लेखक: मनीष आजाद
‘Salt of the Sea’: चाँद से वापस लौटने के बाद नील आर्मस्ट्रांग ने पत्रकारों के एक सवाल का जवाब देते हुए कहा कि “चाँद पर पहुँचने का सुख चाहे जितना बड़ा हो, घर पहुँचने के सुख से छोटा है.”
‘साल्ट ऑफ दिस सी’ फिल्म देखकर अब लगता है कि नील आर्मस्ट्रांग की जगह, अगर कोई फिलिस्तीनी चाँद पर गया होता तो क्या उसका भी यही जवाब होता, जिसके ‘घर’ पर पिछले 75 सालों से इजराइल ने कब्ज़ा जमा रखा है?
5 करोड़ फिलिस्तीनी एक हाथ में जीवन और दूसरे हाथ में मौत लेकर दशको से अपने घर अपने राष्ट्र के लिए युद्धरत हैं.
यह युद्ध फिलिस्तीन की सड़कों-गलियों के अलावा कविता, कहानी पेंटिंग…और सिनेमा में भी लडा जा रहा है.
फिलिस्तीनी डायरेक्टर ‘Annemarie Jacir’ की यह फिल्म, इसी युद्ध का हिस्सा है.
युद्ध में आपको हमेशा अप्रत्याशित चीजों के लिए तैयार रहना पढता है. इसलिए यह पूरी फिल्म हाथ के कैमरे से फिल्माई गयी है. अतः यहाँ कहानी किसी कसे हुए बैकग्राउंड में घटित नहीं होती, बल्कि बैकग्राउंड भी यहां फ़िल्म के पात्रों के साथ हिलता-डुलता-भागता आगे बढता है, मानो कैमरे की नियति भी पात्रों की नियति से बंधी हुई हो.
हर कदम पर इजरायली प्रतिबंधों के कारण फिल्म का कैमरामैन (Benoît Chamaillard) सीन के लिए उपयुक्त समय के प्राकृतिक प्रकाश का भी इस्तेमाल नहीं कर पाता;
लेकिन इसके कारण फिल्म फिलिस्तीनी जिंदगी के ज्यादा करीब हो जाती है.
फिलिस्तीन में भी तो अक्सर भोर के खूबसूरत प्रकाश का मतलब जीवन नहीं, बल्कि मौत और विध्वंस भी होता है.
फिल्म की कहानी बहुत सामान्य है. अमरीका से ‘सोरैया’ फिलिस्तीन आती है यानी अपना घर और अपनी जड़े देखना चाहती है.
इजरायल एयरपोर्ट पर उतरने के बाद जिस क्रूर ठन्डेपन से उसकी तलाशी ली जाती है और अपने ‘घर’ वापस आने का कारण पूछा जाता है, उसे देखना भी आसान नहीं होता.
लेकिन इस 10-15 मिनट के दृश्य से आप इजरायल-फिलिस्तीन के बीच के संबंधों की गहरी थाह ले सकते हैं, जो मोटी मोटी किताबे भी शायद न बता सकें.
इस दृश्य से आपको इस बात का भी अहसास हो जायेगा कि जब आपकी पहचान का अपराधीकरण कर दिया जाता है, तो आपकी पहचान आपके अंदर ही विस्फोट करने लगती है. उस विस्फोट की अनुगूंज इस फ़िल्म में हमे साफ़ साफ़ सुनाई देती है.
इजराइल में फिलिस्तीन, अमेरिका में अफ्रीकन-मैक्सिकन-ब्लैक, म्यामार में रोहिंग्या, भारत में मुस्लिम….लिस्ट लम्बी है और विस्फोट की आवाज़ भी ऊंची होती जा रही है.
फिलिस्तीन में सोरैया की दोस्ती इमाद से होती है, जो अपने ही देश में एक ‘अपराधी’ की तरह रहने को बाध्य है.
इमाद के साथ घूमते हुए जब अचानक इजरायली सुरक्षा कर्मी इमाद से कपड़े उतारकर तलाशी देने को कहते हैं, तो सोरैया स्तब्ध रह जाती है, लेकिन दर्शक तब स्तब्ध होता है जब वह इमाद को यह कहते सुनता है कि ‘सोरैया, घबराओं मत, यहाँ यह नार्मल बात है.’
यहां कश्मीर के बारे में बशारत पीर की बहुचर्चित किताब ‘कर्फ्यूड नाईट’ याद आ जाती है, इसमें बशारत पीर ने कश्मीर में एक ‘फ्रिस्किंग डिसीज़’ का ज़िक्र किया है, जो नौजवानों की अत्यधिक तलाशी के कारण उन नौजवानों में पैदा हो जाती है.
इमाद और एक अन्य दोस्त के साथ वह अपने पुश्तैनी घर भी जाती है, जहाँ अब उसके घर पर एक इज़राइली का कब्ज़ा है.
इज़राइली लड़की बहुत प्यार से सोरैया का ‘अपने’ घर में स्वागत करती है, लेकिन जब सोरैया गुस्से में उसे बताती है कि यह उसका घर है और 1948 के ‘नकबा’ के दौरान उन्हें अन्य लाखों फिलिस्तीनियों के साथ जबरदस्ती यहाँ से भगाया गया है, तो इज़राइली लड़की सख्त हो कर कहती है कि ‘अतीत को याद मत करो.’
सोरैया का जवाब है कि ‘तुम्हारे लिए जो अतीत है, उसे हम रोज-रोज ढोते हैं.’
सोरैया की प्रेरणा से इमाद भी अपने घर की तलाश में जाता है, जो अब खँडहर में तब्दील हो चुका है.
इज़राइल ने इस पूरे क्षेत्र को ‘राष्ट्रीय संग्रहालय’ में बदल दिया है, जहाँ इज़राइली शिक्षक अपने यहूदी छात्रों को ‘ओल्ड टेस्टामेंट’ के अनुसार यह दिखाने लाते है, कि मानव की उत्पत्ति इसी क्षेत्र से हुई है.
तो फिर फिलिस्तीनी कौन हैं?
क्या एक ईश्वर ने दूसरे ईश्वर को बेदखल करके जीवन की शुरुआत की है?
सोरैया यानी ‘सूहेर हम्माद’ [Suheir Hammad] खुद भी एक फिलिस्तीनी हैं और फिल्म की कहानी की ही तरह खुद भी अमेरिका में पली बढ़ी है.
इसके अलावा वह एक सशक्त कवि भी हैं, जिनकी कविताओं में फिलिस्तीन सांस लेता है. इसलिए कहना मुश्किल है कि फिल्म में कब वे अभिनय कर रही हैं और कब वे अपनी खुद की ट्रेजेडी को जी रही हैं.
उनकी कविताएं हमेशा उनकी आँखों में दिखाई देती है. कभी ओंस की बूँद सी, कभी बुझने से इनकार करती छटपटाती लौ सी और कभी उस समुद्र के नमक सी, जिसमे सोरैया के दादा अपने बच्चो के साथ खेला करते थे.
लेकिन आज वही समुद्र सोरैया को पहचानने से भी इनकार कर रहा है.
इन सबके बावजूद फ़िल्म देखने के बाद अंदर से कवि देवीप्रसाद मिश्र की कविता की एक पंक्ति गूंजती है—
“….और बसने के लिए फ़िलिस्तीन से बेहतर कोई देश न लगे.”
यह फ़िल्म अभी नेटफ्लिक्स पर मौजूद है.
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