असम चुनाव में ये फैक्टर बनवाएगा सरकार?

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असम चुनाव के समीकरण भी कम दिलचस्प नहीं हैं. यह बात अलग है कि बंगाल के शोर में यह चुनाव कुछ दब से गए हैं.

पश्चिम बंगाल में होने वाला विधानसभा चुनाव भले सबसे ज्यादा सुर्खियां बटोर रहा हो, पड़ोसी असम में होने वाले विधानसभा चुनाव के समीकरण भी कम दिलचस्प नहीं हैं. यह बात अलग है कि बंगाल के शोर में यह चुनाव कुछ दब से गए हैं. दोनों राज्यों के समीकरण एक-दूसरे से भिन्न हैं. बीजेपी बंगाल में जहां दो सौ सीटें जीत कर सरकार बनाने के दावे के साथ मैदान में है वहीं असम में पांच साल से सत्ता में रही यह पार्टी कांग्रेस के नेतृत्व में बने गठबंधन से मिलने वाली कड़ी चुनौतियों के बीच अपनी सरकार बचाने के लिए मैदान में है.

असम चुनाव में कौन मजबूत?

असम के चुनावी नतीजों का पूर्वोत्तर की राजनीति पर गहरा असर होने की संभावना है. असम की 126 सीटों के लिए तीन चरणों में मतदान होना है. पहले चरण में जिन सीटों पर मतदान होना है उनमें से ज्यादातर ऊपरी और उत्तरी असम में हैं. इनमें से कम से कम 20 सीटों पर चाय बागान मजदूरों के वोट निर्णायक हैं.यही वजह है कि दोनों प्रमुख गठबंधनों ने इन मजदूरों के लिए लंबे-चौड़े वादे किए हैं. माना जाता है कि राज्य में पहले चरण की सीटों पर हार-जीत ही सरकार का स्वरूप तय करती है. वर्ष 2016 के चुनाव में बीजेपी ने अपने सहयोगी असम गण परिषद (अगप) के साथ मिलकर इनमें 35 सीटें जीती थीं. उसी के बूते पार्टी ने पंद्रह साल से काबिज तरुण गोगोई के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को सत्ता से बाहर करने में कामयाबी हासिल की थी. बीते लोकसभा चुनाव में बीजेपी और उसके सहयोगी दलों को पहले चरण की 40 सीटों पर बढ़त मिली थी.

बाढ़ है प्रमुख चुनावी मुद्दा

असम में आने वाली सालाना बाढ़ हर बार की तरह इस बार भी सबसे अहम मुद्दा है. उसके अलावा एनआरसी और नागरिकता कानून (सीएए) जैसे मुद्दे भी अहम बन गए हैं. बीजेपी ने बंगाल में जहां सरकार बनते ही मंत्रिमंडल की पहली बैठक में नागरिकता कानून (सीएए) को लागू करने का एलान किया है वहीं असम में उसने इस मुद्दे पर पूरी तरह चुप्पी साध रखी है. वहां इस कानून का सबसे ज्यादा हिंसक विरोध हुआ था. पार्टी ने राज्य में आने वाली सालाना बाढ़ से निपटने के अलावा एनआरसी की कमियों को दुरुस्त करने और चाय बागान मजदूरों की मजदूरी बढ़ाने जैसे मुद्दों पर ज्यादा जोर दिया है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह तो बीजेपी के सत्ता में लौटने की स्थिति में लव जिहाद और लैंड जिहाद के खिलाफ कानून बनाने तक का दावा कर चुके हैं. सरकार में उसकी सहयोगी रही असम गण परिषद (अगप) ने भी अपने घोषणापत्र में सीएए पर चुप्पी साधते हुए असम समझौते की धारा छह को लागू करने की बात कही है. हर चुनाव की तरह इस बार भी महिलाओं और राज्य के चाय बागान मजदूरों का मुद्दा सुर्खियों में है. असम के 2.24 करोड़ वोटरों में 1.10 करोड़ महिलाओं को ध्यान में रखते हुए तमाम दलों ने अपने घोषणापत्रों में इस तबके के लिए आकर्षक वादे किए हैं.

असम में बीजेपी का मुकाबला कांग्रेस के नेतृत्व में बने सात दलों के गठबंधन से है जिसमें बदरुद्दीन अजमल की आल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) के अलावा कई अन्य क्षेत्रीय दल शामिल हैं. बदरुद्दीन अजमल को साथ लेने की वजह से भाजपा के तमाम नेता कांग्रेस को लगातार निशाना बनाते रहे हैं. अजमल को बंगाली मुसलमानों का संरक्षक माना जाता है और सीमा पार बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ में सबसे ज्यादा तादाद ऐसे मुसलमानों की ही रही है. फिलहाल बदरुद्दीन अजमल ही कांग्रेस गठबंधन के सबसे बड़े नेता के तौर पर उभरे हैं. इससे बीजेपी को हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण में मदद की उम्मीद है. असम की राजनीति में क्षेत्रीय दलों की भूमिका अस्सी के दशक से ही अहम रही है. इस बार भी सीएए-विरोधी आंदोलन की कोख से उपजी दो नई पार्टियों–असम जातीय परिषद (एजेपी) और राइजोर दल (आरडी) ने हाथ मिलाया है. इनका बेहतर प्रदर्शन बीजेपी के लिए नुकसानदेह हो सकता है.

असम चुनाव और एनआईसी कानून

कांग्रेस ने सत्ता में आने पर नागरिकता संशोधन कानून को राज्य में लागू नहीं करने, चाय बागान मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी बढ़ा कर 365 रुपये करने और पांच लाख सरकारी नौकरियां और निजी क्षेत्र में 25 लाख रोजगारों का सृजन करने समेत पांच गारंटियां दी है. कांग्रेस ने बीजेपी पर धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण का प्रयास करने का आरोप लगाया है. दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह अपनी रैलियों में बदरुद्दीन अजमल पर लगातार हमले करते रहे हैं. वित्त मंत्री हिमंत बिस्व सरमा तो अजमल को असम का दुश्मन तक बता चुके हैं. वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक, राज्य में 62 फीसदी आबादी हिंदुओं की है और करीब 34 फीसदी मुसलमानों की.

असम विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ गठबंधन के अलावा कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन का बहुत कुछ दांव पर है. बीजेपी की सत्ता में वापसी से पूर्वोत्तर की राजनीति पर उसकी पकड़ मजबूत होगी. इसके अलावा वह यह दावा भी कर सकती है कि एनआरसी और सीएए के प्रति राज्य के लोगों में कोई नाराजगी नहीं है. दूसरी ओर, कांग्रेस गठबंधन के लिए यह चुनाव पार्टी की स्थिति और बदरुद्दीन अजमल के साथ उसके तालमेल पर जनमत संग्रह साबित हो सकता है.

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