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व्यंग: हमारे गांवों के नाक की लौंग खो गई है, वे किससे पूछे

एही ठैयाँ झुलनी हेरानी हो रामा!

हमारे गांवों के नाक की लौंग खो गई है, वे किससे पूछे

सिट्टी पिट्टी गुम है… मेट्रोपॉलिटन और स्मार्ट सिटियों के स्वप्नद्रष्टाओं ने गांवों के खिलाफ जो साजिश रची थी… कलई खुल गई है… अर्थव्यवस्था को उबारने के लिये 4.5 लाख करोड़ रुपये के अतिरिक्त वित्तीय समर्थन की जरूरत है… साथ ही विभिन्न सरकारी भुगतानों और रिफंड में फंसे ढाई लाख करोड़ रुपये भी तुरंत जारी किए जाने चाहिए… देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को फिक्की अध्यक्ष संगीता रेड्डी ने जो पाती लिखी है… उसका लब्बोलुआब यही है… मात्र डेढ़ महीने के लॉकडाउन में हमारा औद्योगिक साम्राज्य घुटने के बल आ गया है…

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किला ढह चुका है… पिछले डेढ़ महीने से भारत के हाईवे और रेलवे ट्रैक को पैदल नाप रही है करोड़ों की आबादी…. जिनके दूध के भी दांत अभी नहीं टूटे हैं वे भी ज्ञान बघार रहे हैं…. इतना पॉपुलेशन… उफ्फ… ये लेबर क्लास…. अंकल, किसी डॉक्टर ने कहा था क्या कि इन लोगों को गांव छुड़ाकर महानगरों में बुला लो… कामवाली बाई आंटी को चाहिए…. गोलगप्पे वाला भइया स्मार्ट सिटी की बेबी को चाहिए… तुम्हारी अट्टालिकाओं की हिफाजत के लिए सिक्योरिटी गार्ड भी चाहिए… तुम्हारे कल कारखानों को चलाने के लिए सस्ते मजदूर तुम्हें चाहिए… एंटीलिया को तो अंबानी का छोटा परिवार सुखी परिवार अपने हाथों से खड़ा किया है न… तुम्हारा बजट न बिगड़े… इसलिए आटोवाला चाहिए… कार वाला चाहिए… किचन की किचकिच पसंद नहीं…. तो डिलीवरी ब्वॉय तुम्हें चाहिए…. तो जब गुड़ खाए हो…. तो गुलगुले पर नाक भौं क्यों सिकोड़ रहे हों… इतना तो रटा मार ही लिए होगे कि देश की आबादी 136 करोड़ है…. और टॉफी भी जीएसटी चुकाने के बाद ही मिलती है… अर्थात ज्यादातर आबादी टैक्स पेयर है…

सच्चाई तो यह है कि इस इंडिया के कंपनी बहादुरों ने भारत के गांवों के खिलाफ द्युत क्रीड़ा की साजिश रची थी…. इस षडयंत्र के चलते पांडव पांचाली को हार गए… और अब पांचाली का चीरहरण देश का खाया पीया अघाया क्लास लॉकडाउन में इंज्वॉय कर रहा है…. क्यों भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, कुल गुरु कृपाचार्य और विदुर… सबको काठ मार गया क्या? आजकल ऊपरवाला भी हाईटेक हो गया है… कोई हिसाब किताब पेंडिंग नहीं छोड़ता… इस हाथ से लो… उस हाथ से दो…. मगर कंपनी बहादुर अपनी आदत से बाज नहीं आते… नेशनल विलेज तक न बना पाने वाले ग्लोबल विलेज की बात किस मुंह से करते हैं यार…

तो आइए कुछ हिसाब किताब पर हम भी चर्चा कर लें… भारत के किसानों ने साल 2000 से 2017 के बीच 45 लाख करोड़ गवाया है…. क्योंकि उनकी फसलों का वाजिब समर्थन मूल्य उन्हें नहीं मिला…. सालाना यह रकम 2.6 लाख करोड़ बैठती है… ओईसीडी (आर्थिक सहयोग और विकास संगठन) की स्टडी रिपोर्ट यह बता रही है…. अगर यह पैसा गांवों तक इमानदारी से पहुंच गया होता तो खेती किसानी की कमर नहीं टूटती… लोगबाग गांव छोड़कर शहर का रूख नहीं करते… और अपने ही देश में प्रवासी नहीं बन जाते…. हां, यह बात अलग है कि आप चीरहरण को इंज्वॉय नहीं कर पाते… आपने उनके मुंह का निवाला छीना तो लंका दहन का भी लुत्फ उठाइए न….

गांठ बांध लीजिए…. आज भी खेती किसानी इस देश की 50 फीसदी आबादी को रोजगार देने की कुव्वत रखती है… और देश को दो जून रोटी दाल संग घी डाल कर परोसने की हैसियत रखती है… यह हैसियत हमारे औद्योगिक साम्राज्य में नहीं है… यहां तो डेढ़ महीने में पगार काटने, छंटनी करने की नौबत आ गई… राहत पैकेज का वेंटिलेटर नहीं मिला तो दम तोड़ सकता है…

इस देश के गाढ़े पसीने की कमाई को लूट कर धनपशु देश छोड़ भाग खड़े होते हैं… आज तक आपने सुना है किसी किसान ने भारत की नागरिकता छोड़ी है… गौर कीजिएगा जोते हुए खेत में पांव तक न रखे किसानों की मैं बात नहीं कर रहा हूं… उन्हें किसानी का सर्टिफिकेट सिर्फ इन्कम टैक्स वालों से ही मिलता है…. कर्ज चुका न पाया तो मारे शर्म के खुदकुशी कर लेता है इस देश का किसान… मगर मरते दम तक इसी माटी में ही जूझता है…. देश की जरूरत से तीन गुना ज्यादा अनाज का भंडार मौजूद है, मगर 96 प्रतिशत मजदूरों ने राशन न मिलने पर अपने घर का रूख किया… इस देश का आम आदमी स्वभाव नहीं, अभाव का मारा है… इस देश के किसानों की बदौलत ही आज आपके पास 87 मिलियन मीट्रिक टन का अन्न भंडार है…. आप जिस दिन चाह देंगे उसी दिन हर राशन कार्ड धारी को 100 किलों की चावल या गेहूं की बोरी थमा देंगे….

जब देश थाली ताली बजा रहा था, किसानों पर इस देश के थिंक टैंक ने दो शब्द जाया किया क्या?… फसल कटाई और फसलों को बाजार तक पहुंचाने की घड़ी है यह… बाढ़ सूखा से बच गए किसानों को इस लॉकडाउन में जो नुकसान हुआ है, उन्हें राहत देने की कहीं सुगबुगाहट ही नहीं है…. सप्लाई चेन टूटने से किसान बर्बाद हो चुके हैं… फसले खेतों में सड़ रही है या बर्बाद हो रही हैं… यहां तो अब सम्मान निधि भी राहत पैकेज बना दिया गया… योगेंद्र यादव की इस बात में दम है कि केंद्र सरकार को मौजूदा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कुछ बोनस राशि की घोषणा करनी चाहिए…. ताकि किसानों को तालाबंदी के कारण हुए आर्थिक नुकसान की भरपायी की जा सके….

जब किसान जूझ रहे थे… तो यह देश फर्जी खबरें वायरल कर रहा था…. फल-सब्जी, अंडा, मुर्गा तथा दूध आदि भारी मात्रा में बर्बाद कर दिया गया… संसद और विधानसभाओं में धन कुबेरों ने कब्जा जमा रखा है…. वहां हर फैसला अपनी धनाढ्य बिरादरी को ध्यान में रख कर लिया जाता है… इस देश का सुविधा भोगी तबका चुनावों में बिसात अपने हिसाब से बिछाता है… और देश को जाति, भाषा, धर्म में बांट कर बिल्लियों की तरह लड़ा देता है… बंदरों की कामयाबी का नुस्खा आज भी वही है…. अगर सच में ईमानदार हो… आबादी कम करना चाहते हो तो हर नागरिक को शिक्षित करने की व्यवस्था करों… शिक्षित तबका ही अपनी बेहतरी को बेहतर ढंग से समझ सकता है…. उसे छोटे परिवार के लिए कोचिंग की जरूरत नहीं पड़ती… मगर जो अवतार ले लिए हैं… वे तो अपनी भूमिका अदा करेंगे ही… पेट भरने और जीने की बुनियादी जरूरत सबकी पूरी करनी ही पड़ेगी… नहीं तो खामियाजा भुगतना पड़ेगा.

देश के जाने माने किसान अमिताभ अंकल बता रहे हैं कि एक बार फिर बच्चे बन जाइए…. चच्चा, आप अब तो बड़े बन जाइए…. जिनके दिमाग में भूसा भरा है उन्हें बताइए कि महानगरों में स्पेस क्राइसिस है…. मगर गांवों में बिना किसी जतन के सोशल डिस्टैंसिंग मेंटेन की जा सकती है…. इसलिए रणनीति ऐसी बनाइए कि गांवों में रौनक लौटे…. याद रखिए धन पशुओं के हाथ में गया पैसा विदेश पार्सल हो जाएगा…. मगर निचले पायदान पर खड़े लोगों तक पहुंचा पैसा पूरे देश की क्रय शक्ति बढ़ा सकती है…. भले खजाना खोल देंगे मगर औद्योगिक घराने उत्पादन तभी करेंगे जब डिमांड होगी… और डिमांड तभी होगी…. जब लोगों की जेब में पैसा होगा… बहुतेरे नौकरी रोजी रोटी गंवा चुके हैं…. जिनकी है भी उनकी पगार पूरी नहीं पहुंची है…. छोटे मझोले कारोबारी सड़क पर आ चुके हैं…. फिर औद्योगिक उत्पादों को खरीदेगा कौन….

विजय शंकर पांडे, वरिष्ठ पत्रकार

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

https://youtu.be/rsELUlJ20Fk
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