भारत की संसद क्या अब बेमानी हो चुकी है. ये प्रश्न इसलिए खड़ा हो रहा है कि मौजूदा परिस्थितियों में ऐसा लगता है कि इसनें अपनी प्रासंगिकता खो दी है.
आज से 10 साल पहले मैं भी महिला पहलवानों की तरह सत्ता की हनक से परेशां, जज़्बाती और जुनूनी था.
ऐसी ही मई–जून की बात है. सरदार सरोवर के डूब प्रभावित आदिवासियों को जीवन का हक़ दिलाने के लिए सत्ता से लड़ने हम भी पहलवानों की तरह कूद पड़े थे.
भट्ठी बनी गर्म जमीन पर. सिर पर छांव नहीं. कोई सरमाया नहीं. सिवाय मेधा पाटकर के, जो आज भी मेधा बेन हैं. सिर्फ़ एक जन सुनवाई…पीड़ित, एकजुट जनता की ताक़त और 45 डिग्री में सत्ता की हेकड़ी.
कुछ ही मित्र जानते हैं, उन 3 दिनों की कहानी, जब हम 6 लोगों ने सत्ता को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था.
आज भी वह पल आंखों को नम कर देता है, जब मीडिया से इतर मैंने आंदोलन की पहली ट्रेनिंग ली थी. हमारी तैयारी बेहद मजबूत थी.
यह समझा कि आंदोलन एसी में बैठकर नहीं, खुले में रहकर पीड़ितों के दर्द को अपनाकर, उनके जैसा जीवन बिताकर ही हो सकता है. न फोटूबाजी, न प्रचारबाज़ी.
अब उन चंद मित्रो में से एकाध मित्र ही उस आग को अपने दिल में पाले हुए हैं. बाकी सत्ता के आगे बिक गए. उनकी गैरत मर चुकी है, लेकिन, ये आग 53 की उम्र में भी कहीं भीतर धधक रही है.
जब दुश्मन ताकतवर हो तो उसकी रसद रोक दो, सप्लाई रोक दो, वह आधा मर जायेगा.
अब पहलवानों की पगड़ी राकेश टिकैत के हाथ में है. देश उम्मीद में है. दिल्ली फिर चौतरफा घिरनी चाहिए. सिर्फ़ एक अधूरी आस के लिए नहीं, संपूर्ण स्वराज्य की जिद के साथ.
राकेश टिकैत को काले किसान कानूनों की वापसी पर आंदोलन ख़त्म नहीं करना चाहिए था..यह मैंने पहले भी लिखा था.
ठगे गए. लूटे गए.
आज पहलवानों ने उन्हें 5 दिन का वक्त दिया है.
गलती सुधारें. ट्रैक्टर सड़कों पर निकलें. सेंगोल की ताक़त आजमाएं. महिलाओं और किसानों की इज्जत से कैसा समझौता?
यकीनन, देश की सड़कें आबाद होनी चाहिए, क्योंकि संसद अब बेमानी हो चुकी है.
लेखक: सौमित्र रॉय
(ये लेखक के निजी विचार हैं)