गरीब-गुरबों को गंवार बनाओ, अपने बच्चों को कॉन्वेंट में पढ़ाओ

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अपने बच्चे को कान्वेंट में पढ़ाओ और गरीबों तुम भाड़ में जाओ…शायद सरकार की यही नीति है. गरीब गुरबों को गरीबी से निकालने का एकमात्र माध्यम शिक्षा और सरकार ने उसे छीन लिया है. बुनियादी सुविधाओं और डिजिटलीकरण की कमी से जूझते सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी है. यह हाल तब है जब गांव गरीब के भविष्य को संवारने के लिए शिक्षा की सबसे ज्यादा जरूरत है.

ऐसा लगता है कि सरकार गरीब-गुरबों को गंवार बनाने की योजना पर काम कर रही है. सरकार की प्राथमिकताओं में गांव देहात के बच्चों को शिक्षित करना है ही नहीं. क्योंकि अगर ऐसा होता तो सरकार के कामकाज में गंभीरता दिखाई देती. भारत के कुल 15 लाख से कुछ अधिक स्कूलों में से 68 प्रतिशत स्कूल सरकारी हैं लेकिन वहां शिक्षकों की घोर कमी बनी हुई है. इन स्कूलों में 50 प्रतिशत से भी कम शिक्षक तैनात हैं. जबकि नई शिक्षा नीति में छात्र और शिक्षक का अनुपात 30: 1 रखने को कहा गया है.

डिजिटलीकरण और ऑनलाइन एजुकेशन का ढिंढोरा पीटने वाली सरकार अपने ही आंकड़ों में यह कहती है कि 30 प्रतिशत स्कूलों के पास कंप्यूटर चलाने वाला या उसकी जानकारी रखने वाला शिक्षक भी नहीं है. खस्ताहाल सरकारी शिक्षा सिस्टम इन दिनों अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है क्योंकि सरकार सिर्फ परसेप्शन की पॉलिटिक्स कर रही है. यह तब है जब सरकारी स्कूलों की बदहाली देश की अर्थव्यवस्था, सामाजिक स्थिति और जीडीपी के लिहाज से भी चिंताजनक है. जमीनी हकीकत को छोड़ भी दें और सिर्फ सरकारी आंकड़ों पर ही गौर करें तो भी स्थिति भयावह है.

सरकारी एजुकेशन सिस्टम में सिर्फ शिक्षकों की कमी ही मसला नहीं है

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में छात्र-शिक्षक अनुपात (पीटीआर) 30:1 रखने का जिक्र किया गया है यानी हर तीस शिक्षार्थियों के लिए एक शिक्षक. प्राइमरी कक्षाओं में 30 से ऊपर की पीटीआर वाले राज्य दिल्ली और झारखंड हैं. अपर प्राइमेरी लेवल में सभी राज्यों का पीटीआर 30 से नीचे हैं. लेकिन सेकंडरी और हायर सेकंडरी कक्षाओं में ये स्थिति उतनी अच्छी नहीं हैं. बिहार में प्राइमरी कक्षा में पीटीआर 55.4 का है तो सेकेंडरी में 51.8 का. हायर सेकेंडरी में ओडीशा का पीटीआर चिंताजनक रूप से 66.1 का है.

पीटीआर की दयनीय स्थिति के अलावा इस विभागीय रिपोर्ट से ये भी पता चलता है कि कुल स्कूलों में से 30 प्रतिशत स्कूलों में ही कम से कम एक टीचर को ही कम्प्यूटर चलाना और क्लास में उसका इस्तेमाल करना आता है. ध्यान रहे कि कोविड-19 के संकट में ऑनलाइन पढ़ाई पर जोर है और बच्चे करीब दो साल से स्कूल की चारदीवारी में नहीं दाखिल हो पाए हैं. वे या तो घर से पढ़ने को विवश हैं और सरकारी स्कूलों की हालत तो ये रिपोर्ट बता ही रही है. बेशक कई घरों में कम्प्यूटर, लैपटॉप, इंटरनेट कनेक्शन, स्मार्टफोन आदि का अभाव है लेकिन ये भी सच्चाई है कि बहुत से स्कूलों में सुविधाएं नहीं हैं और बहुत से स्कूली शिक्षक कम्प्यूटर नहीं जानते. ये भी सही है कि किसी एक चीज की कमी या किल्लत की आड़ में भी ऑनलाइन सीखने सिखाने की जद्दोजहद के कन्नी काटने की प्रवृत्तियां भी दिखती हैं.

सेंट्रल एजुकेशन मिनिस्ट्री की रिपोर्ट का मर्म भी समझिए

यहां सरकार की आलोचना करना ही काफी नहीं है सरकार से सवाल करने की भी जरूरत है. क्योंकि जिस ढंग से सरकारी एजुकेशन सिस्टम काम कर रहा है उसे आने वाले समय में अनपढ़ युवाओं की एक पूरी फौज भारत के सामने सैकड़ों सवालों के साथ खड़ी होगी. और इसलिए सेंट्रल एजुकेशन मिनिस्ट्री की रिपोर्ट पर ध्यान देने की जरूरत है. 2019-20 के लिए यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इंफॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन प्लस (यूडीआईएसई+) की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों के मुकाबले सरकारी स्कूलों में शिक्षकों का अनुपात काफी कम है. केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग की ओर से जारी इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में 15 लाख से कुछ अधिक स्कूल हैं जिनमें से 10 लाख 32 हजार स्कूलों को केंद्र और राज्य सरकारें चलाती हैं. 84,362 स्कूल सरकार से सहायता प्राप्त है, तीन लाख 37 हजार गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूल हैं और 53,277 स्कूलों को अन्य संगठन और संस्थान चलाते हैं.

बदहाल शिक्षा व्यवस्था का बेरंग सच और सरकारी आंकड़े

देश के तमाम स्कूलों में करीब 97 लाख टीचर नियुक्त हैं. इनमें से 49 लाख से कुछ अधिक शिक्षक सरकारी स्कूलों में, आठ लाख सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में, 36 लाख निजी स्कूलों में और शेष अन्य स्कूलों में कार्यरत हैं. देश के कुल स्कूलों में से 22.38 प्रतिशत स्कूल निजी गैर सहायता प्राप्त हैं तो 68.48 प्रतिशत स्कूल सरकारी हैं. 37.18 प्रतिशत अध्यापक, निजी स्कूलों मे तैनात हैं. लेकिन सरकारी स्कूलों में आधी संख्या में शिक्षक नियुक्त हैं, 50 प्रतिशत पद खाली हैं. देश में सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल साढ़े पांच फीसदी हैं और वहां करीब साढ़े आठ फीसदी शिक्षक हैं, जबकि अन्य स्कूलों में 3.36 प्रतिशत शिक्षकों की तैनाती है.

सरकारी स्कूलों की जर्जरता और बदहाली के लिए कौन जिम्मेदार?

गांव गरीब के बच्चे अच्छी शिक्षा हासिल करके देश के विकास में योगदान दें और अपनी सामाजिक स्थिति को बेहतर करें इसके लिए जरूरी है किस सरकारी एजुकेशन सिस्टम दुरुस्त हो. लेकिन ताजा आंकड़े और जमीनी हकीकत इस बात के संकेत देते हैं कि सरकार की प्राथमिकताओं में शिक्षा है कि नहीं. सरकार अनपढ़ और जाहिल ओं की एक फौज चाहती है जो आंखें बंद करके उसकी हां में हां मिलाते रहे. और यही कारण है किस सरकारी स्कूलों के बच्चे कॉन्वेंट में पढ़ने वाले अमीरों के बच्चों से पिछड़ जाते हैं और एहसास ए कमतरी का शिकार हो जाते हैं. निजी स्कूलों के पास बेहतर सुविधाएं, उपकरण और संसाधनों के अलावा अनुभवी और प्रशिक्षित टीचर हैं वहीं सरकारी स्कूलों में हालात 21वीं सदी के दो दशक बाद भी नहीं सुधर पाए हैं और वे बुनियादी संसाधनों से लेकर शिक्षकों की कमी तक- समस्याओं के बोझ तले दबे हुए हैं. समस्या छात्र शिक्षक अनुपात की तो है ही- पद खाली पड़े हुए हैं और टीचर या तो हैं नहीं और अगर हैं भी तो जहां उन्हें होना चाहिए वहां नहीं हैं.

यहां एक और आंकड़ा मैं आपको देता हूं. 2016 में उस वक्त के केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय जिसे बाद में नाम बदलकर शिक्षा मंत्रालय कर दिया गया उसने एक रिपोर्ट पेश की थी. इस रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में एक लाख स्कूल ऐसे हैं जहां सिर्फ एक शिक्षक ही तैनात है.
इसमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तराखंड के हाल सबसे बुरे बताए गए थे. शिक्षा मंत्रालय की अभी हालिया रिपोर्ट की भी अगर हम बात करें तो उसमें भी हालात जस के तस है. तो क्या सरकार से यह सवाल करने की जरूरत नहीं है कि उसने पिछले 5 सालों में गांव देहात के बच्चों को शिक्षा मुहैया कराने के लिए जो प्रयास किए हैं उसका जमीनी असर कितना हुआ है? क्योंकि आंकड़े तो यही इशारा करते हैं कि गरीब के बच्चों को गंवार बनाओ और अपने बच्चों को कान्वेंट में पढ़ाओ.

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