वो एनकाउंटर किलिंग को लेकर असहमत थीं. क्योंकि 1995 से 2004 के बीच आंध्र प्रदेश में टीडीपी की सरकार थी और इस दौरान एनकाउंटर किलिंग चरम पर थी. अनसुया के भाई जो खुद नक्सलवाद से जुड़े थे वो भी इसी किलिंग में मारे गए थे. लेकिन वो टीडीपी के साथ इसलिए जुड़ी क्योंकि टीडीपी सरकार राज्य में गरीब, आदिवासी और वंचित तबकों तक शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार पहुंचा रही थी.
2004 में अनसुया ने टीडीपी की टिकट पर विधानसभा का चुनाव लड़ा लेकिन हार गईं. हारने के बाद अगले पांच सालों तक उन्होंने जमीन पर अपनी ताकत बढ़ाने का काम किया. लोगों से मिलीं. उनके सुख दुख में शामिल हुईं. और 2009 के विधानसभा चुनाव में वो मुलुग से चजीत गईं. मुलुग आदिवासी बाहुल्य सीट है. इसके बाद जब 2014 में आंध्र का विभाजन होने के बाद तेलंगाना में पहला चुनाव हुआ तो अनसुया चुनाव हार गईं. क्योंकि ये वो दौर था जब तेलंगाना में टीआरएस का उदय हुआ था. हार के बाद भी उन्होंने अपनी जमीन नहीं छोड़ी और लगातार जमीन पर काम करती रहीं. उसका फायदा उन्हें 2018 में हुआ जब उन्होंने टीडीपी छोड़कर कांग्रेस ज्वाइन की और मुलुग से जीत दर्ज की.
अनसुया के कांग्रेस में आने से तेलंगाना में कांग्रेस को आदिवासी बहुल सीटों पर फायदा हुआ है. लंबादा और कोया आदिवासी समूहों का समर्थन कांग्रेस को मिला है. ये इसलिए भी अहम है क्योंकि उन्होंने 2018 के चुनाव में टीआरएस के अजमीरा चंदूलाल को हराया था जो लांबदा कम्यूनिटी से आते हैं. ये कम्यूनिटी तेलंगाना में कुल आदिवासी आबादी का 64 फीसदी है. राज्य में करीब 32 लाख लोग इस कम्यूनिटी से आते हैं. वहीं जिस कम्यूनिटी से अनसुया आती हैं वो सिर्फ 15 फीसदी है यानी करीब 3.5 लाख. ये आंकड़े बताते हैं कि सीतक्का की लोकप्रियता आदवासियों के बीच कितनी है.
अनसुया मुलुग में ना सिर्फ कोया कम्यूनिटी तक बल्कि गुट्टी कोया कम्यूनिटी तक मदद पहुंचा रही है. गुट्टी कोया कम्यूनिटी छत्तीसगढ़ से आती है और ये 25 मार्च को बॉर्डर पार करके तेलंगाना में आ गए थे. ये पूरी तरह से सरकारी मदद पर ही निर्भर हैं और अनसुया इनका एकमात्र सहारा हैं. मौजूदा हालात में आलम ये है कि अनसुया को सीतक्का के नाम से पूरा वारंगल इलाका जानता है. मुलुग पहले वारंगल का ही हिस्सा था.
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अनसुया सीतक्का कहती हैं कि वो जंगलों में आदिवासी समुदाय की सेवा करने के लिए इसलिए गईं क्योंकि वो उस वादे को निभा रही हैं जो उन्होंने मुलुग के आदिवासी समुदाय से किया है. वो कहती है कि मुझे ये वादा अपने नक्सल के दिनों से याद है. वो ये सवाल भी करती है कि कोई बता सकता है कि कितने विधायक ऐसे हैं जो इस तरह इन दुर्गम इलाकों में लोगों तक मदद पहुंचा रहे हैं. सीतक्का बताती हैं कि वो अपने अतीत को बेहद गंभीरता से लेती हैं. मेरी विचारधारा और मेरी जीवनशैली समय के साथ बदलती रही है.
कांग्रेस को है ‘सीतक्का’ जैसे नेताओं की जरूरत
मौजूदा राजनीति परिस्थ्तियों में कांग्रेस पार्टी को ‘सीतक्का’ जैसी जमीनी नेताओं की जरूरत है. अगर तेलंगाना की राजनीति की बात करें तो अनसुया ‘सीतक्का’ एक रोल मॉडल बनकर उभरी हैं. ‘सीतक्का’ जैसे नेता कांग्रेस के लिए एक उम्मीद हैं जो उसे बीजेपी से मुकाबला करने के लिए खड़ा कर सकते हैं.