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वनटांगियों की जिंदगी, ‘कोड़ों से कैटवॉक तक’

The life of the vanatangis, 'from the whip to the catwalk'
एस. हनुमंत राव, स्वतंत्र पत्रकार

गोरखपुर में विगत दिनों गोरखपुर में एक संस्था के कार्यक्रम में वनटांगिया महिलाओं ने रैंप पर कैटवॉक किया तो उन्हें जानने वालों ने दांतों तले ऊंगली दबा ली। ज्यादा नहीं आज से दो साल पहले कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि ‘टांगिया मजूरन के बूझे न कोई मनई में’ गाने वाले इस समुदाय की जिंदगी इतनी बदल जाएगी। उपेक्षा और अभाव का 72 साल का कालखंड जब पलटेगा तो मूल-सूद जोड़कर इस कदर लौटाने पर अमादा हो जाएगा। अंग्रेजों के कोड़े सहकर जिन्होंने खून-पसीने साखू-सागौन के घने जंगलों से खाली जमीनों को आबाद किया उनके जीवन में ‘मंगल’ इस तरह आएगा।

‘कोड़ों से कैटवॉक’ का सफर तय कर रैंप पर उतरीं डिजाइनर ड्रेस, मेकअप और आत्मविश्वास से लबरेज वनटांगिया महिलाओं का उत्साह देखने लायक था। उनके गांवों के बच्चे, बूढ़े, जवानों के चेहरों की खुशी भी देखते ही बनती थी। जिन गांवों का कल तक सरकारी दस्तावेजों में कोई वजूद ही न हो उनमें एकाएक सरकारी अमला दौड़ पड़े तो फिर वही होता है जो पिछले डेढ़-दो वर्षों में गोरखपुर और महराजगंज के वनटांगिया गांवों में हुआ है।

साल-2017 की दीपावली पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने वनटांगियां गांवों को राजस्व ग्राम के दर्जे का एलान किया। उसके साल भर के अंदर ही इन गांवों की तस्वीर बदल गई। देश भले 1947 में आजाद हो गया हो लेकिन इन वनटांगियां गांवों को आजादी का एहसास शायद पहली बार हुआ। आंकड़ें इसकी गवाही देते हैं। वनटांगियां गांवों में रहने वालों को 85.876 हेक्टेयर जमीन खेती और 9.654 हेक्टेयर भूमि आवास के लिए मिल गई। 895 शौचालय, 788 मुख्यमंत्री आवास, 49 निराश्रित पेंशन, 38 को दिव्यांग पेंशन, 125 को वृद्धावस्था पेंशन, 647 परिवारों में सौभाग्य योजना का बिजली कनेक्शन, 895 अंत्योदय श्रेणी के राशन कार्ड बनाए गए हैं। 600 से ज्यादा लोगों को उज्ज्वला योजना के कनेक्शन मिले हैं।

राष्ट्रीय आजीविका मिशन के अंतर्गत 14 समूह गठित कर 5 को फंड भी उपलब्ध कराया गया है। स्वच्छ पेयजल के लिए 15 इंडिया मार्का-2 हैंडपम्प, 17 टीटीएसपी लगाए गए हैं। यूपी नेडा की तरफ से 20 सोलर लाइट्स वन ग्रामों में लगाई गई है। वनटांगिया ग्रामों के 816 बच्चों का नामांकन 5 से 8 वीं तक के विद्यालयों में नामांकन कराया गया है। आज जब वनटांगियों के बच्चे सरकारी स्कूल की ड्रेस में चहकते हुए विद्यालय जाते हैं तो उनके गांवों के बुजुर्ग उस दिन को याद करते हैं जब जंगल तिनकोनिया के एक  गांव में स्कूल के लिए टिन शेड डलवाने पर वन विभाग ने तत्कालीन सांसद (वर्तमान मुख्यमंत्री) योगी आदित्यनाथ के खिलाफ मुकदमा दर्ज करा दिया था।

योगी आदित्यनाथ 2006 से अपनी हर दिवाली वनटांगिया बस्ती तिनकोनिया में मनाते हैं। सीएम बनने के बाद उन्होंने सिर्फ तिनकोनिया वनग्राम नहीं गोरखपुर-महराजगंज सहित प्रदेश के 38 जिलों में रहने वाले आदिवासियों-वनटागियों की दुनिया बदल दी।

वनटांगिया गांवों में लोग आजादी के बाद से ही बुनियादी सुविधाओं का दंश झेल रहे थे। पहले जो बस्तियां झोपड़ियों से भरी थीं आज वहां पक्के मकान हैं। कभी सुविधाओं की बाट जोह रहा वनटांगिया गांव आज आवास, शौचालय, सड़क, विद्यालय, पेयजल, रसोई गैस, आंगनबाड़ी, कृषि योग्य खेत, खेत और मकान की जमीन का मालिकाना हक, अंत्योदन राशन कार्ड, पेंशन सरीखी सुविधाओं से आच्छादित हैं। महाराणा प्रताप पीजी कॉलेज जंगल धूसड़ के प्राचार्य डॉ. प्रदीप राव ने बताते हैं, ‘2006 से योगी आदित्यनाथ के निर्देश पर गोरक्षपीठ ने तिनकोनिया गांव से वनटांगियों की मदद की शुरुआत की। गुरु गोरक्षनाथ चिकित्सालय से चिकित्सकीय सुविधा और महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद की ओर से विद्यालय संचालित किया गया। योगी आदित्यनाथ संसद में लगातार इस मुद्दे को उठाते रहे। अंग्रेजों ने वनटांगियों की समस्या को लेकर 1921-22 और 1935-36 में  चर्चा की लेकिन जमीन पर उनके लिए कोई काम आजादी के 70 वर्षों बाद भी नहीं हुआ था। सीएम योगी आदित्यनाथ की पहल पर सदन में वनाधिकार कानून परित हुआ। 2010 में अधिकार पत्र मिला और राजस्व ग्राम का दर्जा अक्तूबर 2017 में। मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ वनटांगिया गांवों को हर साल करोड़ों रुपये की विकास योजनाओं की सौगात दे रहे हैं।

99 साल तक नागरिक मानने से इनकार करती रहीं सरकारें

‘टांगिया मजूरन के बूझे न कोई मनई में…।’ दो दशक पहले टांगिया कन्हई प्रसाद की लिखी इस छोटी सी कविता में टांगिया मजदूरों का 99 साल का दर्द समाया हुआ है। 90 वर्षीय राजाराम गाकर सुनाते हैं, ‘वन अधिकारिवा हो बहुत सतावे…।’ दरअसल, टांगिया मजदूरों पर जुल्म की 1918 में शुरू हुई कहानी देश की आजादी के बाद भी चलती रही। आजाद भारत में भी टांगियों का अपना कोई वजूद नहीं बन पाया। सरकारी कागजों में उनकी कोई पहचान कहीं भी दर्ज नहीं हुई। आजादी के बाद कई दशकों तक प्रशासन इनसे काम लेता रहा लेकिन न इन्हें नागरिक माना, न कोई पहचान पत्र दिया।

लिखापढ़ी में न इनके गांवों का कोई वजूद था और न ही इन्हें अपना प्रधान या प्रतिनिधि चुनने का कोई अधिकार। राशन कार्ड, वोटर आईडी कार्ड और जॉब कार्ड का तो सवाल ही नहीं उठता था। इसीलिए सीएम के हाथों से राजस्व ग्राम का प्रमाण पत्र मिलने की सूचना ने वनटांगियों को ऐसी खुशी से भर दिया है जिसे सिर्फ वे ही महसूस कर सकते हैं।

अंग्रेजों ने 20 वीं शताब्दी में बनाया मजदूर

20 शताब्दी की शुरुआत में देश में टांगिया पद्धति से जंगल लगाने की शुरुआत हुई। उन दिनों देश में रेलवे का विस्तार किया जा रहा था। पटरियां बिछाने के लिए बड़े पैमाने पर मजबूत लकड़ियों की जरूरत थी। जंगलों से बड़े पैमाने पर साखू लकड़ी की कटाई होने लगी। तब ब्रिटिश सरकार ने साखू के नये जंगल लगाने का फैसला किया। बताते हैं कि अंग्रेज अधिकारियों का एक दल बर्मा गया हुआ था। वहां उन्होंने टांगिया पद्धति से जंगल लगाने का काम देखा और वापस आकर भारत में मजदूरों को प्रशिक्षित करना शुरू कर दिया। अंग्रेज, मजदूरों के अलग-अलग जत्थे बनाते। उन्हें जंगल लगाने के लिए अलग-अलग स्थानों पर अस्थाई रूप से बसा देते।

मजदूरों के एक जत्थे के हिस्से 30 हेक्टेअर जमीन आती थी। साखू के पौधे लगाने के बाद पांच साल तक मजदूरों को उसी जमीन पर पौधों की देखरेख करनी होती थी। इसके लिए वे उन पौधों के आसपास ही रहते थे। पौधों के बीच मजदूरों को खेती के लिए जमीन मिलती थी जिसमें वे एक फसल उगा सकते थे। बताते हैं कि पौधरोपण और उनकी सुरक्षा करने की टांगिया पद्धति का पालन अंग्रेज अधिकारी बड़ी सख्ती और निर्दयता से कराते थे। मजदूरों को तपती दुपहरिया, बारिश और ठंड के दिनों में समान रूप से काम करना पड़ता था। छोटी-मोटी गलती पर भी उन्हें सख्त सजा दी जाती थी। यह एक तरह की बंधुआ मजदूरी थी।

पांच साल में जब साखू के पौधे तैयार हो जाते थे वनटांगियों को नई जमीनों पर इसी काम के लिए भेज दिया जाता था। आजादी के बाद भी गोरखपुर और महराजगंज सहित उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में 80 के दशक की शुरुआत तक टांगिया मजदूरों से काम लिया जाता रहा लेकिन इसके बाद वन विभाग और वनटांगिया मजदूरों के बीच संघर्ष होने लगा। वन विभाग, टांगियों को अतिक्रमणकारी मानते हुए जंगल से बाहर करने पर तुल गया। उधर, टांगियों का कहना था कि पीढ़ियों से यही काम करने के चलते उनके पास जंगल और खेती के अलावा और कुछ है ही नहीं।

वनाधिकारियों से संघर्ष में मारे गए थे दो मजदूर

1985 में तिनकोनिया में वनाधिकारियों की फायरिंग में दो मजदूरों की मौत हो गई और कई घायल हो गये। बाद में अदालत ने आरोपी अधिकारियों को सजा दी और वनटांगिया मजदूरों को बेदखल करने की प्रक्रिया पर रोक लगा दी। तब से वनटांगिया अपने गांवों में रह तो रहे थे लेकिन सभी सुविधाओं से वंचित होकर। उत्तप्रदेश की योगी सरकार ने वनटांगियों का ना सिर्फ दर्द समझा बल्कि वो उनके दर्द में शरीक भी हुई. इसी का नतीजा है कि आज गोरखपुर के वनटांगिया वक्त के साथ कदमताल कर रहे हैं. रैंप पर कैटवॉक कर रहे हैं. शायद सरकार ये समझ रही है कि पर्यावरण को बचाने के लिए जिनता महत्व वनों का है. उसी तरह वनों को बचाने के लिए वनटांगियों को बचाना उनके अस्तित्व को बचाना जरूरी है.

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