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हक़ीक़त क्या और सियासत क्या के फेर में उलझा मैं | एक मतदाता का खुला पत्र मुख्यमंत्री के नाम

आदरणीय मुख्यमंत्री जी,

आपके नेतृत्व में चले उत्तर प्रदेश सरकार के शासन के कुछ ही दिन शेष बचे है। इस वक्त जिस तेजी से योजनाओं के रिबन काटे जा रहे है, यकी़नन ये मतदाता को लुभाने के लिए अधिक है। ऐसा आप ही कर रहे है ऐसा कहना भी उचित नहीं होगा। चुनाव से पूर्व ये नज़ारे देखने को अक्सर मिल ही जाते है कि मेरे जैसा तर्कसंगत मतदाता भी एकबारगी इन कागज़ी दावों पर क्षण भर के लिए यक़ीन कर बैठता है। दुष्यंत कुमार की निम्न पंक्तियों में कहूं तो ऐसे नादान मतदाताओं से पूरा प्रदेश भरा पड़ा है जो सियासत की फरेबी चालों को समझ नहीं पाता-

मस्लहत.आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम
तू न समझेगा सियासत तू अभी नादान है


फिलहाल तो आज मैं भी आपसे कुछ अपने मन की बात करना चाहता हूं। आप इसे अन्यथा न लेगें मुझे इसका भरोसा है। मुझे हमेशा से लगता रहा कि हमारी व्यवस्था में ही कुछ ऐसी बुनियादी गड़बड़ी है जिससे अच्छे-भले लोग भी जो करने आते है वह कर नहीं पाते। आपको साल भर काम करते देखकर समझ आया कि परंपरागत चल रही शासन की विचारधाराओं में जड़ें जमाना और आती परिस्थितियों की आंधी को झेलना या एक नई विचारधारा में खुद को ढालने की कोशिश करना क्रांतिदर्शी मनीषियों का प्रयास तो हो सकता है पर सरकार को बनाये रखने या उसे लंबी आयु देने का राजनीतिक धर्म कतई नहीं हो सकता। सत्ता में आने पर अपनी विचारधाराएं लागू करने या फिर क्रांति ला देने की बड़ी-बड़ी बातें अब फ़िजूल की खूंटियों की तरह ही लगती है। जो सिर्फ लटकाने भर का ही काम करती रही है। सबसे बड़ी चीज होती है व्यवहारिकता, जिनके नतीजे सामने होते है और आज की तारीख़ में देखे तो ये व्यवहारिकता भी पारदर्शी और जबावदेह सरकार के ब्रोशर भर ही है। कहते है हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या। जब यकीन से जनता का दर्द समझकर आपने उसे दूर कर ही दिया तो शब्दों की चाशनी में भिगोए, आंकड़ों के जाल से बुने रंगीन फोल्डर बेमानी हो जाते है। राज्य के प्रत्येक नागरिक की खुशहाली ही आपके सफल शासन का आइना बन जाती है। ऐसे में विपक्ष लाख ख़्याली पुलावों की थाली परोसे, मतदाता की हालिया शासन से आत्मसंतुष्टि और शासक के प्रति निष्ठा ही उसे किसी और का चुनाव करने से रोकती है।

माननीय! आकंडों की सत्यता हम सब जानते है। एक मूर्ख व्यक्ति ही इसके बहकावे में आ सकता है। और इस देश का मतदाता तो महामूर्खों की श्रेणी मंे ही आता हैे। बुद्धिजीवी वर्ग या इसकी काट करने वाले अपने-अपने स्वार्थ की बेड़ियों में जकड़े है। उनको इसकी सत्यता को परखने का कोई अरमान नहीं। इस परखने से ज्यादा उन्हें अपनी नौकरी अपने फायदे की पोटली प्यारी है। लेकिन इसमें उनका दोष भी नहीं। अपने आसपास चुप की जाती ज़ुबानों को देखकर वे ऑंख में पट्टी बांधना ही श्रेयकर समझते है। लेकिन मैं आपका एक ऐसा मतदाता हूं जो अपने पसीने की कमाई पर ही जीवित हूं। तो अब नही ंतो कब अपना दर्द आपसे कहूंगा। आप कहते है कि आपने नौकरी एवं रोजगार सृजन को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है। आपके सरकार के प्रशस्ति पत्र के अनुसार बेरोजगारी की दर जो वर्ष 2017 में 17.5 प्रतिशत थी आपके सुशासन के मार्च 2021 के कार्यकाल तक आते-आते घटकर 4.1 प्रतिशत रह गई। संभवतः मैं और मेरे जानने-न जानने वाले कई लोग इसी 4.1 प्रतिशत में रह गये। हम में से कई 2014 के बाद से बेरोजगारी का रोना रो ही रहे और कर्ज़ की जिं़दगी जीने को मजबूर है। इनमें से कुछ तो कोविड के शिकार हो गये और कुछ ने अपनी गरीबी से तंग आकर आत्महत्या तक कर ली। बाक़ी बचे उम्मीद की छूटती डोर को अभी तक पकड़ के बैठे है जिनमें से एक मैं भी हूं। अब आप ही बतायें इस उम्मीद के भरोसे जीने को मजबूर मैं ये कैसे मान लूं कि प्रदेश में रोजगार की धारा प्रवाहित हो रही है।

आप दावा करते है कि प्रदेश देश में दूसरी बड़़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। प्रति व्यक्ति आय दुगुनी गई है। मैं समझ नहीं पा रहा कि इस बात पर गर्व करूं या इसका रोना रोऊं। क्योंकि नोटबंदी के बाद से कई छोटे-मोटे घंधे यू भी बंद हो गये थे। क्योंकि ये अधिकतर ब्लैक मनी से ही चलाये जाते थे। जाहिर है इसके कारण काम भी बंद हुए और नौकरियां तो जानी ही थी। करोना के बाद तो कमजर्फ़ मालिकों की बन आयी। उन्होंने स्टाफ तो कम किया ही प्रति व्यक्ति वेतन भी कम कर दिया। क्या स्कूल, क्या मीडिया, क्या फैक्टरी और क्या दूसरे सेक्टर। सभी ने आय में कटौती कर दी। कितने ही साथियों ने कंपनी छोड़कर कर्ज़ लेकर अपना काम डालना आरंभ किया। मैं अपनी अज्ञानता के लिए आपसे क्षमा चाहूंगी पर इसका कोई प्रमाण मुझे तो नज़र नहीं आता। हर तरफ हाहाकार मचा रहता है। ये सच है हम फिर भी जी रहे है और कर्ज़ की पी रहे है। करोना के चलते अगर कोई सेक्टर फला-फूला तो वह फार्मा सेक्टर रहा और चांदी हुई तो आक्सीजन, आक्सीमीटर और एम्बुलेंस चलाने वालों की।

माननीय! आप बेहतर जानते है कि कोई भी जीवन पद्धति और विचार-धारा अपनी जमीन, हवा, पानी, अपने वातावरण और अपने आसमान की देन होती है। उसकी अच्छाइयां लेकर बुराइयों का त्याग नहीं किया जा सकता। सभी जीवन पद्धतियां और विचारधाराएं अपने पूरे गुण दोष के साथ ही स्वीकार या अस्वीकार्य की जानी चाहिए। लेकिन यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि कोई भी राज्य या फिर देश उस रास्ते पर चलकर सफलता, सार्थकता, मुक्ति या मोक्ष नहीं पा सकता जो पूरी तरह से उसका अपना न हो और मतदाता मात्र एक अंक भर नहीं कि उनका जोड़-घटाव कर अपने खेमे की मजबूती का आंकड़ा तैयार किया जाए। बदलती सत्ताओं से त्रस्त मतदाता खुद अब एक गिनती या जाति के रूप नहीं बल्कि राज्य के एक सम्माननीय नागरिक के तौर पर अपनी पहचान चाहता है। उसके वाजिब अधिकार को वायदों के प्रपत्र के बजाय नागरिक के मूल अधिकार के नाम पर बिना किसी हील-हुज्जत के मिलते देखना चाहता है।

मुख्यमंत्री महोदय! विकास की मीनारें और संसाधनों के भंडार किसे नहीं लुभाते। लेकिन मुझे लगता है कि विकास की होड़ में अपनी हैसियत से ज्यादा उसका ऐसा पहाड़ खड़ा करने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए कि आम आदमी का दम घुटने लगे। आखिर बोझ तो घूम-फिर कर उसी पर आता है। आवश्यकता देश के हर नागरिक को सेहतमंद और खुशहाल रखने की होनी चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि उसकी बेसिक आवश्यकताओं का टोटा न हो। स्वास्थ्यवर्धक और सस्ते अनाज उसका मौलिक अधिकार हो। चिकनी सड़कें, अनवरत बिजली सप्लाई और स्वास्थ्यवर्धक पानी हर वर्ग की सुविधा का एकमात्र लक्ष्य माना जाए। सुस्ंास्कारी शिक्षा देने का मानक सभी के लिए एक जैसा हो। भयरहित समाज की कल्पना मात्र कोरी न लगे। गरीब के लिए अन्न भंडार और भोजन केन्द्र की बात फाइलों से बाहर हक़ीकत में उतरे। जाति भेद, वर्णभेद की रोटी सेंकने के बजाए ऐसा देश-काल हो जो दूसरों के लिए मिसाल बनें। आपके शुरूवाती क़दमों से ऐसे ही भयरहित समाज की उम्मीद जगी थी लेकिन अंतिम वर्ष के आते-आते ये भी एक छलावे में तब्दील हो गई।

गीता में भगवान का कहा मेरे कानों में गूंज रहा- तू तो निमित्त है; करने वाला मैं हूं, फल भोगने वाला मैं हू और मैं ही मरता-जीता और मारता हूं; इसलिए सारा सोच-विचार छोड़कर मेरी इच्छा का निमित्त हो जा। लुब्बे-लुबाब यह कि मैं भी सत्ता-शासक वर्ग के लिए एक निमित्त मात्र भर होता जा रहा हूं। जिसका इस्तेमाल जरूरत के लिए होता है और फिर चंद लुभावने वायदों के रहमोकरम पर सत्ता के अहसान के बोझ तले मैं अगले पांच सालों तक घुटन भरे माहौल में जीने को मजबूर होता हूं।

मुक्तिबोध ने कहा था सूखा हुआ टूटा पत्ता हल्की सी हवा में किसी भी तरफ उड़ जाता है। लेकिन गहरी जड़ों वाला वटवृक्ष तूफान में एक से दूसरी तरफ झुकता हुआ भी उखड़ता नहीं। आपसे मेरा विनीत आग्रह है आपसे बन पड़े तो हमारे लिए बड़े-बड़े वायदों की गठरी नहीं बल्कि मूल अधिकारों जैसे बेरोजगारी, स्वास्थ्य, शिक्षा, सस्ते अनाज-साग-सब्जी के साथ-साथ बिजली-पानी-सड़क और शहरों की बदहाल दैनदिनीं व्यवस्था को डंके की चोट पर ठीक करने का ऐलान करिए। मुझे पूरा यकीन है निर्भय-निष्पक्ष सत्ता के दंड को लेकर जिस क्षण से आपने अपनी इन घोषणाओं को भरोसे के धरातल पर उतारा, उस दिन से जाति-धर्म के नाम पर वोट-वोट करने वालों के लिए आपसे बढ़कर चुनौती और कुछ नहीं होगी। आप मुक्तिबोध के उसी वटवृक्ष की तरह हो जाएगें जिसे हिलाया तो जा सकता है पर उखाड़ा नहीं।

सादर।

आपका एक मतदाता ।

रेखा पंकज, वरिष्ठ पत्रकार

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