सावरकर ‘वीर’ थे या कायर? ये प्रश्न अभी भी अनित्तरित है. देश का एक बड़ा वर्ग इन्हें कायर कहता है और दूसरा वर्ग कहता है ये वीर थे. तो आइए जानने की कोशिश करते हैं कि वो क्या थे?
वीर एक ही बार मरते हैं, यह तो कायर हैं जो मृत्यु के पहले भी बार-बार मरा करते हैं.
—जूलियस सीजर
हिंदू हो या मुसलमान, बौद्ध हो या फिर जैन…सभी की यह मान्यता है कि अपने बुरे कर्मों के प्रति पश्चाताप करना जरूरी है..किसी को याद करके उसको दिए हुए दुःख के बदले में माफ़ी मांगना पश्चाताप करना है.
जैन तेरापंथ में तो पशु-पक्षी, जीव-जंतु सभी से जाने-अनजाने में बोले गए कटु वचन के अपराध के लिए क्षमा मांगने की परंपरा है. जैनियों द्वारा पर्युषण पर्व समाप्त होने के बाद क्षमावाणी पर्व मनाया जाता है.
माना जाता है कि भूल को स्वीकार करते हुए पश्चाताप से मन हल्का हो जाता है.
ऐसे ही अपने द्वारा किये गये अपराधों के लिए पश्चाताप के आंसू बहाने वाले विनायक दामोदर सावरकर को कालापानी की सजा हुई तो वह देश नहीं, बल्कि अपनी आजादी के लिए अंग्रेजों से माफी मांगते हुए मोलभाव कर रहा था.
यही नहीं कुछ लोग सावरकर की जिस बहादुरी की तारीफ करते हैं, वह अंडमान में उसके कैद के दिनों में भी शायद ही कहीं दिखी हो.
सावरकर को कालापानी की सजा का मामला—
नासिक के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ए.एम.टी. जैक्सन की 29 दिसंबर, 1909 को अनंत कन्हेरे ने गोली मारकर हत्या कर दी थी. गिरफ्तारी के बाद कन्हेरे के पास से सावरकर के पत्र बरामद हुए थे. सावरकर पर आरोप लगा कि उसने इस हत्या में इस्तेमाल की गई ब्राऊनिंग पिस्टल और उस जैसी 20 अन्य पिस्टल इंग्लैंड से भारत भिजवाई थीं.
इसी के आधार पर टेलिग्राफ से सावरकर के नाम एक वारंट लंदन भेजा गया था और 13 मार्च, 1910 को आत्मसमर्पण के बाद सावरकर को भारत लाया गया.
जैक्सन की हत्या और अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह के आरोप में सावरकर को कालापानी की सजा सुनाई गई.
सावरकर चार जुलाइ, 1911 को पोर्ट ब्लेयर पहुंचा. वह अकेला व्यक्ति नहीं था जिसे इस जेल में लाया गया हो. फिर भी उसने सज़ा शुरू होने के कुछ ही महीनों में 1911 में खुद ही सरकार के सामने दया याचिका लगा दी.
इसकी कोई सुनवाई नहीं होने पर उसने जेल जाने के सिर्फ 20 माह बाद ही 14 नवंबर, 1913 को दया की भीख मांगते हुए दूसरी याचिका भेजी..इसमें उसने अंग्रेज सरकार से खुद को भारत में स्थित किसी जेल में भेजे जाने की प्रार्थना की थी. इसके बदले में उसने प्रस्ताव दिया था कि जिस तरह भी संभव होगा वह सरकार के लिए काम करेगा.
सावरकर का कहना था कि अंग्रेजों द्वारा उठाए गए सुधारात्मक कदमों से उसकी संवैधानिक व्यवस्था में आस्था पैदा हुई है.
ऐसा कहते हुए उसने घोषणा की थी कि वह अब हिंसा पर यकीन नहीं करता.
यानी उसे अपने पिछले कर्मों पर पछतावा है.
● भटकी हुई आत्मा—
विनायक सावरकर ने 1913 की उक्त याचिका में अपने साथ हो रहे तमाम सलूक का ज़िक्र किया और अंत में लिखा—
‘हुजूर, मैं आपको फिर से याद दिलाना चाहता हूं कि आप दयालुता दिखाते हुए सज़ा माफ़ी की मेरी 1911 में भेजी गई याचिका पर पुनर्विचार करें और इसे भारत सरकार को फॉरवर्ड करने की अनुशंसा करें. भारतीय राजनीति के ताज़ा घटनाक्रमों और सबको साथ लेकर चलने की सरकार की नीतियों ने संविधानवादी रास्ते को एक बार फिर खोल दिया है. अब भारत और मानवता की भलाई चाहने वाला कोई भी व्यक्ति, अंधा होकर उन कांटों से भरी राहों पर नहीं चलेगा, जैसा कि 1906-07 की नाउम्मीदी और उत्तेजना से भरे वातावरण ने हमें शांति और तरक्की के रास्ते से भटका दिया था.’
●सावरकर का हृदय-परिवर्तन—
अपनी याचिका में सावरकर ने लिखा—
‘अगर सरकार अपनी असीम भलमनसाहत और दयालुता में मुझे रिहा करती है, मैं आपको यक़ीन दिलाता हूं कि मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूंगा और अंग्रेज़ी सरकार के प्रति वफ़ादार रहूंगा, जो कि विकास की सबसे पहली शर्त है. जब तक हम जेल में हैं, तब तक महामहिम के सैकड़ों-हजारों वफ़ादार प्रजा के घरों में असली हर्ष और सुख नहीं आ सकता, क्योंकि ख़ून के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता. अगर हमें रिहा कर दिया जाता है, तो लोग ख़ुशी और कृतज्ञता के साथ सरकार के पक्ष में, जो सज़ा देने और बदला लेने से ज़्यादा माफ़ करना और सुधारना जानती है, नारे लगाएंगे.’
● खुद को बताया अंग्रेजों का ‘एक होनहार पुत्र’—
याचिका के अगले हिस्से में वह और भारतीयों को भी सरकार के पक्ष में लाने का वादा करते हुए लिखता है—
‘इससे भी बढ़कर संविधानवादी रास्ते में मेरा धर्म-परिवर्तन भारत और भारत से बाहर रह रहे उन सभी भटके हुए नौजवानों को सही रास्ते पर लाएगा, जो कभी मुझे अपने पथ-प्रदर्शक के तौर पर देखते थे. मैं, भारत सरकार जैसा चाहे, उस रूप में सेवा करने के लिए तैयार हूं, क्योंकि जैसे मेरा यह रूपांतरण अंतरात्मा की पुकार है, उसी तरह से मेरा भविष्य का व्यवहार भी होगा. मुझे जेल में रखने से आपको होने वाला फ़ायदा मुझे जेल से रिहा करने से होने वाले होने वाले फ़ायदे की तुलना में कुछ भी नहीं है. जो ताक़तवर है, वही दयालु हो सकता है और एक होनहार पुत्र (पाठक यहां ध्यान दें कि सावरकर किस सीमा तक गिरकर स्वयं को अंग्रेजों का पुत्र कह रहा है!) सरकार के दरवाज़े के अलावा और कहां लौट सकता है? आशा है, हुजूर मेरी याचनाओं पर दयालुता से विचार करेंगे.’
●ब्रिटिश शासन की वफ़ादारी निभाने का वादा—
इसके बाद उसने कई याचिकाएं लगाईं. अपनी याचिका में उसने अंग्रेज़ों से यह वादा किया कि ‘यदि मुझे छोड़ दिया जाए तो मैं भारत के स्वतंत्रता संग्राम से ख़ुद को अलग कर लूंगा और ब्रिटिश सरकार के प्रति अपनी वफ़ादारी निभाउंगा.’
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मार्कंडेय काटजू अपने एक लेख में लिखते हैं—
‘कई लोग मानते हैं कि सावरकर एक महान स्वतंत्रता सेनानी थे लेकिन सच क्या है? सच यह है ब्रिटिश राज के दौरान कई राष्ट्रवादी गिरफ्तार किए गए थे. जेल में ब्रिटिश अधिकारी उन्हें प्रलोभन देते थे कि या तो वे उनके साथ मिल जाएं या पूरी ज़िंदगी जेल में बिताएं. तब कई लोग ब्रिटिश शासन का सहयोगी बन जाने के लिए तैयार हो जाते थे. इसमें सावरकर भी शामिल थे.’
जस्टिस काटजू कहते हैं—
“सावरकर को उम्र कैद की सज़ा हुई. जेल में ब्रिटिश अधिकारियों ने उनके सामने सहयोगी बन जाने का प्रस्ताव रखा जिसे सावरकर ने स्वीकार कर लिया. जेल से बाहर आने के बाद सावरकर “हिंदू सांप्रदायिकता” को बढ़ावा देने का काम करने लगे और एक ब्रिटिश एजेंट बन गए. वह ब्रिटिश नीति—’बांटो और राज करो’ को आगे बढ़ाने का काम करते थे.”
जस्टिस काटजू लिखते हैं—
‘दूसरे विश्व युद्ध के दौरान सावरकर हिंदू महासभा के अध्यक्ष थे. उन्होंने तब इस नारे को बढ़ावा दिया—’राजनीति को हिंदू रूप दो और हिंदुओं का सैन्यीकरण करो.’
सावरकर ने भारत में ब्रिटिश शासन द्वारा युद्ध के लिए हिंदुओं को सैन्य प्रशिक्षण देने की मांग का भी समर्थन किया.
इसके बाद जब कांग्रेस ने 1942 में “भारत छोड़ो आंदोलन” की शुरुआत की तो सावरकर ने उसकी आलोचना की. उन्होंने हिंदुओं से ब्रिटिश सरकार की अवज्ञा न करने को कहा. साथ ही उन्होंने हिंदुओं से कहा कि वे सेना में भर्ती हों और युद्ध की कला सीखें.
क्या सावरकर सम्मान के लायक हैं और उन्हें स्वतंत्रता सेनानी कहा जाना चाहिए?
सावरकर के बारे में ‘वीर’ जैसी बात क्यों? वह तो 1910 के बाद ब्रिटिश एजेंट हो गए थे.’
अंडमान जेल से छूटने के बाद उसने यह वादा निभाया भी और कभी किसी क्रांतिकारी गतिविधि में न शामिल हुआ, न पकड़ गया.
ऐसी गतिविधियों में लिप्त और दया की भीख मांगता हुआ ऐसा माफ़ीनामा डालने वाला सावरकर ‘वीर’ कैसे कहा जा सकता है, जिसने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के विरुद्ध अंग्रेज़ी फ़ौज के लिए भारतीयों की भर्ती में मदद की?
सावरकर का योगदान यही है कि उसने भारत के विभाजन विचारधारा दी.
● देश-विभाजन का विचार सबसे पहले दिया था सावरकर ने—
भारत में राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन का परस्पर अटूट सम्बंध है. राष्ट्रीयता भारत के स्वाधीनता आंदोलन की वह भावना थी, जो पूरे आंदोलन के मूल में थी. इसी दौरान हिंदू राष्ट्रीयता अथवा हिंदू राष्ट्रवाद का विचार गढ़ा गया.
सावरकर उस हिंदुत्व का जन्मदाता है जो वैदिक शिक्षाओं के विरुद्ध अमानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए हिंदू और मुसलमानों में फूट डालने वाला साबित हुआ.
मुस्लिम लीग के द्विराष्ट्र के सिद्धांत की तरह ही उसके हिंदुत्व ने भी अंग्रेजों की ‘बांटो और राज करो’ की नीति में सहायता की.
राजनीति शास्त्री प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम सावरकर के समग्र वांड्मय के हवाले से कहते हैं—
‘हिंदू राष्ट्रवादी’ शब्द की उत्पत्ति ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक ऐतिहासिक संदर्भ में हुई. यह स्वतंत्रता संग्राम मुख्य रूप से एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष भारत के लिए कांग्रेस के नेतृत्व में लड़ा गया था. ‘मुस्लिम राष्ट्रवादियों’ ने मुस्लिम लीग के बैनर तले और ‘हिंदू राष्ट्रवादियों’ ने ‘हिंदू महासभा’ और ‘आरएसएस’ के बैनर तले इस स्वतंत्रता संग्राम का यह कहकर विरोध किया कि हिंदू और मुस्लिम दो पृथक राष्ट्र हैं.
स्वतंत्रता संग्राम को विफल करने के लिए इन हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवादियों ने अपने औपनिवेशिक आकाओं से हाथ मिला लिया ताकि वे अपनी पसंद के धार्मिक राज्य ‘हिंदुस्थान’ या ‘हिंदू राष्ट्र’ और पाकिस्तान या ‘इस्लामी राष्ट्र’ हासिल कर सकें.’
सावरकर का स्पष्ट कहना था कि ‘आज यह क़तई नहीं माना जा सकता कि हिंदुस्तान एकता में पिरोया हुआ राष्ट्र है, इसके विपरीत हिंदुस्तान में मुख्यतः दो राष्ट्र हैं, हिंदू और मुसलमान.’
इस तरह सावरकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का वह आदि विचारक है जो हिंदू-मुसलमान को दो अलग-अलग राष्ट्र मानता है. तब से बाद के वर्षों में भी संघ अपनी हिंदू राष्ट्र की कल्पना और हिंदू राष्ट्रवाद के विचार पर टिका हुआ है.
इसके उलट संघ भारत- पाकिस्तान बंटवारे के लिए कांग्रेस, महात्मा गांधी, नेहरू को कोसता है.
● सावरकर ने 1937 में दिया था द्विराष्ट्र का सिद्धांत—
हिंदुत्व के जन्मदाता सावरकर और आरएसएस दोनों की द्विराष्ट्र सिद्धांत में साफ-साफ समझ में आने वाली आस्था रही है कि हिंदू और मुस्लिम दो अलग-अलग राष्ट्र हैं.
मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने 1940 में भारत के मुसलमानों के लिए पाकिस्तान की शक्ल में पृथक होमलैंड की मांग का प्रस्ताव पारित किया था, लेकिन सावरकर ने तो उससे काफी पहले, 1937 में ही जब वे अहमदाबाद में हिंदू महासभा के 19वें अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण कर रहे थे, तभी उन्होंने घोषणा कर दी थी कि हिंदू और मुसलमान दो पृथक राष्ट्र हैं.
हिंदू राष्ट्रवादी आज़ादी की लड़ाई के वक़्त भारतीय सेनानियों का साथ देने की बजाय, अंग्रेज़ों के साथ हो गए और अंग्रेज़ों की तरफ से उन पर कार्रवाई न करने का अभयदान मिला.
नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने जर्मनी और जापान की मदद से भारत को आज़ाद कराने का प्रयास किया था.
इस दौरान ‘हिंदू राष्ट्रवादियों’ ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मदद करने की जगह, ब्रिटिश शासकों का साथ दिया.
सावरकर ने ब्रिटिश साम्राज्य के लिए भारत में सैनिकों की भर्ती में मदद की.
सावरकर समग्र वांड्मय के हवाले से शम्सुल इस्लाम लिखते हैं—
‘हिंदू राष्ट्रवादियों ने बजाय नेता जी की मदद करने के, नेताजी के मुक्ति-संघर्ष को हराने में ब्रिटिश शासकों के हाथ मज़बूत किए. हिंदू महासभा ने सावरकर के नेतृत्व में ब्रिटिश फ़ौजों में भर्ती के लिए शिविर लगाए.
● हिंदुत्ववादियों ने अंग्रेज़ शासकों के समक्ष मुकम्मल समर्पण कर दिया था जो सावरकर के निम्न वक्तव्य से और भी साफ हो जाता है—
‘जहां तक भारत की सुरक्षा का सवाल है, हिंदू समाज को भारत सरकार के युद्ध सम्बंधी प्रयासों में सहानुभूतिपूर्ण सहयोग की भावना से बेहिचक जुड़ जाना चाहिए, जब तक यह हिंदू हितों के फ़ायदे में हो. हिंदुओं को बड़ी संख्या में थल सेना, नौसेना और वायुसेना में शामिल होना चाहिए और सभी आयुध, गोला-बारूद, और जंग का सामान बनाने वाले कारख़ानों वगै़रह में प्रवेश करना चाहिए…
‘ग़ौरतलब है कि युद्ध में जापान के कूदने के कारण हम ब्रिटेन के शत्रुओं के हमलों के सीधे निशाने पर आ गए हैं. इसलिए हम चाहें या न चाहें, हमें युद्ध के क़हर से अपने परिवार और घर को बचाना है और यह भारत की सुरक्षा के सरकारी युद्ध प्रयासों को ताक़त पहुंचा कर ही किया जा सकता है. इसलिए हिंदू महासभाइयों को ख़ासकर बंगाल और असम के प्रांतों में, जितना असरदार तरीक़े से संभव हो, हिंदुओं को अविलंब सेनाओं में भर्ती होने के लिए प्रेरित करना चाहिए.’
इस तरह हिंदुओं का आह्वान करते हुए सावरकर जेल से छूटने की छटपटाहट में स्वयं को अंग्रेजों का ‘एक होनहार पुत्र’ बताकर ‘अंग्रेज़ी सरकार के प्रति वफ़ादार रहूंगा’ वाला दिया हुआ वचन निभा रहा था.
देश की बजाय अपनी आजादी के लिए अंग्रेजों के आगे गिड़गिड़ाते हुए पश्चाताप के आंसू बहाने और जेल से छूटने के बाद देश में ब्रिटिश राज बनाये रखने को जी-तोड़ मेहनत तथा देश का विभाजन करने में अंग्रेजों की मदद करने वाला विनायक दामोदर सावरकर संघियों का प्रेरणास्रोत है. एक कायर व देशद्रोही को ‘वीर’ कहने में इन्हें गर्व की अनुभूति होती है. देश को मध्ययुग की ओर धकेलने के योजनाकार उस ब्रिटिश एजेंट का चित्र संसद भवन में लगाने के बाद अब संघियों की सरकार उसे भारतरत्न देने को तैयार है.
इनका यह कैसा राष्ट्रवाद है?
लेखक: श्याम सिंह रावत
(ये लेखक के निजी विचार हैं)