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वनों की कीमत पर हो रहे विकास का हश्र भयानक होगा !

The fate of development at the cost of forests will be terrible!
एस. हनुमंत राव, स्वतंत्र पत्रकार

मुंबई की आरे कॉलोनी में मेट्रो रेल परियोजना के तहत ट्रेनों की पार्किंग और शेड के लिए पेड़ों को बेरहमी से काट डाला गया. इस घटना ने उन हजारों लोगों को सड़कों पर आने को मजबूर कर दिया जो लोग शहरों में बढ़ते प्रदूषण से परेशान हैं. आरे कॉलोनी में 2700 पेड़ काट डाले गए और सुप्रीम कोर्ट ने जब तक स्टे लगाया तब तक 86 फीसदी पेड़ कट चुके थे.

आरे ही नहीं बल्कि भारत के सभी घनी आबादी वाले शहरों का यही हाल है. शहर के लोग तेजी से बढ़ती गर्मी और बाढ़ के बढ़ते खतरे के बीच हरी जगहों को बचाने के लिए लड़ रहे हैं. मुंबई में जैसे मेट्रो रेल परियोजना के तहत ट्रेनों के पार्किंग शेड के लिए आरे कॉलनी के जंगलों में 2700 पेड़ों को काटा गया उसी तरह सभी शहरों में विकास के नाम पर पेड़ों की कटाई हो रही है. हालांकि मुंबई में जब पेड़ काटे गए तो पर्यावरण प्रेमियों ने मुंबई हाईकोर्ट में याचिका दायर की लेकिन कोर्ट ने रोक लगाने से इनकार कर दिया.

कोर्ट के फैसले के बाद लोग पेड़ों से चिपक गए और रोने लगे. इस दौरान पुलिस ने कई प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया. लेकिन लोगों ने कहा कि वो ‘शहर का फेफड़ा’ माने जाने वाले पेड़ों को नहीं कटने देंगे. इसके लिए प्रदर्शनकारी सुप्रीम कोर्ट पहुंचे और पेड़ काटने से रोकने के लिए याचिका दायर की. जिसके बाद सोमवार को कोर्ट ने 21 अक्टूबर तक पेड़ काटने पर रोक लगा दी है.

लेकिन यहां सवाल ये है कि क्या सिर्फ ऐसे हालात आरे कॉलोनी या मुंबई में ही हैं. क्योंकि दक्षिण भारत के शहर बेंगलुरू में भी एक फ्लाईओवर के निर्माण के लिए सैकड़ों पेड़ों की कटाई की गई तो लोग सड़कों पर आ गए और विरोध शुरु कर दिया. लोगों के बढ़ते विरोध को देखने हुए सरकार और सुप्रीम कोर्ट को इस ओर सोचने पर मजबूर होना पडा है. सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर अरावली पर्वत श्रृंखला में रियल इस्टेट विकसित करने के लिए ब्रिटिश शासन में बने कानून को निरस्त करने की मांग की गई है.

भविष्य में भुगतना होगा खामियाजा

जानकारों का मानना है कि अगर ऐसे ही हालात रहे तो 2050 तक दुनिया की करीब 70 प्रतिशत आबादी शहरों में रहेगी और पेड़ों की कमी के चलते उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा. खासकर एशिया और अफ्रीका के लोग इससे ज्यादा प्रभावित होंगे. पर्यावरण के लिए काम करने वालों का कहना है कि एशिया में तेजी से विकसित होते शहरों में हरियाली कम हो रही है और तापमान बढ़ रहा है. शायद लोग इसे अच्छी तरह समझ रहे हैं और मुंबई से वियतनाम की राजधानी मनीला तक सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन कर रहे हैं. स्विस वैज्ञानिकों का कहना है कि 2050 तक दुनिया के 20 फीसदी बड़े शहर ‘अज्ञात’ जलवायु परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा. उनका कहना है कि पारा बढ़ने से सूखे और बाढ़ की स्थिति बनेगी.

शहरों में पेड़ों की कटाई से क्या नुकसान हुए हैं इसके उदाहरण बीते कुछ सालों में सामने आए हैं. 2015 में भारत के दक्षिणी हिस्से के शहर चेन्नई में बाढ़ की वजह से करीब 300 लोगों की मौत हुई थी. मुंबई में भी बारिश हर साल लाखों का नुकसान करती है. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ सायंस के अनुसार मुंबई में 1970 के दशक में 35 प्रतिशत इलाका हरा भरा और पेड़-पौधों से घिरा हुआ था लेकिन अब यह 13 प्रतिशत से भी कम हो चुका है. जबकि किसी भी क्षेत्र के एक तिहाई हिस्से में पेड़-पौधे होने चाहिए.

कैसे आएगी कार्बन उत्सर्जन में कमी ?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि 2030 तक दो करोड़ 60 लाख हेक्टेयर परती भूमि का इस्तेमाल पेड़ लगाने व अन्य कार्यों में किया जाए. वो इलेक्ट्रिक गाड़ियों का भी जिक्र करते हैं. लेकिन दूसरी तरफ उनकी ही पार्टी की सरकार जिस राज्य में है वहां पर अंधाधुंध पेड़ काट दिए जाते हैं. अगर ऐसे ही हालात रहे तो कार्बन उत्सर्जन में कमी सिर्फ एक सपना बनकर ही रह जाएगी. दुनिया के तमाम देशों में जब पेड़ लगाने काम काम तेजी से हो रहा है तब भारत इसमें पिछड़ रहा है. संयुक्त राष्ट्र ने एशिया और अफ्रीका के शहरों में वायु गुणवत्ता को सही करने, बाढ़ और तापमान में कमी करने तथा भूमि कटाव को रोकने के लिए शहरों में जंगल लगाने की योजना बनाई है. आंकड़े बताते हैं कि भारत में वनों की कटाई, ज्यादा खेती और सूखे के कारण भारत के लगभग 30% भूमि का क्षरण हुआ है. अरावली की पहाड़ियों जिन चार राज्यों में 700 किलोमीटर तक फैली हुई हैं. वहां पर बेरोकटोक वनों की कटाई चल रही है. यहां अवैध निर्माण और खनन हो रहा है. इससे मरुस्थलीकरण, झीलों का सूखना, और लगातार धूल भरी आंधी चल रही है. दिल्ली रिज अरावली पर्वत श्रृंखला का एक हिस्सा है. यह शहर के जहरीले धुएं को सोखने का काम करती है.

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कई राज्यों की समस्या ये है कि वो वनों को काटना नहीं चाहते लेकिन विकास के आड़े वन आ जाते हैं तो उन्हें काट दिया जाता है. राज्यों की बात करें तो हरियाणा ने निर्माण और खनन के लिए अरावली में हजारों एकड़ वन भूमि का इस्तेमाल करने के लिए पंजाब भूमि संरक्षण अधिनियम 1900 में संशोधन किया था. इस संशोधन के कारण दिल्ली और हरियाणा के गुरुग्राम में काफी प्रदर्शन हुआ था. सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि हरियाणा सरकार जंगलों को बर्बाद कर रही है. ऐसे ही महाराष्ट्र के सीएम ने भी कहा कि वो पेड़ों को काटना नहीं चाहते लेकिन विकास भी जरूरी है. लेकिन सवाल ये है कि पेड़ों की कीमत पर विकास कहां तक जायज है?

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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