न्यूनतम समर्थन मूल्य या MSP किसानों के लिए क्यों जरूरी है?

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किसान आंदोलन धीरे-धीरे जोर पकड़ रहा है और सरकार बैकफुट पर जाते देख रही है. किसानों की मांग है की न्यूनतम समर्थन मूल्य या MSP खत्म करने के लिए कृषि बिल लाए गए हैं. लेकिन सरकार तर्क दे रही है की यह कानून किसानों की तकदीर बदल देंगे.

आंदोलन कर रहे किसानों को डर है कि मोदी सरकार द्वारा लाए गए कृषि कानूनों से MSP की व्यवस्था का अंत हो जाएगा. न्यूनतम समर्थन मूल्य या MSP किसानों से उनका उत्पाद खरीदने के लिए सरकार द्वारा तय की गई कीमत है. इसका उद्देश्य है किसानों के लिए न्यूनतम लाभ सुनिश्चित करना जिससे उन्हें बाजार में होने वाली उथल पुथल की वजह से अपने उत्पाद को लागत से कम दाम पर बेचने के लिए मजबूर ना होना पड़े. भारत सरकार 23 कृषि उत्पादों के लिए साल में दो बार एमएसपी तय करती है.

इनमें सात अनाज (धान, गेहूं, जौ, ज्वार, बाजरा, मक्का और रागी), पांच दालें (चना, अरहर/तूर, उड़द, मूंग और मसूर), सात तिलहन और चार व्यावसायिक फसलें (कपास, गन्ना, खोपरा और जूट) शामिल हैं. 

अब आप सोच रहे होंगे की न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कौन करता है आपको बता दें कि MSP कृषि मंत्रालय की एक समिति सीएसीपी तय करती है. इस समिति का पहली बार 1965 में गठन हुआ था और इसने पहली बार 1966-67 में हरित क्रांति के दौरान गेहूं का MSP तय किया था. मौजूदा कृषि मंत्री ने हाल ही में कहा कि MSP का कोई वैधानिक आधार नहीं है. ना तो सीएसीपी किसी कानून के तहत बनी थी और ना ही MSP किसी कानून के तहत दी जाती है. फिर भी भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में कृषि का वजन देखते हुए इसे दशकों से हर सरकार ने एक प्रथा की तरह कायम रखा है.

सरकार कैसे तय करती है फसलों के दाम?

तो अब अगला प्रश्न जाता है कि किसान अपने खेतों में जो फसल पैदा करता है उस उत्पादन के दाम कैसे तय किए जाते हैं? दरअसल, दाम तय करते समय सीएसीपी जिन बातों का ध्यान रखती है उनमें 2009 में संशोधन किया गया था. इनमें 

  • मांग और आपूर्ति, उत्पादन लागत, आंतरिक और अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतों की प्रवृत्ति
  • अलग अलग फसलों के बीच दाम की समानता, कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों के बीच व्यापार की शर्तें
  • उत्पादन लागत के ऊपर से न्यूनतम 50 प्रतिशत मुनाफा
  • और एमएसपी का उस उत्पाद के उपभोक्ताओं पर संभावित असर शामिल हैं

दाम तय करने से पहले सीएसीपी केंद्रीय मंत्रालयों, एफसीआई, नाफेड जैसे सरकारी संस्थानों, सभी राज्य सरकारों, अलग अलग राज्यों के किसानों और विक्रेताओं के साथ बैठक करती है और बातचीत करती है. इन सबके आधार पर समिति कीमतों की अनुशंसा करती है और सरकार को अपनी रिपोर्ट भेजती है. उसके बाद आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति (सीसीईए) एमएसपी पर अंतिम निर्णय लेती है.

यह बात भी सच है अभी तक एमएसपी को लेकर किसान बहुत संतुष्ट नहीं रहा है क्योंकि अक्सर अपनी फसल के लिए सही दामों को लेकर किसानों की अपेक्षा और सरकार द्वारा तय की गई एमएसपी में फासला रह जाता है. प्रोफेसर एमएस स्वामिनाथन की अध्यक्षता में किसानों के लिए बने राष्ट्रीय आयोग ने 2004 से 2006 के बीच किसानों की कठिनाइयां कम करने के लिए कई प्रस्ताव दिए थे, जिनमें एक प्रस्ताव यह भी था की एमएसपी उत्पादन लागत से कम से कम 50 प्रतिशत ज्यादा हो.

उत्पादन की लागत कैसे तय होती है?

सीएसीपी के अनुसार लागत की तीन परिभाषाएं हैं – एटू, एटू+ एफेल और सीटू . एटू यानी बीज, केमिकल्स, भाड़े पर कराया गया श्रम, सिंचाई, खाद और ईंधन जैसी चीजों पर नकद और किसी वस्तु के रूप में किया गया हर तरह का खर्च.

  1. एटू+ एफेल यानी ये सारा खर्च और उसके अलावा किसान के परिवार के सदस्यों द्वारा किए गए श्रम का मूल्य.
  2. सीटू का मतलब इन दोनों श्रेणियों में हिसाब में लिया गया सारा खर्च और उसके अलावा लीज पर ली गई जमीन का किराया और उस किराए पर ब्याज.

इनमें एटू का मूल्य सबसे कम है, एटू+ एफेल का उससे ज्यादा है और सीटू का सबसे ज्यादा है. पिछले एक दशक से भी ज्यादा से एमएसपी तय करने के लिए एटू+ एफेल वाली परिभाषा का ही इस्तेमाल किया जा रहा है और उसमें उसके कुल मूल्य का 50 प्रतिशत और जोड़ कर एमएसपी तय की जा रही है.

किसान संगठन और कृषि एक्टिविस्ट लंबे समय से एमएसपी को सीटू+ 50 प्रतिशत करने की मांग कर रहे हैं. लेकिन अब इन नए कृषि कानूनों की वजह से यह सारी बहस ही निराधार हो जाएगी, क्योंकि जब निजी खरीददार किसानों से उत्पादों को सरकारी मंडियों के बाहर भी खरीद सकेंगे तो खरीद MSP से नीचे के दाम पर ना हो सरकार यह सुनिश्चित नहीं कर पाएगी. इसलिए किसान डरे हुए हैं.

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