सुंदरलाल बहुगुणा : पर्यावरणीय संघर्ष और चेतना के अध्याय का समापन

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सुंदरलाल बहुगुणा निराशा भरे माहौल में आशा की एक किरण थे जिन्होंने अपने संघर्ष और चेतना से पर्यावरण को प्राण देने का काम किया. शुक्रवार को 93 साल की उम्र में उनका निधन हो गया. वह कोरोना से पीड़ित थे.

सुंदर लाल बहुगुणा अपने पीछे सामाजिक संघर्षों की विस्तृत सिलसिला छोड़कर गए हैं. दुनिया उन्हें और चंडी प्रसाद भट्ट को चिपको आंदोलन के लिए जानती है लेकिन यह आंदोलन उनके सामाजिक जीवन के कई आंदोलनों में एक था. सुंदर लाल बहुगुणा का सामाजिक राजनीतिक जीवन 1942 के स्वतंत्रता संग्राम के वक़्त ही शुरू हो गया था. गांधी जी के प्रभाव में आकर वे कांग्रेस के आंदोलन में शामिल हो गए थे.

सुंदरलाल बहुगुणा का जन्म उत्तराखंड के टिहरी जिले में हुआ था

नौ जनवरी 1927 को उत्तराखंड के टिहरी ज़िले के मरूड़ा गांव में जन्मे बहुगुणा का जीवन पर्यावरण, राजनीति, समाज सेवा और पत्रकारिता समेत बहुत सारे अनुभवों को समेटे था. उनकी समझ गांधी के विचारों से प्रेरित थी. उन्होंने 13 साल की उम्र में आजादी के आंदोलन में हिस्सा लिया. किशोरावस्था में कौसानी में गांधी सरला बहन के आश्रम में उनका वक्त गुजारा और वहीं उनकी चेतना विकसित हुई. यह गांधी का प्रभाव ही था कि बहुगुणा ने अपने पूरे जीवन में इस बात के लिये प्रयत्न किया कि कथनी और करनी में अंतर ना हो. वह अपना छोटे से छोटा काम भी स्वयं ही करते और जब उनकी पर्यावरणीय चेतना विकसित हुई तो उन्होंने एक सस्टेनेबल और प्रकृति के अनुरूप जीवन शैली अपनाई.

सुंदरलाल बहुगुणा की गांधीवादी विचारों में आस्था कभी खत्म नहीं हुई. वे जिस तरह की शख्सियत थे, उस दौर की राजनीति में भी वे तेज़ी से जगह बनाते. लेकिन 1956 में उनके जीवन में एक बड़ा बदलाव तब आया जब सामाजिक कार्यकर्ताओं के परिवार से आने वाली विमला नौटियाल से उनकी शादी हुई. विमला नौटियाल उस वक़्त गांधी जी की सहयोगी सरला बहन के साथ काम करती थीं, उन्होंने शादी से पहले ही शर्त रख दी थी कि, “मेरे साथी को राजनीतिक वर्कर के तौर पर काम छोड़कर ख़ुद को पूरी तरह से सामाजिक क्षेत्र के काम में जुटना होगा.” सुंदर लाल बहुगुणा ने वही किया जो विमला चाहती थीं. दोनों ने मिलकर टिहरी के भिलंगना ब्लॉक में पर्वतीय नवजीवन मंडल से एक आश्रम की स्थापना की.

चावल खाने से क्यों परहेज करते थे सुंदरलाल बहुगुणा?

बहुगुणा ने एक बार कहा, “मैं चावल नहीं खाता क्योंकि धान की खेती में बहुत पानी की खपत होती है. मुझे पता नहीं कि इससे पर्यावरण संरक्षण की कोशिश कितनी मजबूत होगी लेकिन मैं प्रकृति के साथ सहजीविता के भाव के साथ जीना चाहता हूं ताकि कोई अपराध बोध न हो.”
युवावस्था में बहुगुणा ने स्यालरा में पर्वतीय जन जीवन मंडल की स्थापना की और दलित बच्चों और बालिकाओं को शिक्षित करने का काम शुरू किया. उन्होंने उत्तराखंड के बूढ़ा केदार में दलित परिवारों के साथ जीवन बिताया. एक ही घर में सोये और भोजन किया. यह वह दौर था जब जाति की बेड़ियां बहुत मजबूत थीं और और गांधीवादी छुआछूत के खिलाफ संघर्ष तेज कर रहे थे.

कश्मीर से कोहिमा तक की यात्रा और चंडी प्रसाद भट्ट से विवाद

1982 में उन्होंने कश्मीर से कोहिमा तक की यात्रा शुरू की, यह एक तरह से पूरे हिमालयी इलाक़ों को आपस में जोड़ते हुए उनकी समस्याओं पर बात करने की मुहिम थी. इसके बाद टिहरी डैम के विरोध का लंबा संघर्ष उन्होंने किया. ये बात और है कि सरकारों ने इस विरोध पर ध्यान नहीं दिया, लेकिन आम समाज की जागरूकता पर इन आंदोलनों का गहरा असर हुआ. जानकार बताते हैं कि चिपको आंदोलन को लेकर सुंदर लाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट में आपसी मनमुटाव की बातें भी होती रही हैं, लेकिन ये लोग इतने बड़े सामाजिक कार्यकर्ता थे कि आपसी मनमुटाव का असर इनके कामों पर नहीं दिखता था.

सुंदरलाल बहुगुणा को इतने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों के बावजूद आत्मचिंतन करने और अपनी गलतियों को सुधारने में कोई हिचक नहीं थी. वैसे सामाजिक कार्यकर्ता थे जिनकी स्वीकार्यता सब जगह थी. उन्होंने पर्यावरण को बचाने के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया और आखिर में वह हम सबको जो सीख देकर गए हैं उसका सार यही है कि हमारे भीतर से सामाजिक चेतना का पतन नहीं होना चाहिए.

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