यूपी चुनाव में दलित इस बार किसे वोट करेंगे क्या है जमीनी हकीकत ?

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यूपी चुनाव में दलित वोट बैंक की अहम भूमिका होने वाली है. दलित जिस खेमे की ओर झुकेगा जीत की संभावना उसी खेमे की बढ़ेगी. बसपा मुखिया इस वक्त साइलेंट हैं और दलित वोट बैंक के मन की बात को समझना आसान नहीं है.

राजनीति ऑनलाइन नहीं जमीनी हकीकत समझने के लिए करीब 10 जिलों में दलितों से बात की और वह सपा, बसपा, भाजपा, कांग्रेस में से किसे वोट करेंगे यह समझने की कोशिश की. समझा जाता है कि बसपा दलित समुदाय का, जो राज्य की आबादी का 21.6 प्रतिशत है, प्रतिनिधित्व करती है  लेकिन मायावती के ख़िलाफ़ भी दलित अत्याचार का कड़ा विरोध न करने का आरोप है. ऐसे में यूपी चुनाव के दौरान यह बड़ा वोट बैंक किधर जाएगा इसका आकलन करना बहुत जरूरी है.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के 2018-20 के आंकड़ों से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश ने अनुसूचित जातियों के ख़िलाफ़ अपराधों में काफी अंतर से अपना शीर्ष स्थान बरक़रार रखा है. राज्य में 2018 में दर्ज 11924 ऐसे मामलों के मुक़ाबले 2019 में 11829 मामले दर्ज किए गए, जबकि 2020 में यह आंकड़ा बढ़कर 12,714 हो गया. बिहार दूसरे और मध्य प्रदेश तीसरे नंबर पर हैं लेकिन अपराधों की संख्या यूपी की तुलना में आधी से भी कम हैं.

ऐसा दावा किया जा रहा है कि दलित वोटरों पर बसपा और मायावती की पकड़ कमज़ोर होती जा रही है. यदि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अब तक की मीडिया कवरेज का एक जायज़ा लें तो पता लगेगा कि राज्य में दलित वोटों के बिखरने की पूरी संभावना है जो कि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के राजनीतिक आधार को कमज़ोर कर देगा. कुछ विश्लेषक तो चुटकी लेकर कहते हैं कि बसपा राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती एकमात्र ऐसी नेता होंगी जो अपने मतदाताओं को एक बार भी संबोधित किए बिना ही चुनाव में उनसे वोट मांगने जाएंगी.

दलित वोट एक प्रभावशाली जाति समूह हैं और 2007 के चुनाव में बसपा को सत्ता पर बिठाने में इसका एक बड़ा योगदान रहा है. दलित समुदाय में 66 उपजातियाँ शामिल हैं. लेकिन लगभग 55 प्रतिशत दलित वोट जाटव रहे हैं, जो सालों से बसपा और मायावती का साथ देते आए हैं. मायावती ख़ुद इसी जाति से आती हैं. आगामी विधानसभा चुनावों में दलित वोटों का बंटवारा हो जाएगा और बसपा दलित वोट को समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के साथ साझा करने पर मजबूर होगी.

सच तो ये है कि 2012 से ही बसपा की वोट शक्ति में गिरावट आ रही है. इसे साल 2012 के विधानसभा चुनाव में 25 प्रतिशत वोट मिले जो पिछले चुनाव के मुक़ाबले में लगभग 5 प्रतिशत की गिरावट थी. इसी तरह 2017 के विधानसभा चुनावों में, बसपा के वोट शेयर में 5 प्रतिशत की और भी कमी आई और इसका वोट शेयर 20 प्रतिशत रहा.

2014 के आम चुनावों के बाद से भाजपा ने ग़ैर-जाटव दलित वोटों के बड़े हिस्से को बसपा से छीन लिया है. पिछले विधानसभा चुनावों में राज्य की आरक्षित 85 सीटें में से 69 पर भाजपा ने जीत हासिल की. यूपी की 80 लोकसभा सीटों में से 17 अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. इनमें से 2019 के आम चुनाव में बीजेपी ने 14 सीटों पर जीत हासिल की थी. बसपा ने दो और अपना दल ने एक सीट जीती. दलित मामलों के विशेषज्ञ आरबी वर्मा का मानना है कि आरक्षित सीटों का ये अर्थ निकालना सही नहीं होगा कि उन सीटों में दलित समाज बहुमत में है.

भारतीय जनता पार्टी हो या फिर समाजवादी पार्टी दोनों ही पार्टियां दलितों को अपने खेमे में खींचने के लिए पूरी ताकत लगा रही है दूसरी तरफ कांग्रेस भी कोशिश कर रही है कि जो वोट एक जमाने में उनके पास था और जो उनकी बड़ी ताकत हुआ करता था उसको दोबारा से अपने पाले में लाया जा सके. लेकिन जिस तरह से दलितों की नेता मायावती साइलेंट है उसी तरह से दलित वोटर भी साइलेंट है. 2022 के यूपी चुनाव में यह किस ओर जाएगा इसका आकलन करना बहुत मुश्किल है.

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