2000 का नोट बंद हो गया है. जिनके पास ये नोट नहीं है वो मजे ले रहे हैं और जिनके पास है वो जानने की कोशिश कर रहे हैं कि इस नोट का क्या करें? ऐसे में एक आम भारतवासी की का खत आप जरूर पढ़िए!
प्रिय दोहज़ारी,
सप्रेम नमस्कार.
सुना कि तुम विदा हो रहे हो. दुख हो रहा है. लेकिन कोई क्या कर सकता है? जीवन का यही सत्य है. एक दिन सबको जाना पड़ता है. आया है, सो जाएगा; राजा, रंक, फकीर.
भाई! तुम तो राजा थे, जो रंकों की ‘भलाई’ के लिए एक फकीर द्बारा लाए गए थे. तुम्हारा जाना तो स्वाभाविक ही है. तुमसे पहले पँचनंबरी और हज़ारी जी भी जा चुके हैं..तुम्हारे जाने का अंदेशा तो बना हुआ था, वे दोनों तो अकाल काल कवलित हो गए थे.
भाई! तुम्हें बहुत कम उम्र मिली. किसे दुख नहीं होगा?
किस धूम-धड़ाके से तुम लाए गए थे! अहा! याद करता हूँ, तो रोमांचित हो जाता हूँ. तुम्हारे आने से भ्रष्टाचार पर लगाम लगना था. कुछ चिप-विशेषज्ञ चीप पत्रकारों ने बताया था कि तुम्हें धरती में गाड़कर भी रखा जाए, तब भी तुम अपने होने की ख़बर दे सकते हो.
मैं तो सोचता था कि कम-से-कम एक दोहज़ारी अपने साथ हमेशा ज़रूर रखूँगा ताकि किसी दुर्योग से दुनिया के इस बाज़ार में कहीं गुम हो गया, तो तुम्हारे सिग्नल से ही ढूँढ़ लिया जाऊँगा.
लेकिन हाय रे, विडंबना! बाज़ार से तुम ही गायब हो गए थे. ढूँढ़े पर भी नहीं मिलते थे.
तुम्हें याद करता हूँ, तो प्रेयसी की याद आती है. तन्वंगी, लेकिन सबसे अधिक मूल्यवान! वही गुलाबी-गुलाबी-सा रंग. पा जाने की वही उत्कट इच्छा. सबकी नज़र से बचाकर अपना लेने का वही जतन.
एकदम से दिल से लगा रखने की चाह. और पा लेने के सुख का क्या कहना!
कोई कुछ भी कहे, लेकिन मैं खुलेआम कहता हूँ कि मैं तुम्हारा दीवाना ठहरा.
यह दीगर बात है कि गरीबों की मोहब्बत निभाए नहीं निभती है. बस समाचार ही पा सका कि तुम्हें धनासेठों ने अपनी गुप्त तिजोरियों में छिपा रखा है.
तुम भी एकदम से बेवफा निकले, जिसे भ्रष्टाचार और कालाधन ख़त्म करने के लिए लाया गया था, वही भ्रष्टाचारियों और कालाबाजारियों के पहलू में खुश रहा.
हाय राम! क्या करें, मोदी जी की किस्मत भी हमारी तरह ही है. भला सोच कर करो और बुरा हो जाता है.
लो, इस विदाई बेला में मैं क्या लेकर बैठ गया! लेकिन करूँ भी क्या? ऐसे भी कोई जाता है? न जाने कितने दिन हो गए और एक झलक तक नहीं दी. तुम्हें सही से विदा तक नहीं कर पा रहा हूँ.
पाँचनंबरी और हज़ारी भाई जब विदा हुए थे, तो उस शोक में हम महीनों बैंकों की लाइनों में खड़े होकर विदा देते रहे. वह भी इस शिद्दत से कि कोई रह न जाए.
अब भाई माटी हुई देह को घर में कौन रखता है; लेकिन फिर भी कोई-न-कोई अवशेष किसी-न-किसी के पास बचा ही रह गया. वहाँ बचा रह जाना भी दुखी कर गया.
भला है कि तुम पहले ही हमसे दूर हो गए. जाओ! जबकि भारतेंदु कह गए कि ‘प्यारेजू है जग की यह रीति, विदा के समय सब कंठ लगावैं.’
मैं भी कंठ से लगाकर ही विदा करता, यदि तुम मेरे पास होते!
भाई, तुम एक मास्टर स्ट्रोक के सबसे ‘मास्टर’ स्ट्रोक थे; फिर भी महज़ आठ साल जी सके.
ऐसे तो स्ट्रोकों और मास्टर स्ट्रोकों की महिमा ही नहीं रहेगी.
मुझे इस बात का भी भारी दुख है. लेकिन सबसे बड़ा दुख यह है कि यह आरबीआई कौन होता है तुम्हारी विदा की सूचना देनेवाला? क्या हमारा राष्ट्र अनाथ हो गया है? क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि रात 8 बजे राष्ट्रपुरुष साक्षात प्रकट होकर आकाशवाणी करते- “मितरो! आज रात के बारह बजे हमारे दोहज़ारी विदा हो जाएँगे. उन्हें जबरन विदा किया जा रहा है. वे अतिथि थे, और अतिथि को लौटने में देर नहीं करनी चाहिए.
मितरो! करनी चइए कि नहीं चइए?”
जाओ प्रिय, हम तुम्हारे बिना भी जी लेंगे. हाँ, जाते-जाते अपने चिप सुधीर भैया और श्वेता दीदी को लौटा देना; वर्ना तुम्हारे चिप से उन्हें सिग्नल मिलता रहेगा और उन्हें लगेगा कि तुम मरने के बाद भी ज़िंदा हो. भूत-वूत का चक्कर बुझाएगा.
एक बागेश्वरी बाबा किस-किस की पर्ची निकालेंगे?
ज़िंदा तो तुम रहोगे, लेकिन बस हमारी यादों में, हमारी टीसों में और हमारी कथाओं में -एक थे दोहज़ारी जी…
विदा दोस्त.
तुम्हारे प्यार में पागल
एक आम आदमी.
अस्मुरारी नंदन मिश्र
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