कर्नाटक चुनाव: पिछले दस वर्षों में देश की चुनावी राजनीति में आए बदलाव के संदर्भ में बात करें तो कर्नाटक विस चुनाव 2023 में एक नयापन दिखता है.
2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा-आरएसएस के सत्ता में आने के बाद, हिंदुत्व की राजनीति परवान चढने लगी थी. ये दोनों संगठन बड़े सधे अंदाज में पूँजी और राजसत्ता के सहयोग से इस काम को अंजाम दे रहे थे.
ऐसा लगने लगा था कि हिन्दू-हिंदी बेल्ट में इस राजनीतिक आंधी को नहीं रोका जा सकता.
मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के नेता राहुल गाँधी शैव धारा के हिन्दू के रूप में अपनी पहचान बनाने की कोशिश कर रहे थे, तो सपा और बसपा में परशुराम की प्रतिमा स्थापना की घोषणा की होड़ जैसी लग गयी थी.
बिहार में नीतीश कुमार भी काफी हद तक हिंदुत्व के रंग में रंग गये थे और लालू तो कृष्ण के वंशज गोसेवक-गोपाल पहले से थे ही.
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने काली भक्त के रूप में खुद को पेश किया था.
संक्षेप में, मामला यह है कि उस दौर में जनता के जीवन से जुड़े आर्थिक-सामाजिक मुद्दे गौण पड़ गये थे और धर्म राजनीति के केंद्र में स्थापित हो गया था.
कर्नाटक चुनाव में भाजपा और खुद प्रधानमंत्री की पूरी कोशिश के बावजूद, ऐसा नहीं हुआ और कांग्रेस की पांच गारंटी की घोषणा, बजरंगबली के पाखंड पर भारी पड़ गयी.
निस्संदेह, यह गारंटी महंगाई और बेरोजगारी की मार से त्रस्त जनता के दर्द पर मरहम पट्टी से ज्यादा कुछ नहीं है.
बेरोजगारी का मुकम्मल इलाज औद्योगिक विकास और रोजगार की गारंटी से हो सकती है और पूंजीवादी व्यवस्था चाहकर भी इसकी गारंटी नहीं दे सकती.
उसी तरह महंगाई का खात्मा भी बाजार व्यवस्था के खात्मे यानि पूँजीवाद के खात्मे के साथ ही होगा.
जाहिर है कि हम इस हद तक आगे बढ़ने की उम्मीद भाजपा, कांग्रेस या अन्य विपक्षी दलों से नहीं कर सकते. यह उनकी वर्गीय सीमा है और इस बिंदु पर सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे नजर आने लगते हैं.
तब भाजपा अन्य दलों से इस अर्थ में भिन्न है कि उसके पास आरएसएस से जुड़े संगठनों की एक फौज है, जो ‘पूंजीवादी जनवाद के खूंखार दुश्मन फासिज्म के मजबूत आधार धर्म’ की खुली वकालत पूरी बेशर्मी से कर सकती हैं.
वे इतिहास बदल सकते हैं, विज्ञान को खारिज कर सकते हैं और बजरंग दल जैसी गुंडावाहिनी के बल पर दंगा भड़का सकते हैं आदि आदि…
अन्य पार्टियां इतना संगठित नहीं हैं, इसलिए तानाशाही थोपने की उनकी क्षमता, भाजपा की तुलना में कम है. यह एक बड़ा अंतर है.
कर्नाटक चुनाव की यह उपलब्धि मानी जाएगी कि कांग्रेस ने जरूरत पड़ने पर पीएफआई और बजरंग दल जैसे संगठनों पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की है.
अब समय आ रहा है कि उनकी सरकार अपना वादा पूरा करे.
हालांकि दक्षिण भारत के राज्य हिंदुत्व के इस प्रवाह के चपेट में नहीं हैं, लेकिन उनका गेटवे अंशतः इस प्रभाव में आ गया और तटीय कर्नाटक आज भी है.
फिर भी समग्रता में कर्नाटक चुनाव परिणाम, इस प्रवाह के सामने तत्काल अवरोध बनकर खड़ा हो गया है.
सवाल है कि क्या यह स्थायी बनेगा और उत्तर भारत के हिन्दू-हिंदी बेल्ट को प्रभावित करेगा?
यह कई करकों पर निर्भर है और सभी पूंजीवादी विपक्षी दलों के आचरण से तय होगा.
अब अंतिम बात यह कि मेहनतकश जनता के लिए इस चुनाव के क्या संदेश हैं?
इसका जवाब खोजने के पहले देखा जाय कि इस चुनाव में वामपंथियों की कोई चर्चा तक नहीं है.
2011 में पश्चिम बंगाल में माकपा की पराजय के बाद का सच है कि यह पार्टी कांग्रेस और अन्य धर्म निरपेक्ष पूंजीवादी दलों का राजनीतिक ग्रास बनती जा रही है.
और मेहनतकश लोग, अपने वर्ग हित में इससे या किसी अन्य पूंजीवादी वामपंथी से कोई उम्मीद नहीं कर सकते!
ऐसी स्थिति में मेहनतकश जनता के लिए निम्नलिखित महत्वपूर्ण संदेश निकलते हैं :
- नकली धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ असली धर्मनिरपेक्षता की आवाज उठानी चाहिए, जिसमें धर्म को निजी जीवन के दायरे में रखा जाय यानि सार्वजनिक जीवन से अलग रखा जाय.
-तानाशाही के आधार के रूप में धर्म, पूँजी और राजनीति के अंतरसंबंध का भंडाफोड़ होना चाहिए.
- पांच या दस किलो अनाज की भीख और 3000 या 2000 के अनुदान से संतुष्ट होने की जगह, काम को मौलिक अधिकार की तरह लागू करने के लिए संघर्ष करें.
- यह समझते हुए कि उनकी समस्या का मुकम्मल समाधान इस व्यवस्था में सम्भव नहीं है, वे मजदूर राज और समाजवाद की दिशा में संघर्ष में शामिल हों.
- यह समझते हुए कि इस संघर्ष को संगठित करने या दिशा देने के लिए कोई अखिल भारतीय क्रांतिकारी पार्टी नहीं है, इसलिए उसके गठन के लिए वे वैचारिक रूप से खुद को समृद्ध करें.
कर्नाटक विस चुनाव ने सर्वाधिक मुखर ढंग से उपरोक्त संदेश दिये हैं. जरूरत है कि इस दिशा में कदम बढ़ाये जाएं.
लेखक : रामकविन्द्र सिंह
लाइव न्यूज अपडेट के लिए हमें फेसबुक पर लाइक करें या ट्विटर पर फॉलो करें. https://rajniti.online/ पर विस्तार से पढ़ें देश की ताजा-तरीन खबरें