हैलो, मैं पप्पू .. नहीं, चौकिये मत। कोई तंज नही, कोई तल्खी नही। जब आपने ये खूबसूरत नाम दिया है, मुझे क्या एतराज हो सकता है। सबकी जिंदगी में कोई पप्पू, राजू, बबलू, गुड्डू, बिल्लू तो जरूर होता है। जो बेहद करीब होता है। आप उससे खुलकर मिलते हैं, डरते नहीं। मैं भी वही हूँ.. भाई, भतीजा, भांजा, दोस्त। पप्पू, राजू, बबलू और गुड्डू.. ●● वो जो आपको हंसाते हैं, बतियाते हैं और संभालते हैं। आपकी खुशियों को, और आपके बिखराव को, जब अकेले न सँभल रहा हो। और आप हाथ थामने वाला, कंधे दबाने वाला तलाश रहे हों, पहली कॉल किसे लगाते है? पप्पू? गुड्डू? राजू.???
●●
यकीन कीजिये, जब से होश संभाला है, बस संभालता आया हूँ। उम्र नही थी, छोटा था.. कोई दस साल का। घर पर दो अंकल के साथ बैडमिंटन खेलता था। एक सुबह उन अंकल के हाथ मे रैकेट नही, मशीनगन थी। दादी को मेरे घर मे, दोनों अंकल ने मार डाला। हादसों को सम्भालने का मेरा सफर तब से शुरू हुआ। अपनों से घाव खाना, सहना, माफ़ कर, मुस्कुराकर आगे बढ़ना, यही सीखा है। पर तब पिता ने समेटा, सम्भाला।
●●
सफदरजंग रोड के उस घर मे रहना, हर रोज घायल करता था। हमने घर बदल लिया। दस जनपथ। हम अब प्रधानमंत्री के बच्चे थे, बेहद सुरक्षित। फिर एक दिन पिता लौटे। सफेद चादर से ढंके। हम उनका आखिरी चेहरा भी नही देख सके।
●●
मां टूटी हुई थी। हमने सम्हाला, सम्बल दिया। हमारा जिंदा रहना मां की सबसे बड़ी प्राथमिकता थी। हम घर मे बन्द रहे, सारी सुविधायें, लेकिन जेल.. !! आप लॉकडाउन में जैसे कुछ महीने, बेबस से घर मे बन्द थे। अपनी उम्र के नाजुक बरस, हम उसी लॉकडाउन में रहे। बाहर निकलने पर आपको डंडों का डर था, हमे गोलियों और बम का। आप पूछेंगे की भला हमे कोई क्यों मारेगा। तो मां पूछती- दादी या पापा को क्यो मारे गये ??
●●
हम नही चाहते थे की माँ राजनीति से जुड़े। मां नही चाहती थी, की हम राजनीति से जुड़ें। पर इस परिवार में जन्म की कुछ मजबूरियां हैं। हम पुरखों की विरासत को मिट्टी में मिलते नही देख सकते। विरासत, ये देश है, .. जो नफरत में उलझा था, कांग्रेस कमजोर थी। काग्रेस राजीव की विरासत थी। तो मां ने जिम्मेदारी ली। टूटी फूटी कांग्रेस एक फिर सत्ता में आई। मां को थामे रखने मैं भी आया। राजकुमार की तरह स्वागत हुआ। मोस्ट इलिजबल बैचलर, फ्यूचर पीएम, और जाने क्या क्या कहा आप लोगो ने..
●●
पांच साल बाद हम फिर जीते। तो मौका था, मंत्री बनने का, प्रधानमंत्री बनने का। पर मुझे रुचि न थी। सत्ता जहर है, और पीने वाले हमारे अपनो की लाशें, हमारे आंगन में हम गिनते रहे हैं।
●●
दस साल बाद हम चुनाव हारे। पहले पहल लगा कि महज एक चुनाव की हार है। पर इस बार कुछ अलग था। सिर्फ सरकार नही बदली थी। यह देश बदला था, बड़ी तेजी से… इसका रंग, इसकी तासीर, इसकी दिशा.. राजनीति मे भाषा नही, पूरी व्यवस्था ही बदलने लगी। यह महज राजनीति, कुर्सियों की उठापटक नही थी। यह बेहद खतरनाक खेल था। जो जारी है, जिसका निशाना, लोकतन्त्र है, आजाद जिंदगी है, बराबरी और मोहब्बत का फलसफा है.. तो इसलिए निशाने पर मैं हूँ, आप भी हैं। दरअसल वो सब निशाने पर हैैंं, जिनका फलसफा मोहब्बत और बराबरी है। और मुझसे ज्यादा… मेरा सरनेम, उनकी राह का रोड़ा है। मेरा होना, जिन्दा… और सामने खड़ा, उनका भय है। खड़ा रहना मेरी जिम्मेदारी है, और यही मेरी ताकत भी।
●●
मानता हूँ मैंने चुनाव हारे हैं। एक बड़ी, बेहद बड़ी ताकत के हाथों मेरी हार हो रही है। बार बार हो रही है। पर मुझे हराने वाली ये ताकत, भाजपा नही है, ये सरकार नही है। हराने वाली ताकत, ये जनता है। आप हैं, इस देश का युवा है, छात्र, व्यापारी, किसान , कर्मचारी है। जो अपनी भूमिका, कर्म, आदर्श, इतिहास, अपनी खुद की जरूरत और ईश्वर प्रदत्त जिम्मेदारियों से मुंह फेरे बैठा है। वो हिंदुस्तानी तो नफरत के आगोश मे गांधी, नेहरू, बुध्द, नानक और निजामुद्दीन को नकार चुके है। जिनके दिल मे अल्लाह के बन्दों से निजात पाने का ख्वाब चलता है। जो “फाइनल सॉल्यूशन” के सपने देखता है। जिसे नफरत और खून की नदी के पार, समृद्ध भारत का नक्शा बेचा गया है। समाज के विभाजन और दिलों की टूट पर.. खेलता, किलकारी भरता, बिखरता हुआ भारत है।
●●
और मेरी नियति.. बिखरे हुए को सम्भालना है, हंसना है, दिलासा देना है। जोड़ना है। भूलना, माफ करना, मुस्कुराना, हाथ थामना, गले लगाना, बस यही आता है। यही मेरी राजनीति है। आपको यह कमजोरी लगे, तो ठीक है। आपका फैसला सर माथे.. पर जब आप नफरत कर कर के थक जाएं, दिल डूबने लगे, तो घबराएं नही। मैं यही हूँ। आसपास ही चल रहा हूं, जोड़ रहा हूं। जब जी करे? आ जाऐं। या एक काल लगाएं और कहें; हैलो.. पप्पू ??
लेखक- मनीष सिंह, वरिष्ठ पत्रकार
ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज अपडेट के लिए हमें फेसबुक पर लाइक करें या ट्विटर पर फॉलो करें. https://rajniti.online/ पर विस्तार से पढ़ें देश की ताजा-तरीन खबरें